हमारी बहुत सी कहानियों के नायक-नायिकाएँ अक्सर कहते हैं कि कुछ अच्छा करने के लिए आपको पैसे या फिर बहुत ज्यादा साधनों की ज़रूरत नहीं होती। आप अपने दायरे में रहकर भी समाज में बदलाव की वजह बन सकते हैं क्योंकि बदलाव के लिए बस आपकी हिम्मत और जज़्बे की ज़रूरत है।
यदि आप एक बार ठान लें कि आपको किसी की ज़िंदगी अच्छी करनी है तो राहें खुद-ब-खुद बन जाती है। ऐसी ही कुछ कहानी है हमारे आज के नायक, डॉ. चित्तरंजन जेना की।
डॉ. चित्तरंजन जेना, जिन्होंने बस अपने दायरे में रहकर अपनी शिक्षा और साधनों का सही उपयोग किया और आज वह पूरे देश के चिकित्सकों के लिए मिसाल हैं।
ओडिशा के दशमंतपुर के प्राइमरी हेल्थ सेंटर में सरकारी मेडिकल अफसर के पद पर नियुक्त डॉ. जेना पिछले ढाई सालों से यहाँ के आदिवासी गाँवों में स्वास्थ्य शिविर लगा रहे हैं। उनका उद्देश्य मूलभूत स्वास्थ्य सेवाओं को इन आदिवासी समुदायों तक पहुंचाना है।
अपने सफ़र के बारे में द बेटर इंडिया से बात करते हुए उन्होंने बताया कि अपनी पढ़ाई के दौरान भी वह सामाजिक कार्यों के लिए आगे रहते थे। पढ़ाई पूरी होने के बाद उन्हें सरकारी नौकरी मिली और उन्होंने अपनी पोस्टिंग कोरापुट इलाके में करवाई।
“ओडिशा का कोरापुट पिछड़े इलाकों में आता है। यहाँ गाँवों को शहरों और कस्बों से जोड़ने के लिए सड़क नहीं है। पहाड़ी इलाका है और आपको पैदल चलकर आना-जाना पड़ता है। ऐसे में, अन्य मूलभूत सुविधाओं की बात भूल ही जाइए,” उन्होंने आगे कहा।
इन सभी समस्याओं के अलावा एक और ठोस वजह रही, जिसने डॉ. जेना को प्रेरित किया। वह अपने स्तर से आगे बढ़कर इन लोगों के लिए कुछ करना चाहते थे। डॉ. जेना बताते हैं कि कोरापुट के बाद उनकी पोस्टिंग दशमंतपुर में हुई। उस समय बारिश का मौसम था और डायरिया के मरीज़ों की कतार हेल्थ सेंटर के बाहर लगी हुई थी।
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उन्होंने इन मरीज़ों का इलाज किया और बाद में इस इलाके के कुछ पुराने मेडिकल रिकार्ड्स देखे। इन रिकार्ड्स से पता चला कि साल 2007 में यहाँ पर कॉलेरा फैला था और सरकार के औपचारिक रिकॉर्ड के मुताबिक उस समय सिर्फ 35 मौतें दिखाई गई थीं लेकिन असल में यहाँ 300 से ज्यादा लोगों की मौत हुई थी।
इस बात ने उन्हें बहुत प्रभावित किया कि समस्या को हल करने की बजाय उसे अनदेखा किया जा रहा है। ऐसे में, उन्होंने खुद अपने स्तर पर कुछ करने की ठानी।
15 अगस्त 2017 को उन्होंने अपनी मेडिकल टीम के साथ एक समिति बनाई- ‘गाँवकु चला’ मतलब कि ‘गाँव की ओर चलो’!
इस समिति के ज़रिए उन्होंने तय किया कि उनकी टीम हर हफ्ते अपनी छुट्टी वाले दिन ब्लॉक के एक-एक गाँव में जाकर लोगों तक स्वास्थ्य सुविधाएँ पहुंचाएगी। गाँव-गाँव जाकर लोगों को स्वास्थ्य के लिए ज़रूरी क्रियाकलापों के बारे में जागरूक किया जाएगा, उनका रूटीन चेकअप होगा और उन्हें रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में स्वास्थ्य संबंधी बातों के बारे में भी बताया जाएगा। उन्होंने एक कहावत सुनी थी कि यदि बच्चे स्कूल नहीं आते तो स्कूल को बच्चों तक जाना चाहिए। बस इसी से प्रेरणा लेकर उन्हें समिति बनाने का ख्याल आया।
” मैंने ठाना कि अगर मरीज़ अस्पताल तक नहीं पहुंच पा रहे हैं तो अस्पताल उन तक पहुंचेगा,” उन्होंने आगे कहा।
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अपनी समिति में उन्होंने एमडीडी यानी कि मलेरिया, डायरिया और डेंगू पर फोकस किया क्योंकि ये बीमारियाँ वहाँ सामान्य थीं।
‘गाँवकु चला’ समिति के काम की शुरुआत गाँवों के सरकारी स्कूलों से हुई। सबसे पहले बच्चों को स्वास्थ्य संबंधी ज़रूरी बातों के बारे में बताया गया और फिर गाँवों के अन्य लोगों तक पहुंच बनाई गयी। वह बताते हैं कि तय दिन पर वह सुबह छह बजे अपनी टीम के साथ निकलते हैं।
ज़्यादातर गाँव उनके सेंटर से 6 से 7 किमी की दूरी पर हैं और इनका रास्ता पहाड़ों से होकर जाता है। वह पैदल चलकर ही गाँवों तक पहुंचते हैं। अपने साथ वह कुछ ज़रूरी सामान जैसे साबुन, मच्छरदानी, दवाइयाँ, आदि लेते हैं।
“सबसे पहली गतिविधि में हम ‘हैंड वाशिंग ड्रिल’ कराते हैं यानी कि हम उन्हें समझाते हैं कि उन्हें खाना खाने से पहले और बाद में हाथ अच्छे से धोने चाहिए। इसके अलावा, ज़्यादातर ग्रामीण गाँवों में बहने वाली नदी या झरनों का पानी इस्तेमाल करते हैं। उन्हें समझाया जाता है कि इस पानी को खाने और पीने में इस्तेमाल करने से पहले अच्छे से उबालें और फिर छानकर पियें।”
फिर गाँवों में मलेरिया से बचने के लिए उन्हें मच्छरदानी लगाकर सोने की सलाह दी जाती है। शुरू में सामान्य जागरूकता के बाद, गाँववालों का रूटीन चेकअप किया जाता है और उन्हें ज़रूरी दवाइयाँ मुहैया करवाई जाती हैं। यदि किसी की तबीयत ज्यादा खराब है तो उसेे तुरंत नजदीकी प्राइमरी हेल्थ सेंटर या फिर अस्पताल में भर्ती करवाया जाता है।
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लोगों को समझाने के साथ-साथ वह गाँव के हर एक घर में साबुन, मच्छरदानी आदि भी देते हैं। उनका जोर स्वच्छता पर भी रहता है। किसी गाँव में कहीं पानी जमा हुआ देखकर, वह खुद गाँव के लोगों के साथ मिलकर इसे साफ़ करते हैं, क्योंकि डायरिया, डेंगू जैसी बिमारियों के लिए गंदे पानी में पनपे मच्छर आदि ही ज़िम्मेदार होते हैं।
डॉ. जेना कहते हैं कि जैसे-जैसे वक़्त बीत रहा है उनकी गतिविधियाँ बढ़ रही हैं। अब गाँव के लोग उन्हें अपनाने लगे हैं और उन पर भरोसा करते हैं। इस वजह से उन्होंने दूसरे मुद्दों पर भी बात करना शुरू किया है।
“हम उन्हें बाल विवाह के बारे में समझाने लगे। उन्हें जागरूक किया गया कि कम उम्र में शादी की वजह से लड़कियों की ज़िंदगी खतरे में पड़ जाती है। इसके अलावा, स्कूलों और गाँवो में भी महिलाओं की माहवारी से संबंधित बातों पर काउंसलिंग की जाती है।” – डॉ. जेना
डॉ. जेना और उनकी टीम अब तक ब्लॉक के सभी 318 गाँवो में एक-एक बार कैंप कर चुकी है। इन गाँवों में से उन्होंने 12 गाँवों को स्वास्थ्य सुविधाओं के तहत ‘आदर्श गाँव’ बनाने के लिए चुना है। ताकि इन 12 गाँवों को पूरे देश के लिए मॉडल बनाकर पेश किया जाए।
ये गाँव हैं- घाटमुन्दारू, अलची, बघलामती, कलती, गदरी, हलादिसिल, बेन्देला, अम्बागुडा, कोरागुडा, फुंदागुडा, गदलीगुम्मा, और लारेस!
इन गाँवों में उन्होंने ‘स्वास्थ्य सहायक बहिनी’ नाम से एक और पहल शुरू की है। इसके अंतर्गत उन्होंने हर एक गाँव से 7-7 युवाओं का समूह बनाया है जो गाँव के लोगों और उनके बीच एक सेतु की तरह काम करेंगे। डॉ. जेना के कैंप के बाद यह समूह सुनिश्चित करता है कि गाँव के लोग सही ढंग से डॉक्टर द्वारा बताए गये तरीकों से जीवन जियें।
शाम में यह समूह पूरे गाँव में घंटा बजाता है, इससे गाँव के लोगों को समझ में आ जाता है कि उन्हें सोने के लिए मच्छरदानी लगानी है। इसके अलावा, गाँव में किसी की तबीयत बहुत खराब होने पर ये लोग तुरंत हेल्थ सेंटर को जानकारी देते हैं।
अपने सफर में आने वाली चुनौतियों के बारे में डॉ. जेना कहते हैं कि उन्हें पहले-पहले भाषा की परेशानी हुई। आदिवासी लोगों की भाषा उन्हें समझ नहीं आती थी। इस समस्या के समाधान के लिए उन्होंने खुद उनकी भाषा को समझना और सीखना शुरू किया। वह बताते हैं कि इसमें उनकी मदद स्कूल के बच्चों ने की। बच्चे उन्हें लोगों की बात समझाते थे और उनकी बात लोगों तक पहुंचाते थे। यह उनकी लगन और पक्का इरादा ही था कि अब वह खुद उनकी भाषा बोल और समझ सकते हैं।
फंडिंग के बारे में वह कहते हैं कि सरकार ने पहले ही काफी प्रोग्राम और स्कीम लोगों के लिए बनाई हुई हैं। आपको अलग से किसी फंडिंग की ज़रूरत नहीं होगी। ज़रूरत बस इन साधनों के सही जगह उपयोग की है।
आदिवासी लोगों की प्रतिक्रिया के बारे में बताते हुए डॉ. जेना कहते हैं, “मैं उन्हें भगवान के लोग मानता हूँ क्योंकि उनसे ज्यादा सादा और सीधा आपको कोई नहीं मिलेगा। साथ ही, ये लोग बहुत स्वाभिमानी होते हैं उन्हें कुछ भी मुफ्त में नहीं चाहिए। मैं जितनी बार घाटमुन्दारू जाता हूँ, वहाँ एक 72 साल की बूढी दादी खाना बना कर खिलाती हैं। वे प्यार देते हैं और बदले में उन्हें बस प्यार की ज़रूरत है।”
डॉ. जेना की पहल को राष्ट्रीय स्तर पर भी पहचान मिली है। उन्हें स्वास्थ्य मंत्री ने उनके प्रयासों के लिए सम्मानित किया और साथ ही उनके प्रोग्राम को भारत के बेस्ट 100 प्रोग्राम की लिस्ट में जगह मिली है। उन्हें उम्मीद है कि अन्य राज्यों में भी उनके प्रोग्राम से प्रेरणा ली जाएगी।
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अंत में डॉ. जेना अपने साथी डॉक्टर्स को सिर्फ यह संदेश देते हैं,
“आप चाहे किसी भी पद पर सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े हुए हों, बस आप अपने पद को लोगों की भलाई के लिए इस्तेमाल करें। गाँवों में और जंगलों में रहने वाले ये लोग दुनियादारी से परे होते हैं। हम पढ़े-लिखे हैं और समझदार हैं इसलिए अपनी समझदारी को किसी के भले के लिए लगाएँ।”
डॉ. चित्तरंजन जेना से संपर्क करने के लिए crjena2011@gmail.com पर ईमेल कर सकते हैं!
संपादन – अर्चना गुप्ता