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नेशनल एसोसिएशन ऑफ़ ब्लाइंड्स के डाटा के मुताबिक, भारत में लगभग 180 लाख बहरे लोग हैं। इनमें से ज़्यादातर गूंगे भी होंगे, क्योंकि ऐसी धारणा है कि बहरा व्यक्ति गूँगा भी होता है। माना जाता है कि जिस व्यक्ति ने भाषा सुनी ही नहीं, वह बोलेगा कैसे। लेकिन ऐसा हो ही, यह ज़रूरी नहीं है।
हमारे देश में जन्म से ही बहरे बच्चे इसलिए गूंगे नहीं रह जाते कि वे सुन नहीं सकते, बल्कि लोगों की अज्ञानता और जागरूकता की कमी के चलते ऐसा होता है। यदि बच्चे के जन्म के 1-2 सालों में ही पता चल जाए कि वह सुन नहीं सकता तो स्पीच थेरेपी से उस बच्चे को बोलने लायक बनाया जा सकता है। लेकिन ऐसा हो नहीं पाता।
महाराष्ट्र के सोलापुर जिले में शेतफल गाँव के निवासी योगेश कुमार भांगे का कहना है, "सरकार या स्वास्थ्य विभाग का ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, जिससे 5- 6 साल की उम्र से पहले ही बच्चे के बहरेपन का पता लगाया जा सके। जब तक खुद माता-पिता इस बारे में किसी को जानकारी न दें या फिर वे बच्चे का डॉक्टर से टेस्ट न करवाएं, इसका पता नहीं चल सकता। हमारे प्रशासन की कुछ कमियों और माता-पिता में जागरूकता की कमी से बहुत से बच्चे बोलने से वंचित रह जाते हैं।"
योगेश कुमार भांगे प्राइमरी सरकारी स्कूल में टीचर हैं और साथ ही 'वॉइस ऑफ़ वॉइसलेस' संगठन के संस्थापक भी। इस संगठन के ज़रिए उनका उद्देश्य ऐसे बच्चों के उत्थान के लिए काम करना है जो सुन नहीं सकते। योगेश का कहना है कि हमारे यहाँ ज़्यादातर बच्चे जो सुन नहीं सकते, वे कभी बोल भी नहीं पाते और इसका कारण यह है कि बच्चे की सुनने की अक्षमता के बारे में अक्सर माँ-बाप का ध्यान 5 साल की उम्र के बाद जाता है।
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किसी भी बच्चे में भाषा और व्याकरण का ज्ञान और विकास 5 साल की उम्र तक हो जाता है। इस उम्र के बाद किसी को भी बोलना सिखाना बहुत ही मुश्किल है। इस विषय पर योगेश और जयप्रदा को इतनी जानकारी तब हुई, जब अपने बेटे के लिए उन्होंने अलग-अलग डॉक्टर और स्पीच थेरेपिस्ट से बात की।
साल 2000 में योगेश की पत्नी जयप्रदा ने बेटे प्रसून को जन्म दिया। प्रसून जब डेढ़ साल का था, तो योगेश को भान हो गया कि उनका बेटा शायद सुन नहीं सकता, क्योंकि जब भी वह कहीं दूर से प्रसून को बुलाते तो वह कोई प्रतिक्रिया नहीं देता था।
"हम प्रसून को 'बेरा टेस्ट' के लिए शहर के अस्पताल ले गए। वहां पता चला कि प्रसून 95% तक बहरा है। जन्म से सुनने की क्षमता नहीं रखने वाले बच्चों के लिए हमारे यहाँ यह धारणा बन जाती है कि ऐसे बच्चे ताउम्र बोल भी नहीं सकेंगे। लेकिन ऐसा नहीं है।" द बेटर इंडिया से बात करते हुए योगेश ने कहा।
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योगेश और उनकी पत्नी जयप्रदा ने बहुत ही अनुभवी स्पीच थेरेपिस्ट अलका हुदलीकर से सीखा कि माता-पिता कैसे ऐसे बच्चों को बोलना सिखाएं। बेरा टेस्ट यदि समय रहते करवा लिया जाए तो माँ-बाप को बच्चे की परेशानी का पता चल जाएगा और इसके बाद छोटी उम्र से ही बच्चों को हियरिंग ऐड लगाए जा सकते हैं। इसकी मदद से बच्चे सुन पाएंगे और फिर बोल भी पाएंगे।
यह स्पीच थेरेपी सीखते-सीखते जयप्रदा ने प्रसून को घर पर ही बोलना सिखाना शुरू किया और 5 साल की उम्र तक उनका बेटा बोलने लगा। प्रसून के बारे में उस समय एक स्थानीय अख़बार में ख़बर छपी और फिर उस ख़बर को पढ़कर आस-पास के इलाकों से लोग उनके पास आने लगे।
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जयप्रदा ने ऐसे बच्चों की माँ को स्पीच थेरेपी सिखाना शुरू किया। वह माँ किसी दूसरी माँ को सिखाती और ये सभी मिलकर अपने-अपने बच्चों को बोलना सिखातीं। इसलिए उन्होंने अपने इस अभियान को 'मदर बेयरफुट स्पीच थेरेपी' कहा। इसी के साथ साल 2009 में योगेश और जयप्रदा ने मिलकर 'वॉइस ऑफ़ वॉइसलेस' संगठन की नींव रखी।
अब तक उनके यहाँ लगभग 102 बच्चों को बोलना सिखाया गया है। ये सभी बच्चे अब सामान्य स्कूलों में शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। पर ये सभी वे बच्चे हैं जिनके माता-पिता को समय रहते पता चल पाया कि उनके बच्चे के साथ क्या समस्या है। लेकिन समस्या यह है कि ऐसे माता-पिता और ख़ासकर ग्रामीण इलाकों के लोग क्या करें, जिन्हें इसे लेकर कोई जानकारी ही नहीं है।
ताट-वाटी चाचणी (थाली-कटोरी टेस्ट):
गाँवों में आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं की ज़िम्मेदारी होती है कि वे गाँव के हर एक घर में जाकर नवजात बच्चों के बारे में समय-समय पर जानकारी इकट्ठा करें। उनके शुरुआती पोषण के लिए माता-पिता को जागरूक करें और साथ ही ज़रूरी दवाइयों और टीकाकरण के बारे में बताएं। इसलिए अगर आंगनवाड़ी कार्यकर्त्ता जाँच करें तो हम बच्चे के एक साल का होने से पहले ही पता लगा सकते हैं कि उन्हें बहरापन जैसी कोई समस्या है या नहीं।
"आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के पास एक फॉर्म होता है, जिसमें वे सभी बच्चों से जुड़ी जानकारी लिखते हैं और इसी फॉर्म के एक कॉलम में आपको बताना होता है कि बच्चा बहरा है या नहीं। पर इस बात को जांचने के लिए उनके पास कोई साधन नहीं है। इसलिए उन्हें माता-पिता जो भी बताते हैं, वे वही लिखती हैं," राजेश कुमार ने बताया।
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योगेश और उनकी पत्नी ने इसके लिए एक बहुत ही साधारण-सी तरकीब निकाली और इसे 'थाली-कटोरी टेस्ट' का नाम दिया। किसी बच्चे की सुनने की क्षमता का यदि आपको पता लगाना है तो आप बच्चे को घर में किसी भी शांत जगह बैठाइए और फिर किसी दूसरे कमरे में जाकर आप थाली और कटोरी बजाइए। यदि बच्चा इस आवाज़ को सुनकर कोई प्रतिक्रिया देता है, तो उसकी सुनने की क्षमता बिल्कुल सही है और यदि नहीं, तो माता-पिता को सुझाव दिया जाता है कि वे एक-दो बार इस तरह के टेस्ट करें और यदि फिर भी लगता है कि कोई समस्या है तो जाकर बेरा टेस्ट कराएं।
इस टेस्ट को ग्रामीण स्तर पर करवाने के लिए योगेश और जयप्रदा को मुंबई स्थित संगठन CORO से सहायता मिली। यहाँ उन्होंने रिसर्च से संबंधित छोटी-बड़ी चीज़ें सीखीं और फिर पंढरपुर ब्लॉक का उन्होंने सर्वे किया।
इस काम में उन्हें तत्कालीन सोलापुर जिला कलेक्टर प्रवीण गेडाम से सहायता मिली। उन्होंने लगभग 4, 250 आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को इसकी ट्रेनिंग दी और उन्होंने लगभग 2, 87, 000 बच्चों का 'थाली-कटोरी टेस्ट' किया। इन सभी बच्चों में से 89 बच्चों के लिए बेरा टेस्ट करवाने का सुझाव मिला और जब यह टेस्ट करवाया गया तो परिणाम बिल्कुल ठीक था।
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अपने इस पायलट प्रोजेक्ट की रिपोर्ट योगेश और जयप्रदा ने महाराष्ट्र सरकार तक पहुंचाई। उन्हें सुझाव दिया गया कि वे अन्य जिलों में भी इस तरह से टेस्ट करके सुनने में अक्षम बच्चों की पहचान कर सकते हैं। इससे प्रशासन को इन बच्चों के लिए पॉलिसी बनाने में मदद मिलेगी। हर कोई अपने बच्चे के बेरा टेस्ट का खर्च नहीं उठा सकता है। इसलिए महाराष्ट्र सरकार ने लगभग 58 करोड़ रुपए की राशि इस तरह के पायलट प्रोजेक्ट करके बच्चों का परीक्षण करने के लिए, उन्हें हियरिंग ऐड उपलब्ध करवाने के लिए और फिर उनकी स्पीच थेरेपी पर काम करने के लिए मुहैया कराई है।
हालांकि, इस योजना को विस्तृत रूप से लागू किया जाना अभी बाकी है, पर योगेश को उम्मीद है कि यदि यह योजना पूरे महाराष्ट्र में लागू हो जाएगी तो बहुत से बच्चों को गूंगेपन से बचाया जा सकता है।
आगे की योजना:
योगेश के इस काम को महाराष्ट्र सरकार के साथ-साथ अन्य कई राज्यों से भी सराहना मिली है। उन्हें गुजरात, हिमाचल प्रदेश और असम जैसे राज्यों से भी प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा आमंत्रित किया गया है कि वे उनके यहाँ आकर इस पायलट प्रोजेक्ट को करें।
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गुजरात के सृष्टि और ज्ञान संगठन ने भी उन्हें आमंत्रित कर उनसे इस विषय पर चर्चा की है और आईआईएम, अहमदाबाद में हुई एक कॉन्फ्रेंस में भी उन्हें इस विषय पर बोलने का मौका मिला। इसके अलावा, अब उन्हें एक-दो निजी कंपनियों से सीएसआर के ज़रिए आर्थिक मदद भी मिल रही है। एक कंपनी ने उनके संगठन के साथ मिलकर 'बोलवाड़ी प्रोजेक्ट' शुरू किया है, जिसमें 'बोलवाड़ी' का मतलब है बोलना सिखाने वाली वाड़ी यानी पाठशाला।
इस प्रोजेक्ट के तहत कंपनी ने उन्हें उनके गाँव में ही एक इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार करके दिया है, जहां वे सुन न सकने वाले बच्चों और उनके माता-पिता को स्पीच थेरेपी देते हैं। योगेश और जयप्रदा के साथ अब 5 लोग और जुड़ गए हैं, जो बच्चों को स्पीच थेरेपी के सेशन देते हैं। हर हफ्ते 100 से ज़्यादा बच्चे और उनके माता-पिता उनके पास आते हैं।
योगेश ने कहा, "इस तरह की मदद मिलने से हम ने पूरे सोलापुर जिले में अपने 'ताट-वाटी चाचणी' को करने की योजना बनायी है। हम यह काम जून, 2019 से शुरू करेंगे और अगले 3 साल तक इस पर काम करेंगे। सबसे पहले सुनने में अक्षम बच्चों को चुना जाएगा और फिर निजी कंपनियों के CSR फंड से उनके बेरा टेस्ट, हियरिंग ऐड लगवाने आदि पर काम होगा। फिर हम खुद उन बच्चों को अपने यहाँ स्पीच थेरेपी देंगें।"
योगेश और जयप्रदा के जीवन का मकसद है 'डेफ बट नॉट डम्ब' अर्थात सुनने की क्षमता भले ही न हो, लेकिन कोई भी बच्चा इस वजह से अपनी बोलने की क्षमता न खोए। अपने इस मकसद को सफल बनाने में उन्हें आम लोगों का साथ चाहिए, जो उनकी यह कहानी पढ़कर जागरूक हों और अपने आस-पास के बच्चों और माता-पिता की मदद करें।
यदि आपको इस कहानी ने प्रेरित किया है तो योगेश कुमार भांगे जी से संपर्क करने के लिए 9922060599 पर डायल करें!
संपादन - मनोज झा
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