डॉ. विजयलक्ष्मी देशमाने ने ज़िन्दगी के कई पहलु देखे है। देश के सबसे पिछड़ी हुई जातियो में से एक में जन्म लेने से, झुग्गी झोपड़ियो में रहने तक; सब्जी बेचकर गुज़ारा करने से लेकर एक डॉक्टर बनने तक – उन्होंने सब कुछ अनुभव किया है। और अब वे निःस्वार्थ भाव से समाज सेवा कर रही है।
आइये सुने डॉ.देशमाने की कहानी उन्ही की ज़ुबानी।
हम अक्सर आजकल के डॉक्टर्स के मोटी फीस ऐठने से परेशान रहते है। देखा जाये तो अब तो इस पेशे की इमानदारी पर भी सवाल उठने लगे है। डॉक्टरों के लिए अब मरीज़ को ठीक करने से, मुनाफा कमाना ज़्यादा ज़रूरी हो गया है।
पर हर डॉक्टर ऐसा नहीं होता। इन स्वार्थी डॉक्टरों की भीड़ में एक उदाहरण ऐसा भी है जो भीड़ से बिलकुल अलग है।
ये कहानी एक ऐसी महिला की है जिसने अपनी ज़िन्दगी में कई उतार चढ़ाव देखे है। एक झोपड़पट्टी में रहकर सब्जी बेचने से लेकर एक कैंसर विशेषज्ञ बनने तक की उनकी कहानी बिलकुल अनोखी है।
मिलिए भारत के सबसे होनहार ओंकोलॉजिस्ट (कैंसर विशेषज्ञ) में से एक, कर्णाटक के कैंसर सोसाईटी की उपाध्यक्ष और कई अवार्ड्स की वजेता, डॉ. विजयलक्ष्मी देशमाने से!
‘देशमाने’- यह उपनाम कैसे मिला।
मैं भारत के सबसे पिछडी माने जाने वाली जाती से आती हूँ। हमारी जाती के लोगो को मोची कहा जाता है। हम लोगो के फटे हुए जूते सीलने का काम करते है।
मेरे पिता, बाबुराव, आज़ादी की लड़ाई से बहोत प्रभावित हुए और पिछड़ी हुई जातियो को भी बढ़ावा देने में यकीन करने लगे। हाँलाकी वे ज़्यादा पढ़े लिखे नहीं थे, फिर भी उन्होंने जाती और परम्पराओ की हर दिवार तोड़कर अलग अलग भाषाएँ जैसे कि कनड्डा, मराठी, हिंदी और अंग्रेजी सीखी।
सन्न १९५५ में, एक भाई और ६ बहनो के बाद मेरा जन्म हुआ। हमारा दस लोगो का परिवार, मेरी बुआ के दिए एक छोटे से मकान में रहता था। ये मकान एक झुग्गी में हुआ करता था।
एक वक़्त की रोटी कमाना भी उस समय बहोत मुश्किल था। और बाकि सुख सुविधाओं की चीज़े तो जैसे सपने के सामान ही थे।
हमें पालने के लिए हमारे माता पिता ने बहोत संघर्ष किया। कई तरह के काम किये। वे जंगल से लकड़ी काटके बेचने का भी काम कर चुके थे। हमारे भरण पोषण के लिए मेरे पिता ने कुली का भी काम किया है।
आखिर एक दिन मेरे पिता को एक मिल में नौकरी मिल गयी। वे लोगो में इतनी जल्दी घुल मिल जाते थे की लोग उन्हें देशमान्य बुलाने लगे।
इसके बाद मेरे पिता ने अपना उपनाम ही देशमान्य रख लिया। मेरा नाम पंडित नेहरू की बहन, तथा भारत की प्रथम यू एन जनरल असेंबली की अध्यक्षा, विजयलक्ष्मी पंडित के नाम पर रखा गया था। और देशमान्य की बेटी होने के नाते मेरा उपनाम रखा गया ‘देशमाने’।
माँ ने मंगलसूत्र देकर बनाया डॉक्टर।
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मेरे पिता का एक ही सपना था की मैं एक डॉक्टर बनू और गरीब और दुखी लोगो की सेवा करू। झुग्गी झोपडी में रहते हुए भी इस तरह का सपना देखना अपने आप में एक अनोखी बात थी। इसी बात से आप अंदाज़ा लगा सकते है की मेरे पिता हम बच्चों के लिए कितनी आशावादी सोच रखते थे।
इसी दौरान मेरी माँ ने एक छोटी सी सब्जियों की दूकान खोली। मैं और मेरा भाई माँ की मदत करने के लिए इन सब्जियों को सर पर लादकर लाते थे। मैं पढाई में बहोत अच्छी थी। पर मैं ये जान गयी थी कि मैं बारवी के बाद आगे नहीं पढ़ पाऊँगी। मैं जानती थी कि अपनी आर्थिक परिस्थिति के कारण मेरे माता पिता मुझे आगे नहीं पढ़ा पाएंगे। और फिर उन्हें मेरे बाकी भाई बहनो की पढ़ाई का खर्च भी तो उठाना था।
पर मुझे वो अमावस की रात हमेशा याद रहेगी जब मुझे के. एम. सी, हुबली में MBBS के एंट्रेंस परीक्षा के लिए जाना था। उस रात मेरी माँ ने अपना एकमात्र गहना, अपना मंगलसूत्र मेरे पिता के हाथ में रख दिया, ताकि वे मेरी पढ़ाई के लिए कर्ज़ा ले सके। आज मैं जो भी हूँ वो मेरे माता पिता और भाई बहनो की वजह से हूँ। मुझे नहीं लगता की मैं उनका ये एहसान कभी भी चुका पाऊँगी।
पहले फेल हुई फिर यूनिवर्सिटी में अव्वल आई।
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MBBS करने से पहले मैंने अपनी पूरी पढ़ाई कनड्डा में की थी। MBBS में मुझे लेक्चर्स तो समझ में आते थे पर अंग्रेजी कच्ची होने की वजह से मैं फर्स्ट इयर में फेल हो गयी। पर वहां के प्राध्यापको की मदत से सेकंड इयर में आने तक मैंने अंग्रेजी भी अच्छी तरह सीख ली और फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
फाइनल में मैं पूरी यूनिवर्सिटी में फर्स्ट आई। जब ये बात मेरे घरवालो को पता चली तो पुरे घर में जश्न का माहौल था। इसके बाद मैं MS करने चली गयी। और फिर किदवई इंस्टिट्यूट ऑफ़ ऑन्कोलॉजी में सीनियर रेसिडेंट डॉक्टर ऑफ़ सर्जिकल ऑन्कोलॉजी की हैसियत से काम करने लगी।
मैं स्तन कैंसर की वेशेषज्ञ बनी। मेरे इस पुरे सफ़र में मेरे सहकर्मियों और मरीज़ों ने मेरा पूरा पूरा साथ दिया। इसी दौरान मेरे अजय घोष (प्रसिद्ध बंगाली स्वतंत्रता सेनानी के नाम पर रखा हुआ नाम बंगाल) ने वकालत की पढाई पूरी कर ली।
मैं बस निमित्त मात्र हूँ !
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मुझे अपने काम से प्यार है और मैं मानती हूँ कि किसी भी इंसान को निरंतर सीखते रहना चाहिए।
मैं अपने मरीज़ों से हमेशा संपर्क में रहती हूँ ताकी उन्हें अच्छी तरह जान सकु। जब मैं ऑपरेशन करती हूँ तो अपना सारा डर ईश्वर को सौंप देती हूँ। ईश्वर ही मुझे सफल होने की प्रेरणा देते है। मुझे लगता है कि मैं एक निमित्त मात्र हूँ। मुझे बनाने में मेरे गुरुओ का, मेरे माता पिता की परवरिश का और मेरे मरीज़ों के प्यार का ही हाथ है। और ये भगवान् की ही देन है कि मैं एक ऐसे पेशे में हूँ जिसमे मुझे लोगो की जान बचाने का सौभाग्य मिलता है।
ये एक बहोत लंबा सफ़र रहा और मैं २०१५ में रिटायर हो गयी। पर मुझे लगता है कि मेरा काम अभी पूरा नहीं हुआ है।
मैं काफी सारे सामाजिक कार्यो का हिस्सा रह चुकी हूँ। अवेयरनेस कैंप, रिसर्च और गाँवों में शिक्षा कार्यक्रम भी कर चुकी हूँ। और मैं अब भी महीने में १५ दिन यही सब करना चाहती हूँ। अब मैं मुफ़्त में इलाज करुँगी। कर्नाटक कैंसर सोसाइटी में आप मुझसे निःशुल्क इलाज पा सकते है।
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हमारे उपनिषदों में लिखा है, ” वैद्यो नारायणो हरी” अर्थार्थ डॉक्टर भगवान् समान होता है। विजयलक्ष्मी की कहानी इस बात को सार्थक करती है। एक फूल जो झोपड़े की गंदगी में फला, न जाने कितनो को ज़िन्दगी की खुशबु से सराबोर कर चूका है। और आगे भी करता रहेगा।
सिर्फ डॉक्टर विजयलक्ष्मी ने ही नहीं बल्कि उनकी बहनो ने भी जीवन में सफल होकर अपने माता पिता का नाम रौशन किया है। उनकी चार बहने Phd कर चुकी है और अपने अपने क्षेत्र में बेहद सफल है।
हम डॉ.विजयलक्ष्मी देशमाने तथा उनके परिवार के लिए मंगल कामना करते है। और आशा करते है कि उनकी कहानी और भी कई लोगो को आगे बढ़ने की प्रेरणा देगी।
प्रथम नो योर स्टार्स (KYS) में प्रकाशित।
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