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महाराष्ट्र के सबसे पिछड़े गाँव में पिछले 43 सालों से लोगों की सेवा में लगा है यह डॉक्टर दम्पति!

डॉ. रविन्द्र कोल्हे और डॉ. स्मिता कोल्हे ने मेलघाट के वासियों की ज़िन्दगी बदल दी है। उन्होंने उस इलाके की स्वास्थ्य सुविधाओं को एक नया आयाम दिया है और लोगों को बिजली, सड़क और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र उपलब्ध कराये हैं। आईये जाने उनके इस अद्भुत सफ़र की कहानी।

न १९८५ की बात है जब श्री. देवराव कोल्हे रेलवे में काम करते थे। उनके पुत्र रविन्द्र, नागपुर मेडिकल कॉलेज से MBBS कर रहे थे। शेगांव में हर कोई रविन्द्र की पढाई ख़त्म होने का इंतज़ार कर  रहा था क्यूंकि रविन्द्र परिवार के पहले डॉक्टर होते।

 

पर उस वक़्त किसीको ये कहाँ पता था कि ये लड़का डॉक्टरी करके पैसे कमाने के बजाय एक अलग ही रास्ता चुनेगा।

 

डॉ. कोल्हे बैरगढ में एक मरीज़ को देखते हुए

डॉ.  रविन्द्र कोल्हे महात्मा गाँधी और विनोबा भावे की किताबों से बहुत प्रभावित थे। जब तक उन्होंने अपनी पढाई ख़त्म की, उन्होंने निश्चय कर लिया था कि वो अपने हुनर का इस्तेमाल पैसों के लिए नहीं बल्कि जरुरतमंदो की मदद के लिए करेंगे। उनके आगे सिर्फ यही सवाल था कि शुरुआत कहाँ से की जाये ?

पर जल्दी ही उन्हें जवाब मिल गया, जब उन्होंने डेविड वर्नर की पुस्तक का शीर्षक देखा –“Where There is No Doctor” ( जहां कोई डॉक्टर नहीं है)। इस किताब के प्रथम पृष्ठ पर  ४ लोगों की तस्वीर थी जो एक मरीज़ को अपने कंधे पर उठाये चले जा रहे थे , और उस तस्वीर के नीचे लिखा था – “Hospital 30 miles away” (अस्पताल तीस किलोमीटर की दूरी पर है )।

 

डॉ. कोल्हे ने निश्चय किया कि वे अपनी सेवायें ऐसी जगह को देंगे जहाँ दूर तक कोई स्वास्थ्य सुविधा नहीं है। और इसके लिए उन्होंने बैरागढ को चुना, जो महाराष्ट्र के मेलघाट में स्थित है। मेलघाट की यात्रा अमरावती से शुरू होती थी और हरिसाल पर जाकर ख़त्म होती थी जहाँ से बैरागढ पहुँचने के लिए ४० किलोमीटर पैदल चलना पड़ता था।

 

डॉ. कोल्हे के एक प्रोफेसर, डॉ. जाजू के मुताबिक वैसे सुदूर इलाके में काम करने वाले किसी भी डॉक्टर को तीन चीज़ें आनी चाहिए- पहला बिना सोनोग्राफी या खून चढाने की सुविधा के प्रसव कराना, दूसरा- बिना एक्स-रे के निमोनिया को पहचानना , और तीसरा- डायरिया का इलाज़ करना। डॉ. कोल्हे ने मुंबई जाकर ६ महीने तक ये तीन चीज़ें सीखी और बैरागढ के लिए चल पड़े।

 

पर जल्दी ही डॉ. कोल्हे को समझ आ गया कि सिर्फ उनकी MBBS की डिग्री से वो लोगों की समस्याओं को हल नहीं कर सकते।

 

“एक आदमी का एक हाथ विस्फोट में उड़ गया था। हादसे के १३ दिन बाद वो मेरे पास इलाज के लिए आया। मैं सर्जन नहीं था इसलिए मैं उसकी मदद नहीं कर सका। तब मुझे लगा कि ऐसे मरीजों को बचाने के लिए मुझे और पढने की जरुरत है, “ डॉ. कोल्हे ने बताया।

 

डॉ. कोल्हे १९८७ में MD करने चल दिए। उन्होंने अपनी थीसिस मेलघाट में व्याप्त कुपोषण पर की। उनकी थीसिस ने लोगों का ध्यान इस समस्या की तरफ खीचा ,बी बी सी ने इस खबर का प्रचार किया।

 

डॉ. कोल्हे अब मेलघाट लौटना चाहते थे ,पर इस बार अकेले नहीं।

वो एक सच्चा साथी चाहते थे। उन्होंने अपने लिए लड़की ढूंढना शुरू किया पर उनकी चार शर्तें थी। पहला – लड़की पैदल  ४० किलोमीटर चलने को तैयार हो (जितनी दूरी बैरागढ़ जाने के लिए तय करनी होती थी)।

दूसरा – वो ५ रूपये वाली शादी को तैयार हो (उन दिनों कोर्ट मैरिज ५ रूपये में होती थी)।

तीसरा -वो ४०० रूपये में पुरे महीने गुज़ारा कर सके ( डॉ. कोल्हे हर मरीज़ से एक रुपया लेते थे और हर महीने ४०० मरीज़ देखते थे)।

और आखरी शर्त ये थी कि अपने लिए तो नहीं पर कभी दूसरों के भले के लिए भीख भी मांगना पड़े तो वो उसके लिए तैयार हो।

करीब १०० लड़कियों द्वारा ठुकराए जाने के बाद आखिरकार डॉ. स्मिता, जो नागपुर में एक जानी मानी डॉक्टर थी, ने डॉ.कोल्हे का प्रस्ताव सभी शर्तों के साथ स्वीकार कर लिया।

 

डॉ. रविन्द्र कोल्हे और डॉ. स्मिता कोल्हे

 

और इस तरह १९८९ में मेलघाट को उसका दूसरा डॉक्टर मिल गया ।

पर बैरागढ़ में एक चुनौती उनका इंतज़ार कर रही थी। लोगों ने डॉ. रविन्द्र को स्वीकार कर लिया था  और दो साल उनके साथ रहने के बाद उनपर भरोसा भी करने लगे थे पर डॉ. स्मिता, जिन्होंने आते ही औरतो के हक़ के लिए लड़ना शुरू कर दिया था, को लोग स्वीकार नहीं कर पा रहे थे।

 

पर फिर कुछ ऐसा हुआ जिसकी वजह से डॉ. स्मिता ने भी सभी गाँव वालो का विश्वास और प्यार जीत लिया।

डॉ. स्मिता जब पहली बार माँ बनने वाली थी तब डॉ. कोल्हे ने निश्चय किया था कि वो उनका प्रसव खुद करेंगे जैसा कि वो गाँव वालों का करते थे। पर किसी कारणवश बच्चे को मैनिंजाइटिस, निमोनिया और सेप्टिसीमिया हो गया। लोगो ने सुझाव दिया कि माँ और बच्चे को अकोला के बड़े अस्पताल में ले जाया जाये। डॉ. कोल्हे ने निर्णय डॉ. स्मितापर छोर दिया पर मन ही मन वो ये ठान चुके थे कि अगर इस वक़्त स्मिता ने गाँव से जाने का फैसला किया तो वो वापस कभी गाँव वालों को अपनी शक्ल नही दिखायेंगे।

 

पर डॉ. स्मिता ने फैसला किया कि वो अपने बच्चे का इलाज़ गाँव के बाकी बच्चों की तरह कराएंगी।इसके बाद गाँव वालों की नज़र में उनकी इज्ज़त और बढ़ गयी।

 

डॉ. रविन्द्र और डॉ.स्मिता के बैरागढ़ में शुरूआती दिन ।
चित्र साभार : मेलघाटावरिल मोहराचा गंध

“सभी जानते थे कि मेलघाट के बच्चे कुपोषण से मर रहे थे, और लोग निमोनिया, मलेरिया और सांप के काटने से। शोधकर्ताओं ने इन मौतों का कारण तो ढूंढ लिया था पर इसकी असल वजह कोई नहीं जान पाया था जो कि गरीबी थी। वो निमोनिया से मरते थे क्यूंकि जाड़ों में उनके पास खुद को ढकने को कपडे नहीं होते थे। वो कुपोषण से मरते थे क्यूंकि उनके पास कोई काम नहीं था और जब खेती का मौसम नहीं होता था तब उनके पास पैसे भी नहीं होते थे। हम मौत की इन जड़ों का इलाज़ करना चाहते थे – डॉ. रविन्द्र कोल्हे कहते हैं ।

 

जब डॉ. रविन्द्र और डॉ. स्मिता ने गांववालों का स्वस्थ सुधार दिया तो इन भोले गांववालों को उनमे भगवान् नज़र आने लगा। उन्हें लगा कि इन डॉक्टरो के पास हर चीज़ का इलाज है। अब वो लोग उनके पास अपने बीमार पेड़ पौधे और मवेशियों को भी इलाज के लिए लाने लगे।

 

चूँकि वहां कोई दूसरा डॉक्टर नहीं था, डॉ. कोल्हे ने अपने एक पशु चिकित्सक मित्र से जानवरों की शारीरिक संरचना के बारे में पढ़ा और पंजाब राव कृषि विद्यापीठ अकोला से कृषि की पढाई की।

 

काफी मेहनत के बाद उन्होंने एक ऐसा बीज बनाया जिस पर फंगस नहीं लगता। पर कोई इसे पहली बार इस्तेमाल नहीं करना चाहता था , इसलिए डॉ. कोल्हे और उनकी पत्नी ने खुद ही खेती करना शुरू कर दिया।

 

 

इस डॉक्टर  दम्पति  ने जागरूकता शिविरों का आयोजन करना शुरू किया जिस से खेती की नयी तकनीकों के बारे में लोग जागरूक हों, पर्यावरण की रक्षा हो और सरकार द्वारा की जाने वाली सुविधाओं का लाभ उठा सकें।

 

उनका सन्देश बिलकुल साफ़ था – प्रगति के लिए खेती बहुत जरुरी है और युवाओं के खेती में आने से ही प्रगती होगी। ये सन्देश लोगों की नज़रों में और भी साफ़ हो गया जब  डॉ. कोल्हे का बड़ा बेटा रोहित किसान बन गया।

 

 

“हमने लाभ आधारित खेती शुरू की। हमने सोयाबीन की खेती शुरू की जो महाराष्ट्र में कहीं नहीं होती थी। इसके अलावा हमने किसानो को मिश्रित खेती करने के लिए प्रेरित किया और उन चीज़ों को उगाया जो उनकी मूलभूत जरुरत थी। आज मैं अपनी किसानी से इतने पैसे कमा रहा हूँ जितना एक आई आई टियन किसी प्राइवेट कंपनी से कमाता है,” रोहित कोल्हे कहते हैं।

 

कोल्हे परिवार ने वनों की सुरक्षा पर भी ध्यान दिया। उन्होंने वातावरण चक्र का भी ध्यान रखा जो हर ४ साल बाद पुनः दोहराया जाता है। अब वे सूखे की भविष्यवाणी भी कर सकते हैं ताकि गाँव वाले इसके लिए तैयार हो सकें।

इस दम्पति ने पीडीएस (सार्वजनिक वितरण प्रणाली)  को भी अपने हाथ में लिया ताकि बारिश के वक़्त भी हर किसी को भोजन मिल सके। इस वजह से मेलघाट में कई सालो से अब कोई किसान आत्महत्या नहीं करता।

 

बाएं से दायें –रोहित की पत्नी , रोहित , राम , डॉ. रविन्द्र, डॉ. स्मिता

 

“अगर हम किसी को एक दिन का खाना देते हैं तो उसकी बस एक ही दिन की भूख मिटती है, पर अगर हम उसे कमाना सिखाते हैं तो हम उसे ज़िन्दगी भर का खाना दे देते हैं , और हम यही करना चाहते थे”– कोल्हे दम्पति कहते हैं।

 

एक बार पी.डब्लू.डी मिनिस्टर, नितिन गडकरी, जो स्मिता के मानस भाई थे कोल्हे दम्पति से मिलने  उनके घर आये और उनके रहने का ढंग देख कर चौक गए। उन्होंने उनके लिए घर बनाने की इच्छा जाहिर की। स्मिता ने घर के बजाय अच्छी सडके बनाने को कहा और मंत्रीजी ने अपना वादा निभाया।

 

आज मेलघाट के ७० % गाँवो में सड़के बन चुकी है।

 

मेलघाट में डॉ. कोल्हे का घर

 

मेलघाट महाराष्ट्र के सबसे पिछड़े हिस्सों में से एक है। यहाँ तकरीबन ३०० गाँव हैं और करीब ३५० गैर सरकारी संस्थाएं काम कर रही हैं। पर वो सिर्फ कुछ चीज़े मुफ्त में बाँटने का काम करती है जब कि डॉ. कोल्हे और डॉ. स्मिता इन लोगों को आत्मनिर्भर बनाना चाहते हैं।

इस डॉक्टर दम्पति की लम्बी लड़ाई ने अब अपना फल दिखा दिया है और अब मेलघाट में अच्छी सड़के हैं , बिजली है और १२ प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र हैं। डॉ. कोल्हे अब किसीसे पैसे नहीं लेते। वो लोगों को सरकारी अस्पताल ले जाकर यथासंभव बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं दिलाते हैं।

इस गाँव में अभी तक कोई सर्जन नहीं है इसलिए डॉ. कोल्हे के छोटे बेटे, राम जो अकोला के सरकारी मेडिकल कॉलेज से MBBS कर रहे  हैं, सर्जन बनने की इच्छा रखते है।

 

डॉ. कोल्हे अपने बेटे राम के साथ

 

ये दम्पति अभी तक मेलघाट के लोगो को एक बेहतर ज़िन्दगी देने के लिए संघर्ष कर रहा है। उनका अगला मिशन मेलघाट के सभी छोटे छोटे गाँवो में बिजली उपलब्ध कराना है।

 

“धारनी में बिजली तो आ गयी है पर हर १४ घंटे पर लोड शेडिंग होती है। इतना भी काफी होता पर वोल्टेज इतना कम होता है कि किसान अपने पंप तक नहीं चला पाते। इसलिए इस बिजली से उनकी खेती को कोई फायदा नहीं मिलता। अगर हम यहाँ से २ किलोमीटर भी आगे जायें तो वहां बिजली नहीं है। संपर्क इस जगह की सबसे बड़ी कमजोरी है। जिस तरह आप एक महीने तक कोशिश करने के बाद ही हमसे बात कर पाए है ऐसा हर किसी के साथ है। अगर आप हमारे बारे में लिख रहे हैं तो ये ज़रूर लिखें कि इस गाँव के किसानो को बिजली की सख्त ज़रूरत है,” डॉ. कोल्हे जोर देकर कहते हैं।

 

डॉ. रविन्द्र कोल्हे और डॉ. स्मिता कोल्हे के बारे में और जानने के लिए आप मृणालिनी चितले की लिखी  ‘मेळघाटा वरिल मोहराचा गंध’ और डॉक्टर मनोहर नारन्जे के द्वारा लिखित ‘बैरागढ़’ नामक पुस्तके  पढ़ सकते हैं।

 

आज के युग में जहाँ डॉक्टरी सिर्फ एक पेशा बन कर रह गयी है, इन दो डॉक्टरो का आचरण किसी अवतार से कम नहीं है। इनसे संपर्क करने के लिए या अपनी शुभकामनाये देने के लिए निचे दिए पते पर लिखे-

डॉ. रविन्द्र कोल्हे ,

मुक्कम पोस्ट –बैरागढ,

तालुका –धारनी ,

जिला  – अमरावती,

महाराष्ट्र

पिन – ४४४७०२

मूल लेख – मानबी कटोच

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