झारखंड आदिवासी बहुल राज्य है। बिरसा मुंडा की धरती, जिन्होंने ‘जल, जंगल और ज़मीन’ का नारा दिया। लेकिन वक़्त के साथ प्रकृति के लिए जीने वाले आदिवासी समुदाय कहीं न कहीं अपने पारंपरिक और प्राकृतिक संसाधनों से दूर होते जा रहे हैं। ऐसे में राज्य का एक जिला जल संरक्षण के क्षेत्र में काम कर राष्ट्रीय स्तर पर मिसाल पेश कर रहा है।
खूंटी जिले में कार्यरत सेवा वेलफेयर सोसाइटी के अध्यक्ष, अजय शर्मा बताते हैं कि आज लोगों को सिर्फ ज़मीन का ध्यान रह गया है पर जंगल और जल के लिए कोई काम नहीं कर रहा है। ऐसे में, भूजल का स्तर गिर रहा है और बरसात का पानी न रोकने की वजह से कुआँ, तालाब रिचार्ज नहीं हो पाते।
सबसे ज्यादा इसका असर पड़ता है आम ग्रामीणों के जीवन पर। उनकी खेती की सिंचाई के लिए पानी नहीं मिलता, महिलाओं को दूर जाकर पानी भरकर लाना पड़ता है, जानवरों के लिए बहुत मुश्किल हो जाता है।
अजय शर्मा ने द बेटर इंडिया को बताया, “यहाँ पर ऐसे-ऐसे गाँव हैं, जहाँ महिलाएं गर्मियों में कई-कई दिनों तक नहाती नहीं हैं क्योंकि पानी का अभाव है। अगर भूजल स्तर ही नहीं बढ़ेगा तो कैसे पानी की समस्या दूर होगी। इस बारे में हमारी लगातार जिला प्रशासन से चर्चा हो रही थी।”
चर्चाओं में विचार यही था कि बारिश के पानी को कैसे इकट्ठा किया जाए, बचाया जाए। गाँव-गाँव में जो बरसाती नदी-नाले हैं, उनमें पानी को रोककर कैसे आम लोगों के इस्तेमाल में लाया जाए। सबसे पहला विचार आता है बाँध बनाने का लेकिन ईंट, सीमेंट से अगर बाँध बनाया जाए तो इसकी लागत बहुत ज्यादा होती है।
अजय कहते हैं कि इस संदर्भ में जिला प्रशासन की मदद से अलग-अलग ग्राम पंचायतों में भी इस बात को रखा गया। आखिरकार, काफी बातचीत और शोध के बाद, बोरी-बाँध बनाने का फैसला किया गया।
क्या है बोरी बाँध:
अब सवाल आता है कि बोरी बाँध आखिर क्या है? इस बारे में खूंटी जिला प्रशासन के साथ गृह मंत्रालय की तरफ से एडीएफ (एस्पिरेशनल डिस्ट्रिक्ट फेलो) के तौर पर काम कर रहे निखिल त्रिपाठी ने जानकारी दी। उन्होंने बताया कि सीमेंट आदि की खाली बोरियों में बालू/रेत भरा गया और उनसे बाँध का निर्माण किया गया। बोरियों में रेत भरके उन्हें ईंटों की तरह इस्तेमाल करने की तकनीक काफी पुरानी है। यह बहुत ही प्रभावी आर्किटेक्चर का उदाहरण है। यही तकनीक सेवा वेलफेयर सोसाइटी और खूंटी जिला प्रशासन ने अपनाई।
निखिल कहते हैं कि उन लोगों ने ग्राम सभाओं में लोगों को इकट्ठा करके उनसे बात की और इस प्रोजेक्ट से उन्हें जोड़ा गया। साल 2018 के आखिरी महीने, दिसंबर में तोरपा प्रखंड के तपकरा इलाके से शुरूआत की गई। सबसे पहले चार बोरी बाँध बनाए गए।
इस काम के लिए बालू तो काफी मात्रा में उपलब्ध थी, लेकिन ज़रूरत थी बोरियों की। इसके लिए जिला प्रशासन ने आवास योजना के अंतर्गत काम के लिए आने वाले सीमेंट की बोरियों का इस्तेमाल किया। ग्राम सभा द्वारा इन बोरियों को मंगवाया गया और इनमें बालू भर-भरके बाँध का निर्माण किया गया।
सेवा वेलफेयर सोसाइटी ने धीरे-धीरे करके पहले चरण में 100 बाँध तैयार किए। इन बांधों को बनाने में गाँव के आम लोगों ने साथ दिया और उन्होंने भी सीखा कि वह खुद कैसे बाँध बना सकते हैं। अजय आगे कहते हैं कि इस अभियान ने लोगों के बीच भाईचारे की भावना को एक बार फिर जागृत किया। बाँध के काम के बाद सभी लोग बैठकर भोज करते और यह सामूहिक भोज गाँव की महिलाएं ही तैयार करतीं थीं। एक-दूसरे गाँव की देखा-देखी, लगभग 44 गांवों में यह पहल चली। शुरुआत के 100 बांधों के बाद, ग्रामीणों ने मिलकर और 150 बाँध बनाए हैं।
कम-लागत का प्रभावी उपाय:
“एक बोरी-बाँध को बनाने में लगभग 3-4 हज़ार बोरियों का इस्तेमाल होता है और इसकी लागत दो हज़ार रुपये तक आती है,” अजय शर्मा ने कहा। इस लागत को ग्रामीण मिलकर उठा सकते हैं। श्रमदान की परंपरा आदिवासियों की संस्कृति का हिस्सा है, जिसे एक बार फिर उपयोग में लाया गया है। लगभग 20 हज़ार लोगों ने साथ में श्रमदान करके अपनी मुश्किलों से निजात पाई है।
सोनमेर गाँव के एक किसान, संदीप हेरेंज बताते हैं कि पहले सिंचाई की समस्या के कारण वह बहुत कम ज़मीन पर ही खेती कर पाते थे। लेकिन पिछले साल उन्हें अपने पास के कसीरा गाँव में बोरी-बाँध के बारे में पता चला, जिसका लाभ वहाँ के किसान ले रहे हैं। उन्होंने भी वहाँ 15 एकड़ ज़मीन लीज़ पर ले ली और उसमें तरबूज, स्वीट कॉर्न और सब्जियां बोईं। इस साल उन्हें पर्याप्त पानी और सिंचाई के कारण अच्छी उपज मिली है।
“खेती के लिए पानी ही सबकुछ है और उसके आभाव में किसानों की समस्याएं बढ़ी हुई थी। बरसात के मौसम का ही सहारा हुआ करता था लेकिन फिर उसके बाद कोई व्यवस्था ने होने कारण खेती के लिए पानी बचता नहीं था। पर अब बोरी बाँध बनने से हम उस पानी को रोक पा रहे हैं और उससे सिंचाई का काम बढ़िया से हो रहा है,” यह कहना है पैलोल गाँव के किसान लक्ष्मण का। एक और किसान, प्रफ्फुल तिडू बताते हैं कि उन्होंने इस बार चना और तुअर की फसल से लगभग 1 लाख रुपये की बचत की है और अब सब्जियों से भी उन्हें इस सीजन में 2-3 लाख रुपये की कमाई होने की सम्भावना है।
अजय शर्मा कहते हैं कि बोरी बाँध बनने के बाद पहले की तुलना में यहाँ तरबूज उत्पादन में 400% की बढ़ोतरी हुई है। आज किसान चना, तुअर, खरबूज, तरबूज और तरह -तरह की सब्जियों की खेती कर रहे हैं। किसानों के साथ-साथ महिलाओं को भी बड़ी निजात मिली है। उन्हें अब जानवरों को पानी पिलाने या फिर दूसरे कामों में पानी के लिए दूर नहीं जाना पड़ता। गाँव में ही बोरी-बाँध से रुके पानी को वो इस्तेमाल कर पा रही हैं। एक बड़ा फायदा है कि बरसात के पानी के रुकने से कुएं आदि भी रिचार्ज होने लगे हैं।
बोरी-बाँध की सफलता को देखते हुए खूंटी के अलावा और भी जिलों के लोग इस तरह के बाँध बनाना चाहते हैं। खूंटी जिला के इस बाँध मॉडल को राष्ट्रीय स्तर पर भी सराहा गया है। पिछले साल, इस मॉडल के लिए स्कॉच अवार्ड मिला था और इस साल राष्ट्रीय जलशक्ति पुरस्कार से नवाज़ा गया है। जिला के उपायुक्त शशि रंजन कहते हैं कि यह पुरस्कार खूंटी के उन 20 हज़ार लोगों के लिए है, जिन्होंने दिन-रात एक करके अपनी किस्मत खुद बदली है।
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