कॉमनवेल्थ गेम्स -2022 में जूडो के 48 किलोग्राम फाइनल में भारत की सुशीला देवी लिकमाबाम ने भारत के लिए सिल्वर मेडल जीता। फाइनल में उनका सामना साउथ अफ्रीका की मिशेला व्हाइटबोई से था। दोनों खिलाड़ियों के बीच मुकाबला 4 मिनट 25 सेकेंड तक चला।
27 वर्षीया सुशीला, इंफाल (मणिपुर) के पूर्वी जिले मे स्थित हिंगांग मयाई लीकाई की रहनेवाली हैं। 1995 में जन्मीं सुशीला ने बचपन से ही देश के लिए जूडो खेलने का सपना देखा था। स्थानीय खेलों से लेकर राष्ट्रमंडल खेलों तक पहुंचने के लिए उन्होंने कई मुश्किलों का सामना भी किया है।
उन्होंने इस साल भी राष्ट्रमंडल खेलों में पदक जीतने के लिए अपनी जान लगा दी। इस बार उन्हें गोल्ड मेडल का प्रबल दावेदार माना जा रहा था। उन्होंने बेहतरीन प्रदर्शन करते हुए सेमीफाइनल में मॉरिशस की प्रिसिल्ला मोरांद को इपपोन से हराया था। वहीं, क्वार्टर फाइनल में उन्होंने मालावी की हैरियट बोनफेस को शिकस्त दी थी।
सुशीला देवी इससे पहले भी राष्ट्रमंडल खेलों में पदक जीत चुकी हैं। साल 2014 के ग्लासगो कॉमनवेल्थ गेम्स में वह भारत के लिए रजत पदक जीतने में कामयाब रही थीं। इसके साथ ही सुशीला देवी कॉमनवेल्थ गेम्स के जूडो इवेंट में मेडल जीतने वाली पहली भारतीय महिला भी बन गई थीं।
वहीं टोक्यो ओलंपिक में जूडो में इकलौती भारतीय महिला खिलाड़ी के रूप में भी सुशीला देवी ने भाग लिया था।
भाई को देखकर शुरू किया था खेलना
कॉमनवेल्थ गेम्स में रजत पदक जीतने वाली सुशीलो को जूडो से लगाव यूं तो बचपन से ही रहा है। उनके चाचा भी एक जूडो खिलाड़ी रहे हैं। सुशीला बचपन में अपने भाई सिलाक्षी के साथ जूडो अकेडमी जाती थीं। दोनों सुबह छह बजे तक घर से निकल जाते और आधे घंटे के साइकिल सफर के बाद, जूडो अकेडमी पहुंचते थे।
कभी बारिश तो कभी कोहरा, दोनों के लिए सुबह का यह सफर आसान नहीं होता था। आज भी जब सुशीला ओलंपिक खेलती हैं, तो बचपन के वे दिन बहुत याद करती हैं। बड़े खेलों में जब उनके साथ, उनके गांव का नाम लिया जाता है, तो वह ख़ुशी से भावुक भी हो जाती हैं।
साल 2009 में पहली बार सुशीला अपने मौजूदा कोच और अर्जुन अवॉर्डी जीवन कुमार शर्मा से मिली थीं, जिन्होंने उन्हें खेलना जारी रखने के लिए प्रेरित किया। वह उनका खर्च भी उठाते और स्पॉन्सर्स को सुशीला का समर्थन करने के लिए भी राजी करते थे।
धीरे-धीरे इसका असर दिखने लगा और सुशीला पहले जूनियर और फिर सीनियर लेवल पर मेडल जीतने लगीं। साल 2014 में वह ग्लास्गो कॉमनवेल्थ गेम्स में हिस्सा लेने पहुंचीं और वहां सिल्वर मेडल जीता। लेकिन उस समय भी किसी ने नहीं सोचा था कि एक दिन वह ओलंपिक तक पहुंच जाएंगी।
कॉमनवेल्थ गेम्स में पदक जीतने वाली सुशीला को ट्रेनिंग के लिए बेचनी पड़ी थी गाड़ी
सुशीला एक बेहद ही गरीब परिवार से ताल्लुक रखती हैं। उनके पिता के पास एक छोटा सा खेत है, जहां वह अपना घर चलाने के लिए सब्जियां उगाते हैं। अपने करियर के दौरान सुशीला को कई बार पैसों की कमी के कारण मुश्किलों का सामना करना पड़ा। साल 2018 में वह पैर की चोट के कारण एशियन गेम्स में हिस्सा नहीं ले पाई थीं, जिसके बाद कई स्पॉन्सर्स ने उनका साथ छोड़ दिया था।
वह उनके जीवन का एक मुश्किल दौर ही था। सुशीला ने साल 2016 में अपने लिए गाड़ी खरीदी थी, जिसके कारण उनका टूर्नामेंट के लिए जाने का सफर आसान हो जाता था। लेकिन बाद में 2018 में ही ट्रेनिंग के लिए जाने और अपने ट्रेवल का खर्च उठाने के लिए उन्हें उस गाड़ी को बेचना पड़ा था।
जब भी वह किसी टूर्नामेंट में सफलता हासिल करके आतीं, तो गांव के लोग खुशी जाहिर करते, लेकिन कोई भी आर्थिक मदद करने में सक्षम नहीं था। लॉकडाउन के दौरान भी उन्होंने घर पर रहकर ही ट्रेनिंग करना जारी रखा था और अपनी इस निरंतर मेहनत के दम पर ही उन्होंने कॉमनवेल्थ गेम्स में देश लिए एक और पदक हासिल कर लिया है।
द बेटर इंडिया की ओर से उन्हें इस सफलता के लिए ढेरों शुभकामनाएं।
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