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Dr. Kitchlew: कौन था वह नायक, जिनकी गिरफ्तारी के विरोध में जलियांवाला बाग पहुंचे थे लोग?

Dr Kitchlew, freedom fighter, Hero Of Jaliawala Baag

हम जलियांवाला बाग की बात तो करते हैं, लेकिन डॉ सैफुद्दीन किचलू को याद करना भूल जाते हैं। जो हमेशा स्वतंत्रता, धार्मिक एकता, अहिंसा और भारत की एकता के सिद्धांतों पर मजबूती से खड़े रहे। रॉलेट एक्ट के विरोध के समय किचलु सबसे आगे थे। वह, अमृतसर में उस कठोर कानून के खिलाफ सभी धर्मों के लोगों को एकजुट कर रहे थे, जिसकी वजह से उन्हें जेल भी जाना पड़ा। उनकी गिरफ्तारी के कारण ही लोग जलियांवाला बाग में इकट्ठा हुए। आजादी की लड़ाई का यह नायक आज इतिहास के पन्नों में कहीं खो सा गया है।

पेशे से बैरिस्टर डॉ किचलु अपने एक साथी स्वतंत्रता सेनानी, डॉ सत्य पाल से खासा प्रभावित रहे। उनके कहने पर वह एक हड़ताल में भाग लेने के लिए तैयार हो गए थे। देश के लिए कुछ करने का विचार तो उनके मन में बहुत पहले ही पनप चुका था, मगर उस सोच को अमली जामा पहनाने की असल शुरुआत यहीं से हुई थी। उन्होंने लोगों से अपने बिजनेस को एक तरफ रखने और औपनिवेशिक शासकों के खिलाफ अहिंसक सत्याग्रह में भाग लेने का आह्वान किया।

एक्ट के खिलाफ उनकी अपील ने पंजाब के लोगों में एक जोश पैदा कर दिया। जब 30 मार्च 1919 को एक जनसभा आयोजित की गई, तो उसमें लगभग 30,000 लोगों ने भाग लिया। इस जनसभा में उन्होंने कहा था, “महात्मा गांधी का संदेश आपको पढ़कर सुना रहा हूं। सभी नागरिकों को इस कानून के विरोध के लिए तैयार रहना होगा। इसका मतलब यह नहीं है कि यह पवित्र शहर या फिर देश खून से लथपथ हो जाए। प्रतिरोध शांतिपूर्ण तरीके और धैर्य के साथ होना चाहिए। किसी भी पुलिसकर्मी या देशद्रोही के संबंध में कड़वे शब्दों का प्रयोग न करें, जिससे उन्हें ठेस पहुंचे या शांति भंग होने की संभावना हो।”

‘खूनी वैसाखी’

इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल ने जिस रॉलेट एक्ट को पारित किया था, उसने औपनिवेशिक प्रशासन को अपनी इच्छा से प्रेस को सेंसर करने, बिना वॉरंट लोगों को गिरफ्तार करने और उन्हें बिना सबूत के हिरासत में लेने का अधिकार दे दिया था।

डॉ किचलू और डॉ सत्य पाल इसी एक्ट का विरोध कर रहे थे। विरोध के दौरान ये दोनों, अमृतसर के हिंदुओं, मुसलमानों और सिखों के बीच धार्मिक एकता की भावना को बढ़ावा देने में लगे रहे। 9 अप्रैल 1919 को अमृतसर में एक सरकार विरोधी जुलूस के दौरान, ‘किचलू जी की जय’ और ‘सत्यपाल जी की जय’ के नारे लगाए गए। डॉ सैफुद्दीन किचलू उस विरोध का चेहरा बन गए। यहां अलग-अलग धार्मिक समुदायों के लोग रामनवमी मनाने के लिए इकट्ठा हुए थे।

पंजाबी कवि नानक सिंह, अमृतसर में होने वाली जनसभाओं और जलियांवाला बाग हत्याकांड की घटना के प्रत्यक्ष गवाह थे। उन्होंने अपनी कविता ‘खूनी वैसाखी’ में उल्लेख किया है कि कैसे हिंदू, मुस्लिम और सिख एक साथ मिलकर एक ही त्योहार मना रहे थे, एक ही गिलास से पानी पी रहे थे और एक ही थाली में खाना खा रहे थे। वह इस नरसंहार के बाद, अंतिम संस्कार के जुलूसों का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि कैसे हिंदू, मुस्लिम और सिख कंधे से कंधा मिलाकर चल रहे थे।

गिरफ्तारी का विरोध कर रहे लोगों पर चलीं ताबड़-तोड़ गोलियां

S. D. Kitchlew

रामनवमी समारोहों ने अमृतसर की जनता को दिखा दिया था कि अगर ये समुदाय अपने मतभेदों को दूर कर लेते हैं, तो ब्रिटिश शासन को चुनौती देना मुश्किल नहीं होगा। देश में साम्प्रदायिक सद्भाव का उदय हो चुका था और साथ ही रॉलेट एक्ट के लागू होने के खिलाफ लोगों का गुस्सा बढ़ता जा रहा था। इसे देखते हुए अंग्रेजों ने 10 अप्रैल को किचलू और सत्य पाल को गिरफ्तार कर, धर्मशाला भेज दिया।

उन दोनों की गिरफ्तारी की वजह से हिंदू, सिख और मुस्लिम प्रदर्शनकारियों ने एक साथ मिलकर जलियांवाला बाग में एक सामूहिक सभा शुरू की। इस सभा में भीड़ को “तितर-बितर” करने के लिए, जनरल रेजिनाल्ड डायर और उसके सैनिकों ने 13 अप्रैल 1919 को सैकड़ों प्रदर्शनकारियों की हत्या कर दी थी। यह वही घटना थी, जिसे आज ‘जलियांवाला बाग हत्याकांड’ के रूप में जाना जाता है। डॉ किचलू को आखिरकार दिसंबर 1919 में जेल से रिहा कर दिया गया।

डॉ किचलू के पोते एफ जेड किचलू ने अपनी किताब ‘फ्रीडम फाइटर – द स्टोरी ऑफ डॉ सैफुद्दीन किचलू’ में उस दिन का जिक्र करते हुए लिखा है, “जैसे ही किचलू जेल से बाहर आए, अमृतसर में भारी भीड़ जमा हो गई। लोगों ने किचलू को अपने कंधों पर बैठाकर, शहर भर में एक ऐतिहासिक जुलूस निकाला था।”

फ्रांस की क्रांति से थे खासे प्रभावित

डॉ किचलु का जन्म 15 जनवरी 1888 को पंजाब के अमृतसर में एक कश्मीरी व्यवसायी, अजीजुद्दीन किचलू के घर हुआ था। उनकी मां का नाम डैन बीबी था। किचलु, बड़ी ही शानो-शौकत के साथ पले-बढ़े थे। उनके पिता कशीदाकारी पश्मीना शॉल और केसर का बिजनेस करते थे।

उन्होंने अपनी पढ़ाई इंग्लैंड के कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से की। फिर पीएचडी करने के लिए जर्मनी चले गए। अपनी पढ़ाई के बाद, लॉ की प्रैक्टिस करने के लिए वह अमृतसर लौट आए थे। लेकिन देशभक्ति का जज्बा कैम्ब्रिज के दिनों में ही उनके अंदर सुलगने लगा था। औपनिवेशिक शासन की वजह से भारत को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ रहा था, उन मुद्दों पर उन्होंने चिंतन शुरू कर दिया था।

वह कैम्ब्रिज के एक वाद-विवाद क्लब मजलिस में भी शामिल हुए। ब्रिटिश शासन की कई बुराइयों पर चर्चा करने के लिए यहां भारतीय छात्र इकट्ठा हुए थे। इसी वाद-विवाद क्लब के जरिए उनकी मुलाकात साथी स्वतंत्रता सेनानियों और भावी प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू से हुई थी।

एफ जेड किचलू लिखते हैं, “यह कैम्ब्रिज ही था, जहां किचलू के अंदर समाजवादी विचारों को जगह मिलनी शुरु हुई… वह फ्रांस की क्रांति से खासे प्रभावित थे। उन्होंने इन विषयों पर बहुत सी किताबें पढ़ीं। उनमें राष्ट्रवाद और स्वतंत्रता आंदोलनों के लिए एक तरह का जोश पैदा हो गया था।”

भारत लौटने के बाद किचलू, गांधी और उनकी तेजी से बढ़ रही स्वतंत्रता संग्राम की विचारधारा से गहराई से जुड़ गए। इसके लिए उन्होंने अपनी लॉ प्रक्टिस को भी छोड़ दिया था।

किचलु की घोषणा ने रखी ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ की नींव

स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी के अलावा, किचलू ने खिलाफत आंदोलन में भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उन्हें ‘अखिल भारतीय खिलाफत समिति’ का प्रमुख बनाया गया। वह पैन-इस्लामवाद के समर्थक थे और इसी विचारधारा के प्रसार में लग गए। पैन-इस्लामवाद चाहता था कि भारत के सभी मुसलमान तुर्की के खलीफा को अपने नेता के रूप में मान्यता दें। लेकिन एक बार जब तुर्की ने धर्मनिरपेक्ष तर्ज पर सरकार बनाई, तो भारत में आंदोलन ध्वस्त हो गया और इसके बाद पूरे देश में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे।

खिलाफत आंदोलन के परिणाम को स्वीकार करते हुए, किचलू ने एक बार फिर पूरी तरह से धार्मिक एकता से प्रेरित राष्ट्रवाद के लिए खुद को समर्पित कर दिया। यह वह समय था, जब देश में धार्मिक भेदभाव बढ़ रहा था। उनका मानना था कि अगर भारत को औपनिवेशिक शासन से छुटकारा पाना है तो हिंदू, मुस्लिम और अन्य धर्मों के लोगों को एक साथ आना होगा।

Jallianwala Bagh memorial (Source: Wikimedia Commons)

पूर्ण स्वराज के समर्थक डॉ किचलू, लाहौर में भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस सत्र की स्वागत समिति के अध्यक्ष थे। वहां, उन्होंने 26 जनवरी 1930 को अंग्रेजों (पूर्ण स्वराज) से पूर्ण स्वतंत्रता की घोषणा की। बाद में इस घोषणा ने सविनय अवज्ञा आंदोलन की नींव रखी और स्वतंत्रता संग्राम को आगे बढ़ाया।

पाकिस्तान जाने से कर दिया था मना

एफ जेड किचलू लिखते हैं, “उनका विचार था कि भारतीय स्वतंत्रता केवल भारत के अपने प्रयासों से ही मिल सकती है। उनके अनुसार, जो देश स्वतंत्र हुए थे, उनका इतिहास हमें बताता है कि आत्मनिर्भरता, आत्म-बलिदान और कष्ट ही स्वतंत्रता का एकमात्र रास्ता है।”

इस “स्वतंत्रता के मार्ग” पर सिर्फ एक ऐसा देश चल सकता है, जो सांप्रदायिक आधार पर बंटा हुआ न हो। इसी वजह से वह विभाजन का कड़ा विरोध करते थे। उन्हें लगता था कि इस तरह के कदम से मुस्लिमों को राजनीतिक और आर्थिक दोनों तरह से नुकसान होगा। उन्होंने विभाजन को “सांप्रदायिकता के लिए राष्ट्रवाद का समर्पण” कहा था।

विभाजन के दौरान सांप्रदायिक तनाव अपने चरम पर था, उस दौरान भी डॉ किचलू देश में सद्भावना फैलाने में सक्रिय भूमिका निभाते रहे। इस काम की उन्हें भारी कीमत भी चुकानी पड़ी। जब अन्य मुसलमान पाकिस्तान के लिए रवाना हुए, तो उन्होंने वहां जाने से मना कर दिया और वापस अमृतसर में रहने का फैसला किया। लेकिन 1947 में दंगाइयों ने शहर में उनके चार मंजिला घर और परिवार के स्वामित्व वाली किचलू होजरी फैक्ट्री को जला दिया और उन्हें अपने परिवार के साथ दिल्ली आने के लिए मजबूर होना पड़ा।

जीवन के 14 साल बिताए जेल में

विभाजन और स्वतंत्रता के कुछ सालों बाद, उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस छोड़ दी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के साथ जुड़ गए। उन्होंने दिल्ली में अपने आखिरी साल भारत सरकार और यूएसएसआर के बीच घनिष्ठ संबंध स्थापित करने में बिताए। उनके प्रयासों के लिए, यूएसएसआर ने उन्हें 1952 में स्टालिन शांति पुरस्कार (जिसे बाद में लेनिन शांति पुरस्कार कहा जाने लगा) दिया और भारत सरकार ने उन्हें ‘जलियांवाला बाग राष्ट्रीय स्मारक ट्रस्ट’ में भी शामिल किया।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उन्होंने कुल 14 साल जेल में बिताए थे। वह एक शिक्षाविद् भी थे। उन्होंने जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय की स्थापना में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1926 में महान स्वतंत्रता सेनानी भगत सिंह के एक संगठन ‘नौजवान भारत सभा’ के लिए अपना समर्थन देने वाले कुछ प्रमुख कांग्रेसियों में से थे।

9 अक्टूबर 1963 को उनका निधन हो गया। उनकी मौत के बाद, नेहरू ने कहा था, “मैंने एक बहुत प्यारा मित्र खो दिया है, जो भारत की स्वतंत्रता के लिए किए गए संघर्ष में एक बहादुर और दृढ़ कप्तान था।”

डॉ किचलु अपने आखिरी समय तक अखंड भारत की विचारधारा और अपने सिद्धांतों पर बने रहे।

मूल लेखः रिनचेन नोर्बू वांगचुक

संपादनः अर्चना दुबे

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