Site icon The Better India – Hindi

9000 मजदूर महिलाओं को किसान बना, इस IIT कपल ने दी नई पहचान

NGO for women
YouTube player

बंगाल के उत्तरी भाग के एक छोटे से शहर सिलीगुड़ी के रहने वाले अनिर्बान नंदी और उनकी पत्नी पौलमी चाकी नंदी, जब IIT खड़गपुर से पढ़ाई कर रहे थे, तब उन्हें अपने इलाके की उन समस्याओं के बारे में कोई अंदाज़ा नहीं था, जिनके कारण कई मजदूर महिलाएं और बच्चे मुश्किलों का सामना कर रहे हैं। 

ब्रिटिश राज से ही यहाँ की महिलाएं चाय बागानों में चाय के पत्ते तोड़ने का काम करती आ रही हैं, जिसके लिए उन्हें सामान्य से काफ़ी कम मज़दूरी मिलती है। दुख की बात तो यह है कि इसके अलावा ये मजदूर महिलाएं किसी और काम के लिए स्किल्ड नहीं थीं। पश्चिम बंगाल के इस क्षेत्र में सिलीगुड़ी सहित एक दो शहरों को छोड़ दें, तो सारा इलाक़ा आदिवासियों का है। इन्हें रोज़गार के लिए चाय बागानों पर ही निर्भर होना पड़ता है। 

अनिर्बान बताते हैं, “आज हम कई क्षेत्र में करियर की संभावनाएं देखते हैं, लेकिन जब आप इन ग्रामीण इलाकों में जाएंगे, तो आप महसूस करेंगे कि उनको रोज़गार के अवसरों के बारे में पता ही नहीं है। आर्थिक समस्या के कारण बच्चों को शिक्षा भी नहीं मिल पाती।”

दरअसल, अनिर्बान 2016 में IIT से रूरल डेवलपमेंट के विषय में पीएचडी की पढ़ाई कर रहे थे। वहीं से पौलमी भी  इकोनॉमिक्स पढ़ रही थीं। अपने प्रोजेक्ट के सिलसिले में वे सिलीगुड़ी के आस-पास के गाँवों में जाया करते थे।  

घर से मिली अनिर्बान को ग्रामीण इलाके में काम करने की प्रेरणा

Mobile Library by Anirban and Poulami

अनिर्बान के पिता सालों पहले भारत-बांग्लादेश सीमा पर किसानी किया करते थे। लेकिन 1971 के बाद वह अपनी ज़मीन और गाँव छोड़कर बंगाल आ गए और सिलीगुड़ी में बस गए थे। इसके बाद, वह अपनी पुरानी खेती को याद करके, अनिर्बान को ग्रामीण जीवन के बारे में बताते रहते थे।

वहीं, अनिर्बान और पौलमी दोनों की माँ नर्स के तौर पर काम करती थीं। अनिर्बान बताते हैं, “हम दोनों का परिवार, सामाजिक सेवा और ग्रामीण परिवेश से जुड़ा हुआ है, इसलिए गाँव में रहकर काम करने को परिवार से हमेशा समर्थन मिला।”

IIT के दिनों में ही अनिर्बान पौलमी से मिले। क्योंकि वे दोनों एक ही क्षेत्र से जुड़े हुए थे, इसलिए उन्होंने साथ मिलकर उत्तर बंगाल के गाँवों का दौरा करना शुरू कर दिया। 

ग्रामीण इलाके में शिक्षा के ज़रिए ही बदलाव लाया जा सकता है। लेकिन उन्होंने देखा कि यहाँ स्कूल न जाने वालों की संख्या काफ़ी ज़्यादा है। ज़्यादातर मजदूर महिलाएं हैं, जो शिक्षित नहीं हैं और पुरुष सालों से सिर्फ़ पारंपरिक कामों से ही जुड़े हैं, जिससे घर का ख़र्च चलाना बेहद मुश्किल था।

मोबाइल लाइब्रेरी से शुरू किया बच्चों को शिक्षित करने का काम 

Mobile Library for kids

अनिर्बान बताते हैं, “हमने अपनी पढ़ाई के दौरान 2017 की शुरुआत में एक मोबाइल लाइब्रेरी शुरू की, जिसमें हम बच्चों को मुफ्त में किताबें दिया करते थे। खुद गाँव में जाकर बच्चों को ज़रूरी किताबें बांटते थे। साथ ही मजदूर महिलाएं सशक्त बन सकें, इसके लिए भी काम करना शुरू किया।”

अनिर्बान और पौलमी ने देखा कि अगर यहाँ का कोई बच्चा बड़ी प्रतियोगिता और कॉलेज एडमिशन के लिए कोशिश करता है, तो साधन के आभाव की वजह से शहरी बच्चों से पीछे रह जाता है। 

उन्होंने इस समस्या को सुलझाने के लिए 10 रुपये ट्यूशन की शुरुआत की। इसके ज़रिए अनिर्बान और पौलमी खुद ही बच्चों को पढ़ाने जाया करते थे।

अनिर्बान बताते हैं, “हम सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर अपने काम के बारे में पोस्ट वग़ैरह किया करते थे, जिसे देख सोशल वर्क जैसे विषय की पढ़ाई कर रहे कई कॉलेज स्टूडेंट्स हमसे जुड़ने लगे और हमारे यहाँ आकर उन बच्चों को पढ़ाने भी लगे। इस तरह आज हमारे पास एक सेट कोर्स है और लाइब्रेरी में तक़रीबन 9000 किताबें हैं, जिससे गाँव के लगभग 7000 बच्चे शिक्षा हासिल कर रहे हैं।”

फिलहाल इस कपल के साथ IIT, शांति निकेतन जैसे कई कॉलेजों के 200 से ज़्यादा स्टूडेंट्स, वॉलंटियर के रूप में जुड़े हैं।  

9000 मजदूर महिलाएं अब कर रहीं मशरूम की खेती

Women Self Help Group

दूसरा सबसे बड़ा मुद्दा था, महिलाओं की स्थिति में सुधार लाना। ये महिलाएं पढ़ी-लिखी नहीं थीं और चाय के बागों में काम करने के आलावा, किसी और काम के बारे में जानती भी नहीं थीं। इसलिए, इनके लिए क्या किया जाए? यह एक बड़ा सवाल था। खेती के लिए उनके पास ज़मीन नहीं थी और न बिज़नेस के लिए इतने पैसे थे। 

अनिर्बान बताते हैं, “इलाके में मजदूर महिलाएं आत्मनिर्भर न होने के कारण घरेलू हिंसा का शिकार हो रही थीं। इतना ही नहीं, उन्हें अपने बच्चों के लिए कोई फ़ैसला लेने का भी अधिकार नहीं था। हमने रिसर्च करके पाया कि मशरूम की खेती करने से इन्हें मदद मिल सकती है।”

सिलीगुड़ी के इस क्षेत्र में सालों से लोग मशरूम खाते आ रहे हैं, लेकिन इसकी खेती यहाँ ज़्यादा नहीं होती थी। साथ ही यह कम निवेश में सबसे अच्छा मुनाफ़ा देने वाला रोज़गार था। अनिर्बान और पौलमी ने छोटे-छोटे सेल्फ हेल्प ग्रुप्स बनाकर महिलाओं को मशरूम उगाने की ट्रेनिंग देना शुरू किया। 

यह कोशिश सफल हुई और मात्र 45 से 50 रुपये के निवेश के साथ महिलाएं 160 से ज़्यादा रुपये कमाने लगीं। मशरूम की खेती के लिए उन्हें ज़्यादा जगह की ज़रूरत भी नहीं थी और बाज़ार में 160 से 200 रुपये प्रति किलो भाव उन्हें आराम से मिल जाता था।  

इस तरह साल 2018 तक मशरूम खेती से 32 गाँवों की 9000 महिलाएं जुड़ गईं। पहले जहाँ महिलाओं को बुला-बुलाकर ट्रेनिंग दी जाती थी, वहीं आज वे खुद इसके फ़ायदों से प्रभावित होकर इस काम से जुड़ रही हैं।  

सच्ची संतुष्टि मिलती है इस काम से” 

Anirban and Poulami

हालांकि, इस काम की शुरुआत अनिर्बान और पौलमी ने अकेले ही की थी, लेकिन जैसे-जैसे लोग जुड़ने लगे, उन्हें ज़्यादा फण्ड की ज़रूरत पड़ने लगी। साल 2019 में उन्होंने अपने काम को बढ़ाने के लिए ‘लिव लाइफ हैप्पिली’ (Live Life Happily) नाम से एक NGO की शुरुआत की।  

अनिर्बान बताते हैं, “हम अपने पैसों से ही यह काम कर रहे थे और हमें इससे अलग ही संतुष्टि भी मिलती थी। लेकिन आज जब हमें फण्ड मिल रहा है, तो हम हर गाँव में कंप्यूटर और इसकी ट्रेनिंग जैसी सुविधाएं भी पंहुचा रहे हैं।”

गाँव के जिस इलाके में कभी बच्चे पढ़ाई का महत्व ही नहीं जानते थे, वहीं आज बच्चे कंप्यूटर चला रहे हैं, मजदूर महिलाएं आज आर्थिक रूप से मजबूत बनी हैं और इसी को यह कपल अपनी सच्ची सफलता मानता है। इसी साल उन्होंने अपनी आगे की पढ़ाई के लिए कैलिफोर्निया जाने का फ़ैसला भी बदल दिया, ताकि यहाँ रहकर ही इन लोगों के लिए काम कर सकें।

जिस तरह यह दम्पति अपनी शिक्षा का इस्तेमाल करके कई परिवारों की ज़िंदगी संवारने में लगा है, वह वाक़ई तारीफ़ के काबिल है। आप इनके NGO के बारे में ज़्यादा जानने के लिए यहां क्लिक करें।  


संपादन – भावना श्रीवास्तव

यह भी पढ़ें – अपने छात्रों को पढ़ाने हर दिन 25 किमी पैदल चलकर जाती हैं केरल की 65 वर्षीय नारायणी टीचर

Exit mobile version