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हर दिन 25 किलो आटे की रोटियां बनाकर, भरते हैं 300 से ज़्यादा बेसहारा कुत्तों का पेट

Kutch Family feeding stray dogs

कच्छ के मांडवी तालुका का गांव कठड़ा, यूँ तो दिखने में एक सामान्य गांव की तरह ही है। लेकिन इस गांव में बसने वाला चारण परिवार, बेहद ख़ास है। 

जशराज चारण और उनका पूरा परिवार, पिछले 25 सालों से मानवता और जीव दया का बेहतरीन उदाहरण पेश कर रहा है। गांव के कुत्तों को सुबह-शाम खाना खिलाने के लिए यशराज, उनकी पत्नी और चारों बच्चे अपना-अपना योगदान देते हैं। इनके घर में हर रोज़ कुत्तो को खिलाने के लिए तक़रीबन 250 रोटियां और गेहूं के आटे का छह किलो गीला हलवा बनता है। जिसे बनाने के लिए इस परिवार ने एक महिला को काम पर भी रखा है।  

इस तरह रोज़ वह, लगभग 25 किलो आटे का उपयोग जानवरों को खिलाने में करते हैं। इन सभी कामों के लिए चारण परिवार ख़ुशी-ख़ुशी 3० से 35 हज़ार का खर्च हर महीने करता है। 

यशराज को जीव-जंतुओं से विशेष प्रेम है, उन्होंने 37 साल तक वन विभाग में काम किया है। वह पहले फॉरेस्ट गार्ड और फिर फॉरेस्टर यानी वनपाल के तौर पर काम करते थे। द बेटर इंडिया से बात करते हुए वह बताते हैं, “मेरे दो चाचा वन विभाग में ही काम करते थे। मैं बचपन में उनसे जानवरों के बारे में सुनता रहता था, तभी से मुझे जानवरों के प्रति लगाव हो गया था। आज मेरी एक बेटी और छोटा बेटा भी वन विभाग में ही काम कर रहे हैं।”

यशराज ने अपनी नौकरी के दौरान कई वन्य पशुओं, जैसे- नील गाय, जंगली सूअर, सियार आदि का शिकार होने से बचाया है। वह, साल 2017 में रिटायर हो गए थे, जिसके बाद भी शिकार रोकने में विभाग की मदद करते रहते हैं। उनकी बेटी सोनल बताती हैं, “मैं फॉरेस्ट गार्ड के तौर पर काम करती हूँ और मेरे पिता को जंगल की अच्छी जानकारी है। कौन सा जानवर कहाँ है? कहाँ शिकार हो सकता हैं? वह समय-समय पर मेरी मदद करते रहते हैं।”

गांव के 300 कुत्तों का पेट भरते हैं 

जंगली जानवरों के साथ-साथ, वह गांव के कुत्तों की दशा से भी परेशान थे। जिस कारण से ही उन्होंने कुत्तों को हर दिन रोटियां खिलाने का काम शुरू किया। जिसकी शुरुआत अचानक ही एक दिन हो गई। यशराज रोज ऑफिस से आने के बाद वॉक पर जाया करते थे। एक दिन उन्होंने देखा कि कुत्ते के छोटे-छोटे बच्चे, अपनी माँ के साथ बड़ी ही दयनीय हालत में थे। चूँकि उनकी माँ भी अपने बच्चों को छोड़कर खाना लाने नहीं जा सकती थी। इसलिए वह भी भूखी और कमजोर हो गई थी। यशराज ने उस दिन तो उन्हें  बिस्कुट खरीद कर खिला दिए। लेकिन अगले दिन उन्होंने अपनी पत्नी से तीन-चार रोटियां बना कर देने को कहा। इस तरह वह उनको रोज रोटियां देने लगें।

धीरे-धीरे कुत्तों की संख्या बढ़ने लगी। पहले चार फिर 10 और आज ये सिलसिला बढ़ते-बढ़ते 250 रोटियों तक पहुंच गया है। उनके घर पर रोटियों के साथ ही कुत्तों के लिए आटे का गीला हलवा भी बनता है। सुबह उनका बेटा कुत्तों को रोटियां खिलाने जाता है, फिर शाम को उनकी बेटी और पत्नी, उन्हें हलवा खिलाते हैं। वहीं, जशराज हर दिन जंगल में छोटे-छोटे जानवर, जैसे- खरगोश, हिरन और सियार के छोटे बच्चों को बिस्कुट खिलाने जाते हैं। इसके लिए वह हर महीने लगभग पांच हजार के बिस्कुट भी खरीदते हैं। 

लकड़ी का चूल्हा तैयार करके बनती हैं रोटियां 

जशराज के घर में इतनी सारी रोटियां बनाने की व्यवस्था उनकी पत्नी रमाईबेन चारण संभालती हैं। फिर चाहे चक्की से आटा पिसवाना हो या चूल्हा जलाने के लिए लकड़ियों का इंतजाम करना। वह ध्यान देती हैं कि हर दिन रोटियां बनाने के लिए जरूरी चीजें उपलब्ध रहें। हालांकि पहले उनकी बेटी ही रोटियां बनाया करती थी। लेकिन जैसे-जैसे  रोटियों की संख्या बढ़ने लगी, उन्होंने एक और महिला को काम पर रख लिया।

रमाईबेन बताती हैं, “अपने पति के जीव दया के प्रति रुझान देखकर, मैंने भी उनका साथ देने का फैसला किया। आज मेरे चारो बच्चे भी इन बेज़ुबानों की सेवा करने में हमारी मदद करते हैं। इसके अलावा, मैं चीटियों को भी आटा खिलाती हूँ।”

वह अपने घर में जानवरों के लिए जरूरी दवाइयां भी रखते हैं। गांव में किसी जानवर को छोटी-मोटी चोट लग जाने पर, वह उनका इलाज भी कर देते हैं। रमाईबेन कहती हैं, “इन सभी कामों के लिए हम कभी भी पैसों की चिंता नहीं करते। हम किसी तीर्थ यात्रा या मंदिर आदि में घूमने जाने के बजाय, इन बेज़ुबानों का पेट भरने को सच्ची पूजा समझते हैं। अगर किसी वजह से यह काम एक दिन भी छूट जाता है, तो हमें बड़ा अफ़सोस होता है।”

उनके गांव के ही 38 वर्षीय विरम गढ़वी बताते हैं, “चारण परिवार हम सबके लिए प्रेरणारूप है। उनके कारण आज हमारे गांव के साथ-साथ, आस-पास के कई गावों के कुत्तों को भरपेट खाना मिल रहा है। साथ ही वह जब भी किसी मदद के लिए हमें बुलाते हैं, तो हम ख़ुशी-ख़ुशी उनकी मदद करते हैं। गांव में शिकार बंद करवाने में भी उनका बहुत बड़ा योगदान है।”

चारण परिवार के ये सारे ही प्रयास सही मायने में काबिल-ए-तारीफ़ हैं। 

संपादन-अर्चना दुबे

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