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गरीबी में बीता बचपन, सिग्नल पर बेचा साबुन, फिर डॉक्टर बनकर की 37,000 बच्चों की फ्री सर्जरी

डॉ. सुबोध कुमार सिंह (Dr Subodh Kumar Singh) उस समय 13 साल के थे, जब उनके पिता ज्ञान सिंह को दिल का दौरा पड़ा और उनकी मौत हो गई। उसके बाद से सुबोध का जीवन एक संघर्ष बन गया था। घर चलाने के लिए उन्होंने सड़कों पर समान बेचा और कई बार तो दुकानों पर छोटी-मोटी नौकरी भी की। हालात इतने खराब थे कि उनके भाइयों को घर चलाने के लिए मजबूरन पढ़ाई छोड़नी पड़ी। लेकिन उन्होंने सुबोध की पढ़ाई जारी रखने और डॉक्टर बनने के उनके सपने को पूरा करने का हर संभव प्रयास किया।  

डॉ. सुबोध कहते हैं, “मेरी पढ़ाई के लिए भाइयों ने जो त्याग किया था, मैं उसकी अहमियत समझता था। वह त्याग बेकार न जाए इसके लिए कड़ी मेहनत करता रहा। दसवीं कक्षा की परीक्षाओं के दौरान मैंने एक जनरल स्टोर में भी काम किया। साथ ही अपनी पढ़ाई करते हुए घर पर खाना भी बनाता था। हमारी मां काफी बीमार रहती थीं, इसलिए घर चलाने की जिम्मेदारी हम चारों के कंधों पर थी।”

वाराणसी (उत्तर प्रदेश) के रहनेवाले डॉ सुबोध, चार भाइयों में सबसे छोटे हैं। पैसों की तंगी के कारण उनका बचपन काफी कठिनाइयों में बीता। उनके अनुसार, “हमारे पिता की असामयिक मौत, शायद अस्पताल में सही ढंग से इलाज न मिलने के कारण हुई थी।”

कर्ज़ उतारने में चली जाती थी तनख्वाह

Dr Subodh Kumar Singh with kids at camp undergoing cleft lip surgery

द बेटर इंडिया से बात करते हुए उन्होंने कहा, “मेरे पिता रेलवे में क्लर्क थे और उनके देहांत के बाद, बड़े भाई को मुआवज़े के तौर पर नौकरी भी मिली थी। लेकिन पिता की मौत के बाद मिली ग्रेच्युटी और बड़े भाई की तनख्वाह, दोनों ही कर्ज उतारने में चली जाती थी। हमारे लिए घर चलाना मुश्किल हो रहा था, फिर हमने घर पर बनी मोमबत्तियों, साबुन और काले चश्मों को सड़कों और स्थानीय दुकानों पर बेचना शुरु कर दिया।”

लेकिन इन सभी परेशानियों के बावजूद, उनके भाइयों ने मेडिकल की पढ़ाई करने के लिए सुबोध को पैसों की कमी न हो इसका पूरा ध्यान रखा। सुबोध (Dr Subodh Kumar Singh) ने भी कड़ी मेहनत की, उन्होंने 1983 में, आर्म्ड फोर्सेस मेडिकल कॉलेज (AFMC, पुणे), बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (BHU-PMT) और उत्तर प्रदेश राज्य संयुक्त प्री मेडिकल टेस्ट (CPMT) पास किया। उन्होंने बीएचयू से मेडिकल की पढ़ाई करने का विकल्प चुना, ताकि वह अपनी मां के पास रहकर उनकी देखभाल कर सकें। इसके बाद उन्होंने सामान्य सर्जरी और प्लास्टिक सर्जरी में स्पेशलाइजेशन कर अपना पोस्ट ग्रेजुएशन पूरा किया।

हालांकि, डॉ. सुबोध मेडिकल कॉलेज में प्रोफेसर बनना चाहते थे, लेकिन वहां कोई पद खाली नहीं था, जिसकी वजह से उन्हें अपना इरादा छोड़ना पड़ा। वह बताते हैं, “मैंने साल 1993 से प्रैक्टिस करनी शुरू कर दी थी और फिर 2004 में अपने पिता को श्रद्धांजलि देते हुए उनके नाम पर ‘जी एस मेमोरियल’ नामक एक छोटा सा अस्पताल खोला।”

कठिनाइयों में बीते बचपन ने किया प्रेरित

कठिनाइयों में बीते बचपन ने सुबोध को सामाजिक कार्य करने के लिए प्रेरित किया। वह कहते हैं, “मेरे बचपन ने मुझे स्थितियों से लड़ने और अपने रोजाना के जीवन में संघर्ष से गुज़रने वाले लोगों की भावनाओं को समझने की ताकत दी। मैं परेशानियों से जूझ रहे लोगों के लिए कुछ करना चाहता था। डॉक्टर बनने के बाद मैं उस मुकाम पर पहुंच गया, जहां मैं लोगों की मदद कर सकता हूं।”

डॉक्टर सुबोध ने जब कटे होंठ वाले बच्चों की परेशानियों को जाना, तो वे उनकी मदद के लिए आगे आए। उन्होंने ऐसे मरीजों के लिए मुफ्त चिकित्सा शिविर लगाना शुरू कर दिया। उन्होंने कहा, “कटे होंठ वाले बच्चे आर्थिक, सामाजिक और शारीरिक सभी तरह की मुश्किलें झेलते हैं। प्लास्टिक सर्जन होने के नाते मैं उनकी मदद कर सकता था।”

इन बच्चों को स्तनपान कराने में मुश्किल होती है। डॉ सुबोध बताते हैं, “ये बच्चे आवश्यकतानुसार दूध नहीं पी सकते हैं। जिसकी वजह से उनमें से कई तो कुपोषण के कारण मर जाते हैं या फिर उनकी ग्रोथ रुक जाती है। बच्चों को ढंग से बोलने में तकलीफ होती है। कई बार इससे कान में भी संक्रमण हो जाता है।

ऐसे बच्चों को माना जाता है अपशगुन

Dr Subodh with former president Dr APJ Abdul Kalam

आसान शब्दों में समझाते हुए सुबोध (Dr Subodh Kumar Singh) कहते हैं, “गले और नाक के बीच एक पाइप, हवा के दबाव को नियंत्रित करने के लिए जिम्मेदार होती है। क्लेफ्ट प्लेट में डिफेक्ट से यह प्रभावित होती है, जिससे कान में संक्रमण हो जाता है। अक्सर कान में छेद होने या आंशिक बहरापन की संभावना बढ़ जाती है।”

उनके अनुसार, कटे होंठ वाले बच्चों को सामाजिक प्रताड़ना का भी शिकार होना पड़ता है। ये बच्चे अक्सर दूसरों के भेदभावपूर्ण रवैये से तंग आकर स्कूल छोड़ देते हैं। उन्हें नौकरी ढूंढने और पाने में काफी मुश्किलें आती हैं। कई जगहों पर तो अंधविश्वास के चलते बच्चों की इस दशा के लिए मां को जिम्मेदार ठहराया जाता है। उसे अपशगुन माना जाता है। माता-पिता पर इसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है। लेकिन सर्जरी इन सभी समस्याओं से निजात दिला सकती है।

अब तक 37 हजार बच्चों की फ्री सर्जरी 

डॉ. सुबोध ने साल 2004 से ऐसे बच्चों की फ्री सर्जरी करनी शुरू की थी। तब से लेकर अब तक वह 37,000 बच्चों और 25,000 परिवारों को इसका लाभ पहुंचा चुके हैं। उनके इस काम से प्रभावित होकर पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, झारखंड, बिहार, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और अन्य राज्यों के डॉक्टरों ने भी ऐसा करना शुरू कर दिया है।

पश्चिम बंगाल के रहनेवाले अनुज दास के छोटे भाई का जन्म साल 2010 में कटे होंठ के साथ हुआ था। वह तब से कई तरह की सेहत संबंधी परेशानियों से जूझ रहा था। अनुज बताते हैं, “मुझे क्लेफ्ट के लिए फ्री कैंप के बारे में पता चला। हम वहां गए और इलाज कराया। मेरे भाई की नाक, तालू, होंठ और मुंह के अन्य हिस्सों की सात सर्जरी हो चुकी हैं। उसके बोलने के लहज़े और चेहरे पर काफी असर पड़ा है।”

डॉ. सुबोध (Dr Subodh Kumar Singh) के काम को देखते हुए अमेरिका के एक गैर सरकारी संगठन ‘स्माइल ट्रेन’ ने उनके साथ हाथ मिलाया। यह संस्थान क्लेफ्ट प्लेट की सर्जरी करने में मदद करता है।

डॉ. सुबोध बताते हैं, “मैं और अन्य डॉक्टर, सर्जरी करते हैं जबकि एनजीओ इस पर होने वाले खर्च का भार उठाता है। हमने स्माइल ट्रेन के सहयोग से कई अस्पतालों में मुफ्त सर्जरी की है। भारत में अभी तक दुनिया की सबसे अधिक, 60 लाख से ज्यादा ऐसी सर्जरी हो चुकी हैं।”

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कितनी मुश्किल होती है सर्जरी?

अपने काम करने के ढंग के बारे में बताते हुए डॉ सुबोध (Dr Subodh Kumar Singh) कहते हैं, “पहले क्लेफ्ट के लिए बच्चों की जांच की जाती है और फिर उसी के आधार पर सर्जरी की जाती है। इस बीच डाइटीशियन, बच्चे और मां को सही खान-पान की सलाह देते रहते हैं। इलाज के दौरान दो बातों का खास ख्याल रखा जाता है। एक यह कि सर्जरी ठीक ढंग से हो और दूसरी यह कि बच्चों को इससे फायदा हो रहा है या नहीं। इसके लिए बच्चे का वजन और अहार चार्ट बनाया जाता है।”

बच्चे को पोषक तत्वों की खुराक पाउडर के रूप में दी जाती है। कृत्रिम निपल्स या कटोरे से उन्हें खिलाया जाता है। वह दावा करते हैं कि ये प्रयास बच्चों का जीवन बचा व सुधार रहे हैं। चुनौतियों के बारे में बात करते हुए डॉ सुबोध कहते हैं, “सर्जरी करना कोई मुश्किल काम नहीं है, क्योंकि सर्जन अनुभव के साथ और बेहतर होता जाता है। हालांकि समस्या की जटिलताओं को समझने और उन्हें ठीक करने में सावधानी बरतनी होती है।” उनके अनुसार, इस दौरान स्पीच थेरेपी और अन्य मेडिकल सहायता के साथ हर समय बेहतर देखभाल की जरूरत होती है।

सुबोध ने कटे होंठ की सर्जरी को ठीक करने के लिए एक राष्ट्रीय केंद्र स्थापित करने की योजना बनाई है। वह कहते हैं, “काफी लंबे समय से मेरा सपना है कि मैं फटे होंठ की सर्जरी के लिए दुनिया का बेहतरीन केंद्र शुरू करूं।” 

‘गरीब होना कोई अपराध नहीं’ 

डॉ. सुबोध ने बताया, “मैं अपने साथ ऐसे डॉक्टरों को शामिल करना चाहता हूं, जिनकी पृष्ठभूमि आर्थिक रूप से मजबूत नहीं है। बहुत से छात्र नौकरी के लिए मुझसे संपर्क करते हैं, जो गरीब किसान हैं या जिनके पिता रिक्शा चलाते हैं या फिर मजदूरी करते हैं। मैं उनसे कहता हूं कि गरीब होना कोई शर्म की बात नहीं है और यह कोई अपराध नहीं है। मैं उनके साथ अपनी कहानी साझा करता हूं और उन्हें विश्वास दिलाता हूं कि कड़ी मेहनत और ईमानदारी से किए गए प्रयास उन्हें इस स्थिति से बाहर निकाल सकते हैं और मैं यह बात पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ, क्योंकि मैं उस रास्ते से गुजर चुका हूं।”

डॉ. सुबोध (Dr Subodh Kumar Singh) ने कहा, “मैं कई लोगों के जीवन को बदलने के लायक बन पाया, इसके लिए मैं गर्व महसूस करता हूं। क्लेफ्ट सर्जरी एक व्यक्ति और उसके परिवार के अलावा और भी कई लोगों के जीवन पर सकारात्मक प्रभाव डालती है। बच्चे की सर्जरी के बाद एक बहू को स्वीकार करने, उसे दोषी न ठहराने और परिवार को फिर से एक करने से ज्यादा खुशी मुझे ओर कोई चीज़ नहीं दे सकती है।”

मूल लेखः हिमांशु नित्नावरे

संपादनः अर्चना दुबे

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