समानता, सम्मान और शिक्षा जैसी मूलभूत सुविधाओं पर हर इंसान का अधिकार है। लेकिन क्या सच में ये अधिकार सबको मिल पाते हैं? आज भी कई ऐसे बच्चे हैं, जिन्होंने स्कूल की सीढ़ियां कभी नहीं चढ़ी। ऐसे बच्चे, सड़क किनारे ही अपना पूरा जीवन बिता देते हैं। देश में शिक्षा से जुड़ी कई नीतियों और नियम-कानून के होते हुए भी, ये बच्चे शिक्षा के अधिकार से वंचित रह जाते हैं। ऐसे ही 42 बच्चों की शिक्षा का बीड़ा उठाया है ‘स्नेहग्राम’ विद्यालय ने।
12 साल का सचिन शिक्षा के अधिकार से वंचित रह जाता, अगर उसकी मौसी उसे ‘स्नेहग्राम’ में न लाती। उनके माता-पिता को शायद अपना नाम लिखना भी न आता हो, लेकिन आज सचिन यहां सबसे होशियार बच्चों में से एक है।
द बेटर इंडिया से बात करते हुए सचिन कहता है, “मैं छह साल की उम्र में यहां आया था। इसके पहले मैंने स्कूल कभी नहीं देखा था। मेरे माता-पिता सड़क किनारे फूल बेचने का काम करते हैं। मैं बड़ा होकर अच्छा काम करना चाहता हूं।”
सचिन ‘स्नेहग्राम’ में रहकर अभी छठी कक्षा में पढ़ रहा है। वह जब यहां आया था, तब वह एक अक्षर भी बोल या लिख नहीं पाता था, लेकिन आज वह दूसरे बच्चों को भी पढ़ाता है।
क्या है ‘स्नेहग्राम’
साल 2015 में बार्शी, महाराष्ट्र के एक शिक्षक दंपति, महेश और विनया निम्बालकर ने ‘स्नेहग्राम’ स्थापना की थी। हालांकि, इस संस्थान की स्थापना से पहले ये दोनों एक सरकारी स्कूल में पढ़ाया करते थे। लेकिन कहते हैं न, कभी एक छोटी सी घटना की वजह से इंसान के जीवन में बड़े बदलाव आ जाते हैं। ऐसा ही कुछ इनके साथ भी हुआ। आज ये दोनों अपनी-अपनी नौकरी छोड़कर, जरूरतमंद बच्चों को मुफ्त में शिक्षा दे रहे हैं।
इस दंपति ने ‘स्नेहग्राम’ शुरू करने के लिए अपने जीवन की सारी जमा-पूंजी लगा दी। आज यह स्कूल, आस-पास के गांव के लोगों की मदद से चल रहा है।
द बेटर इंडिया से बात करते हुए विनया कहती हैं, “मेरा जन्म एक संपन्न परिवार में हुआ था, लेकिन मेरे पिता ने व्यापार में सब कुछ गंवा दिया। मेरी माँ चाहती थीं कि मेरी शादी सरकारी नौकरी करने वाले इंसान से ही हो। मेरे पति की सरकारी नौकरी के आधार पर ही, हमारी शादी हुई थी। लेकिन आज हम दोनों नौकरी छोड़कर, इस सामाजिक काम में जुड़ चुके हैं।”
जीवन में आए इस बदलाव की कहानी
सरकारी स्कूल की शिक्षा नीति के अनुसार, जून के महीने में शिक्षकों को अपने गांव में सर्वे कराना होता है और इसके आधार पर बच्चों को स्कूल में दाखिला दिलाना होता है। ताकि कोई भी बच्चा शिक्षा से वंचित न रह जाए।
साल 2007 में महेश और विनया किसी काम के लिए लातूर जा रहे थे। तभी उन्होंने देखा कि बार्शी शहर से तक़रीबन तीन किलोमीटर दूर एक बस्ती में 100 बच्चे स्कूल नहीं जा रहे हैं। हालांकि, महेश माडा गांव में पढ़ाते थे लेकिन उन्होंने बार्शी की नगरपालिका के कई स्कूलों तक इन बच्चों की जानकारी दी। बड़ी मुश्किलों के बाद, उन्होंने इन बच्चों का दाखिला स्कूल में कराया। पर, बच्चों के माता पिता उन्हें स्कूल भेजने को तैयार नहीं थे। यहाँ तक कि, गांव के एक बुजुर्ग ने उनसे बच्चों को स्कूल भेजने के लिए पैसे भी मांगे।
जिसके बाद गुस्से में महेश ने उनसे कह दिया कि ‘अब इन बच्चों को घर आकर ही पढ़ाना बाकी रह गया है।’ लेकिन उनके मन में इन बच्चों को शिक्षा से जोड़ने का जूनून था। महेश ने तब से शनिवार-रविवार को बच्चों को बस्ती में आकर पढ़ाना शुरू किया।
उस दौरान, विनया जलगांव के एक स्कूल में पढ़ाया करतीं थीं। साल 2008 में अपने पति का साथ देने के लिए, वह नौकरी छोड़कर बार्शी आ गयीं। विनया कहती हैं, “चूंकि हम दोनों एक दूसरे से दूर रह रहे थे, इसलिए वह शनिवार-रविवार मुझसे और बच्चों से मिलने आया करते थे। लेकिन बस्ती के बच्चों को पढ़ाना शुरू करने के बाद, उन्हें वह समय भी नहीं मिल पाता था। तब मैंने नौकरी छोड़कर, उनका साथ देने का फैसला किया।”
महेश ने 2007 से 2014 तक बच्चों को बस्ती में जाकर पढ़ाया।
‘स्नेहग्राम’ की शुरुआत के बारे महेश कहते हैं, “जब मैं बच्चों को पढ़ाता था, तब इनके माता-पिता आए दिन बच्चों को जरिया बनाकर ,अपनी जरूरत का सामान मुझसे मांगते रहते थे। तभी मुझे लगा कि मेरा मुख्य टारगेट बच्चों को आगे बढ़ाना था। अगर मैं माता-पिता की जरूरतों में उलझ गया, तो बच्चों के लिए कुछ नहीं कर पाऊंगा। तभी मैंने बच्चों को परिवार से दूर, अपने पास रखने का फैसला किया।”
‘स्नेहग्राम’ को शुरू करने में आई कई चुनौतियां
उन्होंने शैक्षणिक सत्र 2014-15 में सोलापुर के ही खांडवी गांव में किराए पर एक जगह लेकर, स्कूल की शुरुआत की। उस वक्त स्कूल में 25 बच्चे थे। एक साल बाद, उन्हें वहां किराया बढ़ाने को कहा गया जो उस समय उनके बस की बात नहीं थी।
इसलिए उन्होंने 2016 में, शिक्षक संघ से लोन लेकर और अपनी पत्नी के कुछ गहने बेचकर कोरफले गांव में तीन एकड़ जमीन खरीदी। वह उस जमीन पर बच्चों के लिए एक कमरा बनाना चाहते थे।
यह दौर महेश और विनया के लिए काफी मुश्किल से भरा था। क्योंकि उसी समय गांव के एक निजी स्कूल ने माइनॉरिटी कोटा के तहत, उनके स्कूल के सभी 25 बच्चों को एडमिशन दे दिया। महेश कहते हैं, “जिन बच्चों के लिए मैंने अपनी नौकरी छोड़ी, अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया, वे सारे बच्चे ही अब हमारे पास नहीं रहे। यह मेरे लिए एक बड़ा धक्का था।”
पर वह कहते हैं न, अच्छे काम का नतीजा अच्छा ही होता हैं। महेश की मुलाकात पुणे के एक संगठन ‘आनंदवन’ के विकास आमटे से हुई। महेश की समस्या को देखते हुए, उन्होंने ‘स्नेहग्राम’ के लिए टिन-शेड के पांच कमरे बनाने का निश्चय किया।
इस मदद को विनया और महेश अपनी खुशकिस्मती मानते हैं। ‘स्नेहग्राम’ में कमरे बनने के बाद, साल सत्र 2017-2018 में जितने बच्चे चले गए थे, उससे दुगुने बच्चों ने ‘स्नेहग्राम’ में एडमिशन लिया। निजी स्कूल में गए सारे बच्चे भी, एक साल बाद ही स्नेहग्राम में वापस आ गए।
बच्चे खुद करते हैं ‘स्नेहग्राम’ का प्रबंधन
स्नेहग्राम में रहने वाले बच्चों को शिक्षा के साथ, कई तरह की वोकेशनल ट्रेनिंग भी दी जाती है। विनया बच्चों को खाना बनाने से लेकर सफाई करना और राशन के लिए बजट तैयार करना, जैसे कई काम सिखाती हैं।
वह कहती हैं, “शुरुआत में जब स्नेहग्राम की जिम्मेदारी मुझपर आई तो मुझे अपने पति पर बहुत गुस्सा भी आता था, क्योंकि इन बच्चों को पढ़ाना बिल्कुल भी आसान काम नहीं था। लेकिन मेरे पास कुछ किताबें थीं, जो आदर्श शिक्षकों के ऊपर लिखी हुई थीं। उन किताबों ने मेरी बहुत मदद की। जिसके बाद मैंने देखा कि इन बच्चों का, किताबी ज्ञान लेने के बजाय प्रयोगिक तरीके से सीखना ज्यादा जरूरी है। और मात्र एक साल में बच्चे काफी बदल गए।”
महेश और विनया बच्चों को यहां बैंकिंग से लेकर, न्यायपालिका जैसे सभी काम सिखाते हैं। यह एक छोटे गांव के तर्ज पर है, जहां का सरपंच भी बच्चा है और गलती करने पर सजा भी बच्चे ही तय करते हैं। ‘स्नेहग्राम’ में छह साल से 14 साल तक के बच्चे पढ़ रहे हैं। इन बच्चों के भोजन और स्टेशनरी जैसी सारी जरूरतें सामुदायिक सहायता से पूरी होती हैं। आस-पास के गांव से कई लोग, समय-समय पर राशन और सब्जियां आदि देते रहते हैं।
‘स्नेहग्राम’ में अभी विनया और महेश, दो शिक्षक ही हैं। विनया कहती हैं, “हमने एक दो बार कुछ शिक्षकों को रखने का प्रयास किया। लेकिन सुविधा और पैसे के अभाव में कोई भी यहां आने को तैयार नहीं हुआ। हमारे पास टिन के पांच कमरे हैं, जिनमें से दो क्लासरूम हैं, जिसका उपयोग रात में सोने के लिए होता है। इसके अलावा एक स्टोर रूम है, एक रसोई घर और एक ऑफिस है।”
‘स्नेहग्राम’ की तीन एकड़ जमीन में बच्चों के साथ मिलकर विनया ने लगभग 1000 पौधे भी लगाए हैं। पिछले साल कोरोना के सरकारी नियमों के कारण स्कूल बंद हो गया था। वहीं अब फिर से यहां 15 बच्चे आ गए हैं। महेश और विनया फिलहाल बच्चों के लिए 1020 स्क्वायर फीट का एक पक्का मकान बना रहे हैं।
बार्शी के एक सिविल इंजीनियर अभिजीत कुलकर्णी ने उन्हें एक कमरे के लिए तक़रीबन 12 लाख का बजट तैयार करके दिया है। महेश कहते हैं, ” फंड की कमी के कारण फिलहाल हमारा काम रुका हुआ है। लेकिन हमें उम्मीद है कि लोग सहायता के लिए आगे आएंगे।”
यदि आप ‘स्नेहग्राम’ की आर्थिक मदद करना चाहते हैं, तो इस लिंक पर डोनेट कर सकते हैं – https://milaap.org/fundraisers/support-snehgram-school
आप महेश निम्बालकर से 9822897382 पर संपर्क कर सकते हैं।
संपादन- जी एन झा
यह भी पढ़ें – जहां नहीं पहुंच पाता इंटरनेट, वहां इस शिक्षक ने पूरे गाँव को ही बना दिया स्कूल
यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है, या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ साझा करना चाहते हो, तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखें, या Facebook और Twitter पर संपर्क करें।