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‘द ग्रेट ओल्ड मैन ऑफ़ इंडिया’ : ब्रिटिश संसद में चुनाव जीतकर लड़ी थी भारत के हित की लड़ाई!

दादा भाई नौरोजी- ‘द ग्रेट ओल्ड मैन ऑफ़ इंडिया,’ या फिर कहें कि ‘द अनऑफिसियल एम्बेसडर ऑफ़ इंडिया’- भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापनाकर्ताओं में से एक।

ब्रिटिश शासन के जिस दौर में, बहुत ही कम भारतीयों को अंग्रेजी अफ़सर इज्ज़त देते थे, उस दौर में दादाभाई नौरोजी ने ब्रिटिश पार्लियामेंट के ‘हाउस ऑफ़ कॉमन्स’ में एक अंग्रेज़ के खिलाफ़ चुनाव जीतकर इतिहास रच दिया। गुजरात में एक पारसी परिवार से संबंध रखने वाले एक शिक्षक, एक व्यवसायी, और फिर एक राजनेता, जिन्होंने जहाँ भी काम किया, हमेशा सफलता ही पाई।

4 नवंबर 1825 को ब्रिटिश भारत में बॉम्बे प्रान्त के नवसारी (अब गुजरात में) में जन्मे दादाभाई नौरोजी साल 1855 में बॉम्बे से लंदन गये। यहाँ पर उन्होंने कामा एंड कंपनी की लंदन शाखा में मैनेजर के तौर पर नौकरी शुरू की। इससे पहले वे बॉम्बे में एलफिन्स्टन संस्थान (अब कॉलेज) में बतौर शिक्षक कार्यरत थे और यहाँ पढ़ाने के लिए अपॉइंट होने वाले पहले भारतीय थे।

उन्होंने कई बार नौकरी बदली, लेकिन जिस भी क्षेत्र में रहे, वहां बेहतर काम ही किया। इसके बाद उन्होंने अपनी एक कॉटन ट्रेड कंपनी खोली- दादाभाई नौरोजी एंड कंपनी!

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अपना व्यवसाय शुरू करने के बाद भी उनका पढ़ाने के लिए जुनून कम नहीं हुआ। इसीलिए तो जब लंदन के यूनिवर्सिटी कॉलेज से उन्हें वहां गुजराती पढ़ाने के लिए बुलाया गया, तो उन्हें बेहद ख़ुशी हुई। वैसे तो यह उनकी कामयाबियों की बस एक शुरुआत थी।

अपने शिक्षक के कार्य और व्यवसाय को सँभालते हुए भी वे अक्सर कुछ न कुछ पढ़ने के लिए वक़्त निकाल ही लेते थे।और इसी क्रम में उन्होंने भारत पर ब्रिटिश राज्य के आर्थिक प्रभाव के बारे में पढ़ा।

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और उन्होंने जो कुछ भी पढ़ा, वह बहुत ही हैरान कर देने वाला था। साल 1967 में उनकी ‘इकॉनोमिक ड्रेन थ्योरी‘ प्रकाशित हुई, जिसके अनुसार भारत के आर्थिक राजस्व (रेवेन्यु) का एक चौथाई ब्रिटिश लोगों के पास जाता है और इसलिए हर साल भारत का आर्थिक स्तर नीचे गिर जाता है।

बेशक इस तरह के मुद्दे आम लोगों की नज़रों में नहीं आते थे। पर दादाभाई नौरोजी न सिर्फ़ इस विषय में जानना चाहते थे, बल्कि ब्रिटिश पार्लियामेंट से सवाल करते हुए, उनकी आलोचना भी करना चाहते थे और इसका एक ही तरीका था- ब्रिटिश संसद में एक भारतीय प्रतिनिधि का होना।

और इसलिए उन्होंने साल 1885 में ईस्ट इंडिया एसोसिएशन (जो 1867 में बनी थी) और इंडियन नेशनल एसोसिएशन को मिलाकर, ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ की स्थापना की।

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इस पार्टी ने वादा किया कि यह भारतीयों द्वारा झेले जा रहे अत्याचारों को न सिर्फ़ भारतीय मिट्टी पर बल्कि ब्रिटिश धरती पर भी पूरे जोर के साथ सबके सामने रखेगी।

दादाभाई नौरोजी के लिए सिर्फ़ इतना काफ़ी नहीं था। उन्हें पता था कि यदि सही मायनों में भारतीयों को पहचान चाहिए तो किसी भारतीय को ब्रिटिश संसद का हिस्सा बनना होगा। 1885 में उन्होंने लिखा था, “हमारी मुख्य लड़ाई हमें संसद (लंदन) में लड़नी होगी।”

1886 में ब्रिटिश संसद के चुनाव होने वाले थे और दादाभाई ने इसे लड़ने के लिए से एक मौके का इस्तेमाल किया।

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दादाभाई नौरोजी को कई जाने-माने ब्रिटिश लोग जैसे कि फ्लोरेंस नाईटेंग्ल ने समर्थन दिया, लेकिन फिर भी वह ये इलेक्शन हार गये। उन्हें सिर्फ़ 1950 वोट मिलें, जबकि उनके विरोधी को 3651 वोट!

लार्ड सेलिस्बरी (तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री) ने उस समय अपनी रंगभेदी सोच को ज़ाहिर करते हुए सार्वजनिक तौर पर कहा कि अभी हम इसके लिए तैयार नहीं है। उन्होंने कहा, “बेशक मानवता ने बहुत तरक्की की है और बेशक हम रुढ़िवादी विचारों से आगे बढ़े हैं, पर फिर भी मुझे संदेह है कि हमारा नज़रिया यहाँ तक पहुंचा है कि एक इंग्लिश कोंस्टीटूएंसी किसी ‘ब्लैक'(काले) आदमी को चुने।”

बाएं: नौरोजी; दाएं: सेलिस्बरी

इस रंगभेदी टिप्पणी को ब्रिटिश लिबरल और मीडिया द्वारा आम लोगों के सामने रखा गया। जिससे इस भारतीय के ‘कालेपन‘ की चर्चा ब्रिटेन में उग्र विषय बन गयी और जल्द ही, ब्रितानियों के लिए दादाभाई नौरोजी एक दिलचस्प आदमी बन गए।

अगले छह वर्षों में, दादाभाई ने ब्रिटिश उदारवादियों से समर्थन हासिल करने के भरपूर प्रयास किये- खासकर, उन लोगों से जो रूढ़िवादी प्रधानमंत्री का विरोध करते थे। उन्हें सेंट्रल फिन्सबरी (मजदूर वर्ग का निर्वाचन क्षेत्र) से चुनाव लड़ना था, जिसके क्षेत्र में सेंट्रल लंदन में क्लेरकेनवेल जिला भी था।

इस बार, दादाभाई को बड़ौदा के महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ जैसे शक्तिशाली और प्रभावशाली लोगों और मुहम्मद अली जिन्ना और चित्तरंजन दास जैसे युवा छात्रों का समर्थन भी प्राप्त था।

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जैसे कि दादाभाई नौरोजी यहां पर भारतीयों के मुद्दों को सबके सामने रख रहे थे, तो गाँधी जी ने उन्हें एक पत्र लिखा और कहा, “भारतीय आपको ऐसे देखते हैं जैसे बच्चे पिता को। यहां वास्तव में यही भावना है।”

उन्होंने फिर से 1892 में चुनाव लड़ा और तीन वोट से जीत गए। इस बार पर लार्ड सेलिस्बरी को यकीन नहीं हुआ और उन्होंने फिर से वोट गिनने के लिए कहा कि कहीं कोई गलती है। और वाक़ई गलती हुई थी क्योंकि दादाभाई 3 नहीं बल्कि 5 वोट से जीते थे!

इस जीत के साथ ही, वे पहले एशियाई और पहले भारतीय मिले, जिसे ब्रिटिश संसद में सदस्य के तौर पर जगह मिली थी। उनकी जीत कुछ लोगों के लिए ख़ुशी की बात थी तो कुछ को निराशा भी हुई। उनको लेकर बाद में भी काफी टिप्पणी हुईं पर अब नौरोजी रुकने वाले नहीं थे।

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ब्रिटिश संसद में अपने पहले भाषण में उन्होंने कहा कि वे जानते हैं कि उन्हें ब्रिटिश संसद में आये हुए इतना भी वक़्त नहीं बीता है कि वे यहां खड़े होकर लोगों को सम्बोधित करें। पर यहां ब्रिटिश संसद में प्रतिनिधि के रूप में खड़े होने की उनकी इच्छा नहीं बल्कि ज़रूरत है। और निश्चित तौर पर यह चुनाव, भारत और ब्रिटेन, दोनों ही देशों के लिए ऐतिहासिक है।

इसके साथ ही, उन्होंने अपने भाषण में यह भी स्पष्ट कर दिया कि भारतीयों के हितों के बारे में बात करने से वे कभी भी नहीं चुकेंगें और उन्हें ब्रिटिश संसद की पारदर्शिता और न्यायप्रियता पर पूरा भरोसा है।

यहां पर उन्होंने सबसे पहला साहसिक कदम यह उठाया कि बाइबिल पर शपथ लेने कि बजाय उन्होंने पारसी धार्मिक ग्रन्थ- ज़न्द अवेस्ता पर हाथ रखकर अपनी सदस्यता की शपथ ली।

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अपने कार्यकाल में लिबरल पार्टी (जिससे उन्होंने इलेक्शन लड़ा) के सिद्धांतों पर चलते हुए उन्होंने न सिर्फ भारतीयों के हितों को, बल्कि महिलाओं के मुद्दों को भी उठाया। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में मज़दूरों के साथ हो रहे अत्याचार के मुद्दे को भी उठाया।

सुमिता मुखर्जी ने ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी हिस्ट्री सोसायटी की जर्नल के लिए लिखा, “उन्होंने मुफ्त शिक्षा और फैक्ट्री अधिनियमों के विस्तार जैसे उपायों का प्रस्ताव दिया, 1892 में आयरलैंड के लिए होम रूल का समर्थन किया और साथ ही भारत में सुधारों के लिए भी बात की, खासकर कि भारतीय प्रशासनिक सेवा और विधान परिषदों में।”

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इस “ग्रैंड ओल्ड मैन ऑफ इंडियन नेशनलिज्म” ने हमेशा ही ज़रूरी मुद्दों पर अपनी आवाज़ बुलंद की। अपने कार्यों के लिए उन्हें ब्रिटेन और भारत, दोनों जगह सम्मान मिला।

उनके लिए बाल गंगाधर तिलक ने लिखा, “अगर हम 28 करोड़ भारतीयों को ब्रिटिश संसद में सिर्फ एक व्यक्ति को भेजने का मौका मिलता, तो इसमें कोई संदेह नहीं कि हम सभी सर्वसम्मति से दादाभाई नौरोजी को उस पद के लिए चुनते।”

93 साल की उम्र में 30 जून 1917 को दादाभाई नौरोजी ने बॉम्बे में आखिरी साँस ली। उनके जाने के इतने साल बाद भी, हम भारतीय कभी उन्हें और उनके योगदान को नहीं भूल सकते हैं। द बेटर इंडिया, भारत के इस अनमोल रत्न को सलाम करता है!

मूल लेख: तन्वी पटेल

संपादन – मानबी कटोच 


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