दुर्गाबाई देशमुख: संविधान के निर्माण में जिसने उठाई थी स्त्रियों के लिए सम्पत्ति के अधिकार की आवाज़!

दुर्गाबाई देशमुख, एक महान भारतीय स्वतंत्रता सेनानी, जिन्होंने न सिर्फ़ देश की सेवा की, बल्कि कानून की पढ़ाई कर महिलाओं के अधिकारों के लिए आवाज़ उठाई। साल 1946 में गठित हुई संविधान सभा का वे अभिन्न अंग थीं। इसके अलावा उन्हें भारत में 'सामाजिक कार्यों की जननी' कहा जाता है।

दुर्गाबाई देशमुख, एक महान भारतीय स्वतंत्रता सेनानी, जिन्होंने न सिर्फ़ देश की सेवा की, बल्कि कानून की पढ़ाई कर महिलाओं के अधिकारों के लिए आवाज़ भी उठाई।

मात्र 8 साल की उम्र में उनकी शादी एक जमींदार से कर दी गयी थी। लेकिन यह दुर्गाबाई का साहस ही था कि गृहस्थ जीवन शुरू करने से पहले ही, 15 साल की उम्र में उन्होंने इस शादी को खत्म कर दिया। उनके इस फ़ैसले में उनके पिता और भाई ने उनका साथ दिया। खुद को बाल विवाह से आज़ाद कर, दुर्गाबाई ने अपने आने वाले जीवन की नींव रख दी थी। इसके बाद उन्होंने न सिर्फ़ स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई; बल्कि भारतीय संविधान के निर्माण में भी अपना योगदान दिया और ताउम्र महिलाओं के हितों की रक्षा के लिए तत्पर रहीं।

राजमुंदरी के तटीय आंध्र प्रदेश शहर (तत्कालीन) में 15 जुलाई, 1909 को सामाजिक कार्यकर्ता बीवीएन रामा राव और उनकी पत्नी कृष्णावनम्मा के यहाँ जन्मी, दुर्गाबाई की परवरिश काकीनाड़ा में हुई थी। परिवार की आर्थिक स्थिति कमजोर होने के बावजूद, उन पर अपने पिता की निःस्वार्थ सामाजिक सेवा की भावना का गहरा प्रभाव पड़ा। अपनी आत्मकथा, ‘चिंतामन और मैं,’ में उन्होंने अपने जीवन में हुई एक घटना का मार्मिक चित्रण करते हुए लिखा,

“उन दिनों शहर में प्लेग और हैजा जैसे बीमारियाँ फैली हुईं थीं। इस बीमारी से जूझ रहे लोगों की मदद करने से वे कभी भी पीछे नहीं हटे। उन्होंने सैकड़ों बीमार लोगों की मदद की। बहुत बार तो वे मुझे भी अपने साथ ले जाते थे। वहां कुछ इन बिमारियों के चलते मरने वाले लोगों का शव उठाकर लेकर जाते थे, क्योंकि एम्बुलेंस का तो कोई पता ही नहीं था। उस समय, काकीनाड़ा में जैसे सन्नाटा फ़ैल गया था। पर फिर भी पिता जी, माँ के साथ मुझे और मेरे छोटे भाई, नारायण राव को चर्च, मस्जिद, घाट आदि पर ले जाते और दिखाते कि कैसे मरने वाले लोगों का अंतिम संस्कार किया जा रहा है, ताकि हम मौत जैसी भयानक सच्चाई से डरे नहीं।”

आगे वे लिखती हैं कि उनके पिता की ‘एकमात्र गलती’ उनकी कम उम्र में शादी कर देना थी।

महात्मा गाँधी से प्रभावित दुर्गाबाई ने जल्द ही खुद को पूरी तरह से स्वतंत्रता संग्राम में झोंक दिया। साल 1921 में जब गाँधी जी के एक आयोजन के लिए आंध्र प्रदेश आने की ख़बर उन्होंने सुनी, तो 12 साल की दुर्गाबाई ने ठान लिया कि वे  यहाँ की स्थानीय देवदासी और मुस्लिम समुदाय की महिलाओं की भेंट गाँधी जी से करवाएंगी।

उस वक़्त, जो लोग इस आयोजन को संभाल रहे थे, उन्होंने दुर्गाबाई और उनकी देवदासी-मुस्लिम महिलाओं के समूह से 5, 000 रूपये मांगें। उन्हें लगा नहीं था कि दुर्गा बाई इतने पैसे इकट्ठे कर पाएंगी। पर दुर्गाबाई ने  गाँधी जी को उनकी आज़ादी की लड़ाई के लिए दान के लिए कुछ पैसे जोड़ रखे थे। अपने लक्ष्य पर अडिग रहते हुए, दुर्गाबाई ने अपनी देवदासी साथियों के साथ मिलकर पांच हज़ार रूपये इकट्ठा किये और साथ ही, गिरफ्तार होने की आशंका के बावजूद उन्होंने आयोजन के लिए जगह भी किराए पर ली।

दुर्गाबाई देशमुख (फोटो साभार)

गाँधी जी के दौरे के बाद, उनके पूरे परिवार ने हर तरह की विदेशी वस्तुओं का त्याग कर स्वदेशी को अपनाया। वे सभी हाथ से बनीं खादी पर निर्भर करते थे। साथ ही, दुर्गाबाई ने स्कूल छोड़ने का फ़ैसला किया क्योंकि यहाँ बच्चों पर अंग्रेजी भाषा थोपी जा रही थी। यह सब तब हुआ, जब असहयोग आंदोलन अपने चरम पर था।

इसके लगभग 9 साल बाद, स्वतंत्रता सेनानी टी. प्रकाशम के गिरफ्तार होने के बाद, उन्होंने मद्रास में नमक सत्याग्रह की बागडोर संभाल ली। लेकिन, फिर उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया और उन्होंने तीन साल (1930-33) कारावास में बिताये। उन्हें एक साल के लिए एकांत कारावास में भी रखा गया।

जेल में बिताये इन वर्षों के दौरान महिलाओं के प्रति हो रहे अपराधों और अत्याचारों के बारे में उन्हें पता चला। उन्हें ज्ञात हुआ कि किस तरह बहुत सी अशिक्षित महिलाओं को बिना किसी अपराध के भी सजा काटनी पड़ रही है, क्योंकि कोई भी उनके हित के लिए आवाज़ उठाने वाला नहीं है। इस अन्याय के प्रति उनके मन में जो रोष उत्पन्न हुआ, उससे ही उन्हें भविष्य में एक वकील बनने की और शिक्षा के द्वारा देश की महिलाओं की स्थिति सुधारने की प्रेरणा मिली।

उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा, “यह वह वक़्त था जब मैंने कानून की पढ़ाई करने की ठानी, ताकि मैं इन महिलाओं को मुफ़्त में क़ानूनी मदद दे पाऊं और साथ ही, उन्हें खुद के लिए लड़ने में मदद करूँ।”

अपनी सजा काटने के बाद, उन्होंने अपना ध्यान राजनीति से हटाकर अपनी पढ़ाई पर लगाया। उन्होंने कानून की पढ़ाई की और साल 1942 में, जब ‘भारत छोड़ों आंदोलन’ पूरे जोर पर था, उन्हें मद्रास वकील संघ में नियुक्ति मिल गयी।

(बाएं से) प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, पश्चिम बंगाल के राज्यपाल डॉ. एसी मुखर्जी, श्रीमती दुर्गाबाई देशमुख, वित्त मंत्री (और पति) सी.डी. देशमुख और बी.सी. रे, पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री। (स्रोत)

लगभग उसी समय, उन्होंने विधवा, असहाय और अनाथ महिलाओं के लिए साक्षरता कार्यक्रम की भी शुरुआत की और उन्हें हाई स्कूल पास करने में मदद की। इसी तरह के अभियानों में उन्होंने ‘आंध्र महिला सभा’ की स्थापना की, जो आज भी बहुत प्रसिद्द है। यह महिलाओं के लिए एक स्वयंसेवी संगठन है, जो स्वास्थ्य, विकलांगता, पुनर्वास, कानूनी सहायता, और वृद्ध महिलाओं की मदद करती है।

समाज सुधार के कार्यों में उनकी लगातार भागीदारी और साथ ही, निर्दोष लोगों के हितों के लिए लड़ने वाली वकील के रूप में उनका करियर ऊंचाई पर जा रहा था और इसी सबको देखते हुए साल 1946 में उन्हें संविधान सभा का हिस्सा बनाया गया।

सञ्चालन समिति की सदस्य होने के नाते, संविधान सभा की बहसों में उन्होंने मुखर रूप से हिन्दू कोड बिल के तहत महिलाओं के लिए संपत्ति के अधिकार की पैरवी की। इसके अलावा उन्होंने न्यायपालिका की स्वतंत्रता, हिन्दुस्तानी (हिंदी और उर्दू भाषा का मिश्रण) भाषा का राष्ट्रभाषा के तौर पर चयन और राज्य परिषद की सीट के लिए उम्र सीमा 35 साल से कम करके 30 साल करने का भी समर्थन किया।

फोटो साभार

8 अप्रैल, 1948 को हिंदू कोड बिल के तहत महिलाओं के लिए संपत्ति के अधिकार के विषय पर, उन्होंने महिलाओं को संपत्ति में समानाधिकार देने की पुरजोर पैरवी की!

इसी बीच, एक स्वतंत्र न्यायपालिका के समर्थन में उन्होंने कहा, “न्यायपालिका की स्वतंत्रता एक ऐसी चीज़ है, जिस पर निर्णय लिया जाना है, और यह स्वतंत्रता बहुत हद तक न्यायाधीशों की नियुक्ति के तरीके पर निर्भर करती है। उन्हें यह कभी भी महसूस नहीं होना चाहिए कि उनकी नियुक्ति इस व्यक्ति या उस व्यक्ति और इस पार्टी या फिर उस पार्टी को जवाबदेह है। उन्हें महसूस होना चाहिए कि वे स्वतंत्र हैं।”

एक स्वतंत्र न्यायपालिका पर उनके विचार समय की कसौटी पर खरे उतरे हैं। संविधान सभा में अपने कार्यकाल के दौरान, उन्होंने कथित तौर पर अन्य सदस्यों के साथ मिलकर 750 संशोधन किए। स्वतंत्रता के बाद, साल 1950 में उन्हें योजना आयोग में शामिल किया गया।

संविधान सभा की साथी महिला सदस्यों के साथ दुर्गाबाई देशमुख। (स्रोत)

44 वर्ष की आयु में, उन्होंने अपने दूसरे पति, चिंतामन देशमुख शादी की, जो भारतीय रिजर्व बैंक के पहले भारतीय गवर्नर नियुक्त हुए। हालांकि, उनकी शादी के समय चिंतामन भारत के वित्त मंत्री थे। उन्होंने भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और सुचेता कृपलानी (भारत की पहली महिला मुख्यमंत्री) की मौजूदगी में नागरिक विवाह किया था।

राष्ट्र-निर्माण के लिए समर्पित यह दंपत्ति बहुत ही अलग था और कुछ सूत्रों की मानें, तो उन दोनों ने निश्चय किया था कि यदि उनमें से कोई एक कमाएगा; तो दूसरा निःस्वार्थ भाव से समाज सेवा करेगा। आज़ादी के बाद, उन्होंने अपना जीवन कानून और समाज सेवा के लिए समर्पित कर दिया। वास्तव में, उनके अपार योगदान के कारण ही उन्हें भारत में ‘सामाजिक कार्य की जननी’ के रूप में जाना जाता है।

दुर्गाबाई सेन्ट्रल सोशल वेलफेयर बोर्ड की पहली अध्यक्षा भी थी। इस पद पर रहते हुए उन्होंने कई ऐसे कदम उठाये, जिन्होंने आज भारत में महिला-सशक्तिकरण की नींव रखी। उनका मानना था कि महिलाओं के हितों और स्तर में बढ़ावा बिना किसी बजटीय प्रावधान के मुमकिन नहीं होगा। इसलिए उन्होंने सेन्ट्रल सोशल वेलफेयर बोर्ड को देश में 30,000 से अधिक छोटे-छोटे एनजीओ से जोड़कर, सबसे बड़ा सिविल सोसाइटी नेटवर्क बनाया, जिसे सरकार द्वारा फंड किया गया। इसके ज़रिये उन्होंने महिलाओं के लिए छोटे आर्थिक कार्यक्रम आयोजित किये, जिन्हें आज हम ‘स्वयं सहायता समूह’ कहते हैं।

यह दुर्गाबाई ही थी, जिन्होंने भारत में पारिवारिक न्यायालयों की स्थापना का समर्थन किया। यह विचार, उन्हें आधिकारिक भारतीय प्रतिनिधिमंडल के सदस्य के रूप में अन्य देशों जैसे की चीन, रूस और जापान आदि की यात्रा करने के बाद आया था।

राजमुंदरी में स्वतंत्रता समारा योधुला पार्क (स्वतंत्रता सेनानियों को समर्पित पार्क) में दुर्गाबाई देशमुख की प्रतिमा। (स्रोत)

“मैंने सोचा कि भारत जैसे देश के लिए, कानून व्यवस्था के अंतर्गत पारिवारिक न्यायालय की स्थापना काफ़ी तरीकों से मददगार रहेगी। यह न सिर्फ़ हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के बोझ को कम करेगा, बल्कि परिवारों को टूटने से रोकने के लिए, और स्त्री-पुरुष, बच्चों की खुशियों को सहेजने के लिए भी एक अच्छा मंच होगा, जो उन्हें हमेशा साथ रहने के लिए प्रेरित करेगा,” उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा।

9 मई 1981 को उनके निधन के बाद, साल 1984 में संसद ने आख़िरकार पारिवारिक न्यायालय स्थापित करके फैमिली कोर्ट एक्ट पास किया।

दुर्गाबाई देशमुख तो चली गयीं, लेकिन एक समान समाज की दिशा में उन्होंने जो भी कार्य किये; वे देश की हर एक पीढ़ी के लिए प्रेरणास्त्रोत हैं। उम्मीद है कि आने वाले वक़्त में भी भारत की इस बेटी का नाम सम्मान और गर्व से याद किया जाता रहेगा।

मूल लेख: रिनचेन नोरबू वांगचुक

संपादन – मानबी कटोच 


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