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‘लेडी लैंड’ का सपना देखने वाली रोकैया, जिन्होंने खोला था देश का पहला मुस्लिम महिला स्कूल

Begum Rokeya

“यह एक ‘नारीवादी दुनिया’ है, जहां पर्दा प्रथा नहीं है। यहां, पुरुषों को घर के अंदर ही सीमित कर दिया जाता है और महिलाएं दुनिया भर में आज़ाद घूमती हैं। यहां किसी तरह की हिंसा नहीं है, हर तरफ बस प्रगति और खुशहाली। आपको यहां एक आदमी के सामने आने से डरने की ज़रूरत नहीं है। यह ‘लेडीलैंड’ है, पाप और हानि से मुक्त। यहां सिर्फ सदाचार का राज है। यहां विज्ञान ने इतनी प्रगति कर ली है कि श्रमहीन खेती और उड़ने वाली कारों का अंबार है। वैज्ञानिकों, खासतौर पर महिला वैज्ञानिकों ने सौर ऊर्जा को बांधने और मौसम को नियंत्रित करने का तरीका खोज लिया है। यहां किसी तरह का अपराध नहीं होता। यहां सत्य और प्रेम ही सबका धर्म है और शांति व एकता, आक्रामकता और हिंसा पर हावी है।”

आप सोच रहे होंगे कि ये किस दुनिया की बातें हो रही हैं। हमारे देश में तो ऐसा नहीं है। यह वह दुनिया है, जिसे गढ़ा है बेगम रोकैया ने और नाम दिया है लेडीलैंड। अपनी किताब, ‘सुल्तानाज़ ड्रीम (Sultana’s Dream)’ में रोकैया सखावत हुसैन ने एक वैकल्पिक असलियत दिखाने के लिए ‘लेडीलैंड’ जैसी जगह गढ़ी। लेकिन ज़रा सोचिए कैसा हो अगर पुरुषों को महिलाओं की तरह रहना पड़े?

बंगाली कार्यकर्ता और शिक्षिका रहीं रोकैया, अपने ज़माने के चुनिंदा साइंस फिक्शन लेखकों में से एक थीं। उनकी कहानियों में एक तरफ महिलाओं के अधिकारों के लिए उठे आवाज़ की गर्मी थी, तो दूसरी ओर एक सुकून भरी अलग दुनिया में पहुंच जाने का ठंडक भरा एहसास। रोकैया का मानना था कि कोलोनियल भारत में रहने वाली महिलाएं – खासतौर पर मुस्लिम महिलाओं के लिए नियति ने जो कुछ भी लिखा है, वे उससे ज़्यादा की हकदार हैं।

चमड़ी और अस्तित्व दोनों दोनों पर पर्दा!

The remains of Rokeya Sakhawat Hossain’s childhood home in Rangpur, Bangladesh

रोकैया का जन्म 1880 में तत्कालीन बंगाल प्रेसीडेंसी के रंगपुर में एक बंगाली मुस्लिम परिवार में हुआ था। रोकैया का परिवार रुढ़िवादी सोच वाला था, उनके परिवार में पर्दा प्रथा का सख्ती से पालन होता था। लेकिन रोकैया का मानना था कि यह एक ऐसी प्रथा थी, जो स्त्री-पुरुष को अलग करती थी और महिलाओं को अपनी चमड़ी और अस्तित्व दोनों को छिपाने के लिए कहा जाता था।

संपन्न परिवार से होने के बावजूद, उनके परिवार में लड़कियों के लिए शिक्षा हासिल करना किसी पाप से कम नहीं समझा जाता था। बेगम रोकैया को कुरान समझने में आसानी हो, इसलिए उन्हें केवल उर्दू सीखने के लिए कहा गया था। उस समय लोग मानते थे कि बांग्ला या अंग्रेजी सीखने से महिलाएं अपरिचित संस्कृतियों और पश्चिमी तौर-तरीकों की ओर बढ़ जाएंगी। लेकिन अपनी बहन करीमुन्नेसा के साथ, रोकैया ने छिप-छिपाकर दूसरी भाषाओं को पढ़ना और लिखना सीखा।

करीमुन्नेसी का मन ज्ञान और साहित्य में बहुत लगता था। लेकिन उन्हें साहित्य की ओर बढ़ने से रोकने के लिए, उनकी शादी 14 साल की उम्र में कर दी गई थी। अपनी बहन के सपनों को इस तरह से अचानक बिखरता देख, रोकैया पर बहुत गहरा असर पड़ा और यहीं से उनके नारीवादी आदर्शों को आकार मिलने लगे।

जब 18 साल की रोकैया की शादी 40 साल के हुसैन से करा दी गई

1898 में जब रोकैया 18 साल की हुईं, तो उनकी शादी की भी बात चलने लगी। रोकैया के बड़े भाई इब्राहिम अपनी बहन का मन-मिजाज़ समझते थे। इसलिए जब शादी की बात हुई, तो उन्होंने एक ऐसे वर की तलाश की, जो रोकैया को घर की चारदिवारी में क़ैद न रखे।

रोकैया के परिवार ने भागलपुर (बिहार) के रहने वाले अंग्रेज़ी सरकार के अफसर खान बहादुर सखावत हुसैन के साथ रिश्ता पक्का कर दिया, जो उस समय लगभग 40 साल के थे और रोकैया से काफी बड़े थे। लेकिन खान ने युवा रोकैया को पढ़ने और साहित्य के प्रति अपने प्रेम को और आगे बढ़ाने के लिए काफी प्रोत्साहित किया। उनकी सलाह पर ही रोकैया ने अपने आगे के सभी अहम कामों के लिए बंगाली भाषा को प्राथमिकता दी।

बेगम रोकैया के साहित्यिक करियर की शुरुआत साल 1902 में ‘पिपासा (प्यास)’ नामक के एक बंगाली निबंध के साथ हुई, जिसके बाद 1905 में ‘मातीचूर’ नाम की उनकी एक किताब आई। उसी साल, उन्होंने अपनी सबसे प्रसिद्ध किताब ‘सुल्तानाज़ ड्रीम’ भी लिखी।

लड़कियों को स्कूल तक लाने के लिए, घर-घर गईं बेगम रोकैया

Rokeya’s husband fully supported her wish to pursue literature in Bangla and English

1909 में जब रोकैया के पति का अचानक निधन हो गया, तो उसके बाद भी वह काफी समय तक भागलपुर में ही रहीं। पति को खो देने के बाद भी रोकैया, हिम्मत नहीं हारीं। बल्कि उनके पति, जो पैसे रोकैया के लिए छोड़ कर गए थे, उन पैसों से उन्होंने स्कूल खोलने का फैसला किया।

रोकैया ने भागलपुर में मुस्लिम लड़कियों के लिए भारत का पहले स्कूल – ‘सखावत मेमोरियल गर्ल्स हाई स्कूल’ की स्थापना की। हालांकि रोकैया को इसका कड़ा विरोध झेलना पड़ा और उन्हें 1911 में इस स्कूल को कलकत्ता (अब कोलकाता) शिफ़्ट करना पड़ा।

आज भी यह स्कूल, कोलकाता के सबसे मशहूर कन्या विद्यालयों में से एक है। ऐसा कहा जाता है कि लोग अपनी बेटियों को स्कूल में पढ़ने के लिए भेजें, इसके लिए वह उन परिवारों के घर तक गईं, जो लड़कियों को स्कूल भेजने से झिझक रहे थे या जो उनकी शिक्षा के ख़िलाफ थे। तब अधिकांश माता-पिता ने शर्त रखी कि लड़कियां तभी पढ़ने जाएंगी, जब उनके पर्दे का सख्ती से ख्याल रखा जाएगा। रोकैया के पास उनकी शर्तों को मानने के अलावा कोई और विकल्प नहीं था।

इस स्कूल को आधिकारिक तौर पर 1911 में आठ छात्राओं के साथ शुरू किया गया और फिर यह संख्या धीरे-धीरे, समय के साथ बढ़ती गई। छात्राओं के माता-पिता से किए गए वादे को निभाने के लिए, रोकैया ने लड़कियों को स्कूल से लाने और ले जाने के लिए घोड़ा गाड़ी की व्यवस्था की, ताकि पर्दे का ख्याल रखा जा सके।

“शिक्षा, उत्पीड़न से बाहर निकलने का रास्ता है”- बेगम रोकैया

इस स्कूल में लड़कियों को बांग्ला, अंग्रेजी, उर्दू और फ़ारसी के साथ-साथ, शारीरिक शिक्षा, संगीत, खाना पकाने, प्राथमिक चिकित्सा, नर्सिंग जैसी बहुत सी चीज़ें सिखाई जाने लगीं। रोकैया ने व्यक्तिगत रूप से स्कूल के सभी कामकाज का निरीक्षण किया और शिक्षकों की ट्रेनिंग का पूरा ख्याल रखा।

महिलाओं की शिक्षा के हालातों पर चर्चा करने के लिए डिबेट और कई दूसरे सम्मेलन आयोजित करने के लिए, रोकैया ने अंजुमन-ए-ख्वातीन-ए-इस्लाम, यानी इस्लामी महिला संघ की स्थापना की। रोकैया का मानना ​​था कि शिक्षा न केवल उत्पीड़न से बाहर निकलने का रास्ता है, बल्कि औपनिवेशिक शासन, धार्मिक उग्रवाद और जातिवाद को अस्थिर करने की कुंजी भी है।

उनका कहना था, “जब भी कोई महिला अपना सिर उठाने की कोशिश करती है, तो तरह-तरह के भावनात्मक हथियारों से उन पर वार किया जाता है। पुरुष हमें अज्ञानता के अंधेरे में डालकर, वश में करने के लिए शास्त्रों को ईश्वर की आज्ञा के रूप में प्रचारित करते हैं। जबकि असल में वे ग्रंथ कुछ और नहीं, बल्कि पुरुषों द्वारा बनाई गई एक प्रणाली है।”

रोकैया ने अपने पूरे जीवनभर बार-बार कहा, “किसी भी जाति-धर्म के पुरुष संत जो बातें करते हैं, वही बातें अगर कोई महिला कहती, तो उसके शब्द, पुरुषों से बिल्कुल अलग होते। धर्म केवल महिलाओं के चारों ओर दासता के जुए को कसता है और महिलाओं पर पुरुष वर्चस्व को सही ठहराता है।”

क्या साकार हो सकेगा सुल्ताना (रोकैया) के लेडीलैंड का सपना?

Sakhawat Memorial High School

1932 में पाकिस्तान और बांग्लादेश के निर्माण से बहुत पहले बेगम रोकैया का निधन हो गया। उनकी याद में हर 9 दिसंबर को ‘रोकैया दिवस’ मानाया जाता है और उन्हें बड़े स्तर पर अविभाजित बंगाल में नारीवादी क्रांति को बढ़ावा देने के लिए याद किया जाता है।

उनके नाम पर आज कई विश्वविद्यालय बन चुके हैं और आज असाधारण उपलब्धियां हासिल करने वाली महिलाओं को, रोकैया के नाम पर पुरस्कार भी दिए जाते हैं।

आज एक सदी से ज्यादा समय बीत जाने के बाद, 21वीं सदी में भी, ‘सुल्तानाज़ ड्रीम’ एक ऐसे नज़रिए की तरह है, जिसे हकीक़त बनने में अभी काफी समय लगेगा। आज भी भारत में कई जगहों पर बहुत सी महिलाओं को शिक्षा हासिल कर, आत्मनिर्भर बनने का अधिकार नहीं, परिवार और समाज आज भी रुढ़िवादिता के उस जाल से बाहर नहीं निकल सके हैं।

लेकिन कई ऐसी भी जगहें और क्षेत्र हैं, जहां रोकैया के सपने को सच होते देखा जा सकता है। आज महिलाएं शिक्षा, विज्ञान और राजनीति में अपने सही स्थान के लिए लड़ रही हैं और कइयों ने बड़े मुकाम हासिल भी किए हैं। बड़े-बड़े पदों पर महिलाएं हैं, वैज्ञानिकों की टीम में महिलाएं कमाल कर रही हैं और विदेशों तक में भारतीय स्त्रियों ने अपना परचम लहराया है। शायद धीरे-धीरे, हम ‘लेडीलैंड’ की ओर बढ़ रहे हैं।

मूल लेखः दिव्या सेतू
संपादन – मानबी कटोच

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