Placeholder canvas

स्त्री की स्वतंत्रता की नई आवाज है अनुराधा बेनीवाल की ‘आज़ादी मेरा ब्रांड’!

हरियाणा की एक लड़की यूरोप गयी थी। वह पढने नहीं गयी, नौकरी करने भी नहीं गयी, न ही वह पर्यटक बन के गयी थी। वह आज़ादी की साँस महसूस करने गयी थी। एक साँस जिसका समय, स्थान, कारण, सब कुछ उसने तय किया था। उस लड़की का नाम है- अनुराधा बेनीवाल। राजकमल प्रकाशन ने अनुराधा की घुमक्कड़ी के संस्मरणों को एक किताब का रूप दे दिया है – 'आज़ादी मेरा ब्रांड'।

रियाणा की एक लड़की यूरोप गयी थी। वह पढने नहीं गयी, नौकरी करने भी नहीं गयी, न ही वह पर्यटक बन के गयी थी। वह आज़ादी की साँस महसूस करने गयी थी। एक साँस जिसका समय, स्थान, कारण, सब कुछ उसने तय किया था। उस लड़की का नाम है- अनुराधा बेनीवाल।

राजकमल प्रकाशन ने अनुराधा की घुमक्कड़ी के संस्मरणों को एक किताब का रूप दे दिया है – ‘आज़ादी मेरा ब्रांड’।

azadi-mera-brand_cvr

photo source

30 बरस की अनुराधा शतरंज खेलती थी। शतरंज का सहारा और मन में आत्मविश्वास लेकर उन्होंने यूरोप में कदम रख दिया। अनुराधा ने यात्रा वृतांत नहीं लिखा है। उन्होंने घुमक्कड़ी की कहानी लिखी है। एक अकेली लड़की की यूरोप के 13 देशों में अकेले घुमने की कहानी। लन्दन, पेरिस, बर्लिन, बुडापेस्ट, बर्न जहाँ रोमांच-भय, खुशियाँ-दुःख, भीड़-अकेलापन सब कुछ है। लेकिन अनुराधा की स्वान्तः सुखाय घुमक्कड़ी अब स्त्री आज़ादी की परिभाषा बन गयी है।

अनुराधा कहती हैं, “घूमना कठिन काम नहीं है कि उसके बारे में चिंतित हुआ जाए अगर घूमने के बारे में आपके मन में सवाल हैं, तब आपका मन अभी तक सच में घूमने का नहीं हुआ है। जब घूमने का मन होता है, तो मन में सवाल नही होते। अकेले घूमना आपको साहस देता है। अच्छे को अच्छा और बुरे को बुरा कहने का साहस। सही को सही और गलत को गलत कहने का साहस। ‘संस्कारी’ और ‘लायक’ की कूपमंडूक परिभाषा में बंध के रहने से अच्छा है कि यायावर बन के खुद परिभाषाएं गढ़ी जाएँ जिन्हें हमने खुद के अनुभव से जाना हो।”

अनुराधा ने यह परिभाषाएं खुद रची हैं। अनुराधा ‘नए ज़माने की नितांत भारतीय फ़कीरन’ हैं लेकिन उनकी फ़कीरी भी अलग किस्म की है और भारत की परिभाषा भी। आज़ादी की तलाश में भटकना ही आज़ादी है। यह तलाश हरेक आदमी को खुद करनी पड़ेगी। अनुराधा की तलाश सांसारिक भी है और आध्यात्मिक भी।

वह कहती हैं, “भीतर की मज़िलों को हम बाहर चलते हुए भी छू सकते हैं, बशर्ते अपने आप को लादकर न चले हों। उतना ही एकांत साथ लेकर निकले हों जितना एकांत ऋषि अपने भीतर की यात्रा पर लेकर निकला होगा”।

सबसे अच्छी बात यह है कि अनुराधा उत्तर नहीं देती… प्रश्न पूछती हैं; बेहद गंभीर और जायज प्रश्न…

“ क्यों नहीं चलने देते तुम मुझे ? क्यों मुझे रह-रहकर नज़रों से नंगा करते हो ? क्यों तुम्हें मैं अकेली चलती नहीं सुहाती ? मेरे महान देश के महान नारी पूजकों जवाब दो ! मेरी संस्कृति के रखवालों जवाब दो ! मैं चलते चलते जैसे चीखने लगती हूँ। मुझे बताओ मेरे कल्चर के ठेकेदारों क्यों इतना मुश्किल है एक लड़की का अकेले घर से निकल कर चल पाना ?”

 

35lqqzfk

वे आगे लिखती है ….

“जो समाज एक लड़की का अकेले सड़क पर चलना बर्दाश्त नहीं कर सकता, वह समाज सड़ चुका है। वह कल्चर जो एक अकेली लड़की को सुरक्षित महसूस नहीं करा सकता, वह गोबर कल्चर है। उस पर तुम कितने ही सोने-चाँदी के वर्क चढ़ाओ उसकी बास नहीं रोक पाओगे, बल्कि और धंसोगे। मेरी बात सुनो इस गोबर को जला दो। मैं चीख रही हूँ, ज़ोर ज़ोर से … जला दो, जला दो ! 2 बजे रात को बर्न की अकेली सड़क पर चीखते चीखते अब मैं रोने लगी थी… मैं यह आज़ादी लिए बिना नहीं जाऊँगी। मैं यह आज़ादी अपने देश ले जाना चाहती हूँ। मुझे इस आज़ादी को अपने खेतों, अपने गाँवों, अपने शहरों में महसूस करना है। मुझे आधी रात को दिल्ली और रोहतक की गलियों में घूमना है – बेफिक्र, बेपरवाह, स्वतंत्र मन और स्वतंत्र विचार से स्वतंत्रता के एहसास से।”
अनुराधा की किताब रूढ़ संस्कृति के दायरों में सिमटी आज़ादी को मुक्त करने की बात करती है।अनुराधा के प्रश्नों के उत्तर की खोज में हम एक बेहतर इन्सान बनते दिखाई देते हैं।

अनुराधा ने अपनी किताब के अंत में हमवतन लड़कियों के नाम एक ख़त लिखा है। यह ख़त आज़ादी का इंकलाब है जिसकी चिंगारी हर एक लड़की के दिल में जल रही है …

download

“ तुम चलना। अपने गाँव में नहीं चल पा रही हो तो अपने शहर में चलना। अपने शहर में नहीं चल पा रही हो तो अपने देश में चलना। अपना देश भी चलना मुश्किल करता है तो यह दुनियाँ भी तेरी ही है, अपनी दुनियाँ में चलना। लेकिन तुम चलना। तुम आज़ाद, बेफिक्र, बेपरवाह, बेकाम, बेहया होकर चलना। तुम अपने दुपट्टे जला कर, अपनी ब्रा साइड से निकाल कर, खुले फ्रॉक पहनकर चलना। तुम चलना जरुर।”

अनुराधा के इस आग्रह में भविष्य का एक सुन्दर सपना है …

“ तुम चलोगी तो तुम्हारी बेटी भी चलेगी और मेरी बेटी भी चलेगी। फिर हम सबकी बेटियाँ चलेंगी। और जब सब साथ साथ चलेंगी तो सब आज़ाद बेफिक्र और बेपरवाह ही चलेंगी। दुनियाँ को हमारे चलने की आदत हो जाएगी।”

अनुराधा के अन्दर आत्मविश्वास की एक लहर है जो शब्दों के जरिए आपकी आँखों को लाल कर देती है …

“डर कर घर में मत रह जाना। तुम्हारे अपने घर से कहीं ज्यादा सुरक्षित यह पराई अनजानी दुनियाँ है। वह कहीं ज्यादा तेरी अपनी है। बाहर निकलते ही खुद पर यकीन करना। खुद पर यकीन रखते हुए घूमना। तू खुद अपना सहारा है। तुझे किसी सहारे की जरुरत नहीं। तुम अपने आप के साथ घूमना। अपने गम, अपनी खुशियाँ, अपनी तन्हाई सब साथ लिए इस दुनियाँ के नायाब ख़जाने ढूंढना। यह दुनियाँ तेरे लिए बनी है, इसे देखना जरुर। इसे जानना इसे जीना। यह दुनियाँ अपनी मुठ्ठी में लेकर घूमना, इस दुनियाँ में गुम होने के लिए घूमना, इस दुनियाँ में खोजने के लिए घूमना। इसमें कुछ पाने के लिए घूमना, कुछ खो देने के लिए घूमना। अपने तक पहुँचने और अपने आप को पाने के लिए घूमना; तुम घूमना!”

अंत में अज्ञेय की कविता और यात्रा शुरू …

द्वार के आगे
और द्वार यह नहीं है कि कुछ अवश्य
है उन के पार किन्तु हर बार
मिलेगा आलोक झरेगी रस धार
या
उड़ चल हारिल लिए हाथ में यही अकेला ओछा तिनका
उषा जाग उठी प्राची में कैसी बाट भरोषा किन का !

स्त्रोत – आज़ादी मेरा ब्रांड–अनुराधा बेनीवाल; राजकमल प्रकाशन ; पहला संस्करण 2016

 

यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ बांटना चाहते हो तो हमें contact@thebetterindia.com पर लिखे, या Facebook और Twitter (@thebetterindia) पर संपर्क करे।

We at The Better India want to showcase everything that is working in this country. By using the power of constructive journalism, we want to change India – one story at a time. If you read us, like us and want this positive movement to grow, then do consider supporting us via the following buttons:

X