स्कूली बच्चों की मदद के लिए 24 साल के छात्र हिमांशु मुनेश्वर ने एक ऐसा स्कूलबैग डिजाइन किया है जो डेस्क में बदल जाता है। इस खास बैग का नाम उन्होंने ‘साथी’ रखा है।
महाराष्ट्र के नागपुर में जन्मे और पले-बढे हिमांशु मुनेश्वर देवरे इन दिनों अपने एक खास आविष्कार की वजह से सुर्खियों में हैं। 24 वर्षीय हिमांशु ने इको-फ्रेंडली मेटेरियल से एक बैग कम डेस्क बनाया है। इसे स्कूली बच्चे अपनी कॉपी किताब रखने के लिए बैग और फिर स्कूल में बैठकर पढ़ने के लिए डेस्क के तौर पर इस्तेमाल कर सकते हैं। उनका बनाया यह एक इनोवेशन, ज़रूरतमंद छात्रों के जीवन में दो ज़रूरी चीजों की कमी को पूरा कर सकता है।
हिमांशु ने द बेटर इंडिया को बताया कि उन्होंने बेंगलुरु के NICC International College of Design से पढ़ाई की है। फ़िलहाल, वह एक सामाजिक संगठन, द अगली इंडियन ने साथ काम कर कर रहे हैं। पिछले साल ही उन्होंने अपना कोर्स पूरा किया और कोर्स के आखिरी साल में उन्हें कोई प्रोजेक्ट बनाकर सबमिट करना था। इसके लिए वह कोई आईडिया ढूंढ रहे थे।
उन्होंने कहा, “मुझे ऐसा प्रोडक्ट बनाना था जो किसी ज़रूरतमंद की समस्या को हल करे और साथ ही, किफायती और इको-फ्रेंडली भी हो। मुझे स्कूली बैग और डेस्क एक साथ बनाने का आईडिया नागपुर के एक गाँव में मिला।”
हिमांशु के पिता गाँव के एक स्कूल में शिक्षक हैं। अक्सर हिमांशु का इस स्कूल में आना-जाना होता था। उन्होंने यहाँ हमेशा बच्चों को नीचे दरी या कालीन पर बैठकर पढ़ते हुए देखा। इस वजह से अक्सर बच्चों का बॉडी पोस्चर खराब होता है। ज्यादा देर तक बच्चे बैठ नहीं पाते हैं और फिर वह झुक कर काम करते हैं। इस कारण बहुत से बच्चों को बीमारियाँ भी होने लगती हैं। स्कूल प्रशासन के पास इतना बजट नहीं कि वो सभी बच्चों के लिए बेंच का इंतज़ाम करें।
इसके अलावा, एक और समस्या थी कि ये बच्चे ऐसे घरों से आते हैं, जहाँ उनके बैग और कॉपी-किताब का खर्च उठाना भी उनके माता-पिता के लिए काफी मुश्किल होता है। ज़्यादातर सरकारी और ट्रस्ट स्कूलों में आप देखेंगे कि बच्चे पुराने कपड़े या टाट के बने झोलों में अपनी कॉपी-किताब लेकर आते हैं।
हिमांशु ने इन दो समस्याओं के हल पर काम करने की सोची। अपने कॉलेज में शिक्षकों और टीम के साथ विचार-विमर्श करके और थोड़ा रिसर्च करके उन्हें समझ में आया कि उन्हें एक डेस्क कम बैग का मॉडल बनाना चाहिए।
ऐसा नहीं है कि इस तरह का कोई प्रोडक्ट पहले नहीं बना है। हिमांशु से पहले IIT कानपुर से पासआउट एक छात्र, इशान सदाशिवन ने ऐसा ही एक मॉडल बना चुके हैं। इशान सदाशिवन के ‘डेस्किट’ के बारे में अधिक जानकारी के लिए यहाँ क्लिक करें!
आईडिया भले ही एक जैसा है लेकिन हिमांशु के बैग कम डेस्क के बनाने का तरीका और मेटेरियल बिल्कुल ही अलग है। हिमांशु ने न सिर्फ एक अच्छा प्रोडक्ट बनाया है बल्कि उनका प्रोडक्ट किफायती और पर्यावरण के अनुकूल भी है।
उनके इनोवेशन की सबसे बड़ी खासियत यह है कि उन्होंने इसे उत्तर-भारत में सरकंडे या मूंज के नाम से जानी जाने वाली एक घास से बनाया है। मूंज घास का उपयोग ग्रामीण इलाकों में बहुत सारी चीजें बनाने के लिए किया जाता है जैसे कि टोकरी, रोटी रखने के लिए डिब्बा, बैठने के लिए मुढ़ी आदि। गाँव की औरतें अपने-अपने घरों के लिए खुद ही इस घास से दैनिक ज़रूरत की चीजें बना लेती हैं।
“रिसर्च के दौरान मैं ऐसी कोई चीज ढूंढ़ रहा था जो कि साल-दो साल तक चल पाए और साथ ही, वाटर प्रूफ भी हो। मेरी तलाश इस मूंज घास पर आकर खत्म हुई। मुझे पता चला कि उत्तर-भारत में यह बहुत ही आसानी से खेतों में या आसपास मिल जाती है,” उन्होंने बताया।
अपने प्रोडक्ट का प्रोटोटाइप तैयार करने के लिए हिमांशु उत्तर-प्रदेश के लखनऊ में नैनी गाँव पहुंचे। यहाँ पर वह लगभग तीन महीने रहे। सबसे पहले दो महीने तक उन्होंने गाँव की महिलाओं के साथ बैठकर मूंज घास के बारे में सीखा। तीसरे महीने में जाकर उनका प्रोटोटाइप तैयार हुआ।
अपने बैग कम डेस्क को उन्होंने ‘साथी’ नाम दिया है और इसे बनाने में मूंज घास के अलावा, कैनवास और अल्युमुनियम की रॉड का इस्तेमाल हुआ है। बच्चे इसे आसानी से अपने कंधों पर टांगकर स्कूल आ सकते हैं और यहाँ ज़मीन पर इसे रखकर डेस्क बना सकते हैं। इससे बच्चों को पढ़ने में कोई परेशानी नहीं होती है।
हिमांशु ने ऐसे दो प्रोडक्ट नैनी गाँव के ही दो बच्चों को दिए और एक बैग कम डेस्क को अपने कॉलेज में सबमिट किया। उनके इस प्रोडक्ट को काफी सराहा जा रहा है क्योंकि यह बच्चों के लिए तो अच्छा है ही, साथ ही मात्र 400 रुपये इसकी लागत है। वह बताते हैं कि अगर बड़े स्तर पर इन बैग कम डेस्क का निर्माण किया जाए तो इस लागत को 200-250 रुपये तक भी लाया जा सकता है।
“फिलहाल, मैं एक एनजीओ के साथ मिलकर शहर के लिए इको-फ्रेंडली और किफायती इंफ्रास्ट्रक्चर आइडियाज पर काम कर रहा हूँ। मेरे पास अभी इतने फंड्स नहीं है कि मैंने अपने इनोवेशन को बड़े लेवल पर मैन्युफैक्चर कर सकूं। इसके लिए काफी फंडिंग चाहिए होगी, जिसे जुटाने की कोशिश में हूँ,” उन्होंने आगे कहा।
कम लागत और देसी घास से बना हिमांशु का यह प्रोडक्ट काबिल-ए-तारीफ़ है। अगर इसे बनाने के लिए कहीं कोई यूनिट सेट-अप की जाए तो ग्रामीण परिवेश में लोगों को रोज़गार भी मिल सकता है। हिमांशु के मुताबिक, इस प्रोडक्ट को बनाने में थोड़ा वक़्त लगा क्योंकि घास को बुनने में दो-तीन दिन लग जाते हैं। लेकिन अगर कारीगर पहले से प्रशिक्षित हो और प्रोफेशनल लेवल पर उनसे काम कराया जाए तो ज्यादा वक्त नहीं जाएगा।
हिमांशु, फिलहाल किसी ऐसे व्यक्ति या संगठन की तलाश में हैं जो उनके इस इनोवेशन को आगे ले जाने में उनकी मदद कर सकें।
अगर आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है और आप हिमांशु की मदद करना चाहते हैं तो उन्हें उनके फेसबुक पेज पर संपर्क कर सकते हैं।
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संपादन – जी.एन. झा