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जुताई के लिए हल और बैल खरीदने के नहीं थे पैसे, तो बना दिया साइकिल को जुताई मशीन

स कहानी का मुख्य आकर्षण एक बुजुर्ग किसान का संघर्ष है। गोपाल मल्हारी भिसे आज भी एक युवा की भांति खेती से जुड़े हैं और अपनी पत्नी के साथ किसानी करते हैं। वह रोज़मर्रा की मुश्किलों के बाद भी चेहरे और बातों में हरदम मुस्कान संजोए रहते हैं। ज़िंदगी की थकान को उन्होंने कभी खुद पर हावी होने नहीं दिया, हर फ़िक्र को हंसकर टालते हुए वह ज़िंदगी के इस सफ़र में आगे बढ़ते गए।

‛द बेटर इंडिया’ से बात करते हुए वह बताते हैं, “महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में मेरा जन्म हुआ। आज उम्र 81 बरस है। बचपन से ही मुझ में कुछ नया करने का जुनून था। तितलियों को आसमान में उड़ते देख उड़ने का मन करता था। जब छोटा था, तब कागज, पेड़ के पत्तों और पुराने कपड़ों से हवाई जहाज बनाया करता था।”

गोपाल मल्हारी भिसे
क्लर्क की नौकरी की…

उन्होंने क्लर्क के रूप में जीवन की पहले नौकरी की, पर मन नहीं माना। नौकरी छोड़ते हुए अहमदनगर जिले में ही अपने खेत पर खेती करने की सोची लेकिन वहां की भूमि अनुपजाऊ होने के कारण उस पर खेती नहीं की जा सकती थी। फिर उन्होंने एक मजदूर की भांति कठिन परिश्रम किया, मगर उत्पादन खास नहीं रहा। लेकिन, वह मायूस नहीं हुए और ज़िंदगी के दूसरे विकल्प की तलाश में जुट गए। पानी की किल्लत के चलते खेत बेच दिया और जलगाँव के शेंदुर्नी गाँव को नया आशियाना बनाने के लिए चुना। पत्नी मैना बाई के साथ मिलकर उन्होंने वहाँ खेती की शुरुआत की। पर यह शुरुआत बेहद कठिन थी, क्योंकि खेत की जुताई के लिए उनके पास न तो हल था और न ही बैल की जोड़ी। पर भूमि उपजाऊ थी, उन्हें इस बात का सुकून था इसलिए उन्हें सिंचाई की व्यवस्था के लिए पत्नी के साथ मिलकर कुँआ खोदा।

81 वर्षीय गोपाल मल्हारी भिसे और उनकी पत्नी मैना बाई

उस समय खेत जोतने के लिए किराए पर बैल भी नहीं मिलते थे और बैलों का किराया 300 से 400 रुपये प्रतिदिन होता था, जो छोटे किसान नहीं दे पाते थे। इस कारण उन्हें खेती में नुकसान उठाना पड़ता था और गोपाल के साथ भी यही हुआ। छोटे किसान को कितनी तकलीफ रहती है जीवन में यह बात इनके संघर्ष को देखकर समझी जा सकती है।

अपनी आवाज़ में हंसी लाते हुए गोपाल कहते हैं, “81 साल उम्र हो गई है! अभी भी खेती ने मुझे छोड़ा नहीं है। साल 1997-98 में जब शेंदुर्नी गाँव में खेती करना शुरू की तो बिना बैल के खेती करने की कल्पना ही नहीं की जा सकती थी। मेरे लिए तो शुरू से ही खेती परेशानियों से भरी रही है। छोटी खेती होने के चलते बैल वाले मुझे अपने बैलों की जोड़ी समय रहते देने को तैयार नहीं होते। इस पर बारिश होने से खेत में पानी भरता तो काम 2-4 दिन और लेट हो जाता। इधर खेत में खरपतवार भी पनप जाती, इस कारण उत्पादन भी कम होता। रही बात खरपतवार निकालने की तो उसे निकालने में भी बहुत खर्चा आता। सोचता कि इस परेशानी से छुटकारे के लिए मुझे मेरे स्तर पर ही कुछ प्रयास करना चाहिए।”

खेत गाँव से 4 किलोमीटर दूर था, इस वजह से साइकिल पर आना जाना होता था। एक दिन उन्होंने साइकिल पर किसी व्यक्ति को आटे के चार बोरे लाते देखा। हालांकि, यह कठिन काम था, फिर भी वह व्यक्ति उस काम को कर रहा था। उस दिन उनके मन में साइकिल को खेती के काम में लाने का विचार आया। इसी सोच को मूर्त रूप देते हुए उन्होंने साइकिल के पिछले पहिए को हटाते हर एक्सल, चक्के और हैंडल से एक ऐसे यंत्र का निर्माण किया, जिससे बिना ट्रैक्टर और बैल के खेती का काम किया जा सकता है। पहले इस उपकरण को चलाने में थोड़ी ताकत लगानी पड़ती थी, लेकिन धीरे धीरे जरूरत अनुसार सुधार करते हुए इस तरह उन्होंने साइकिल को खरपतवार निकालने के साधन के रूप में विकसित करने में सफलता प्राप्त की। इस साइकिल का उपयोग खेत जोतने में भी किया जा रहा है। उन्होंने इसका नाम ‛कृषि राजा’ रखा है।

मेरा यह उपकरण इतना अच्छा काम करता है कि इसके बनने के बाद से मैंने बैल की जोड़ी से कभी खेती नहीं की। खुश होते हुए ‘भिसे’ कहते हैं। कितने लोग आपके बनाए इस उपकरण को काम में ले रहे हैं? पूछे जाने पर वह कहते हैं, “पूरे भारत में ही फैल गया है यह तो। छोटी जोत के जो किसान हैं न, उनको इसमें बहुत मज़ा आता है। वे किसान कहते हैं, यह तो बहुत अच्छा हो गया।”

अखबार में छपी ख़बर…

सन 2000 में ‛सकाल’ अखबार के एक पत्रकार को भिसे ने अपने काम के बारे में बताया कि उनकी खोज छोटे किसान के लिए यह बहुत लाभदायक है तो उसने कुछ फोटो और मालूमात लेकर उसे छाप दिया। जलगाँव के किसी महाजन ने इस ख़बर की पेपर कटिंग को नैशनल इनोवेशन फाउंडेशन, अहमदाबाद भेज दिया।  भिसे बताते हैं, “साल 2000 में मुझे कोई पुरस्कार मिला था पर मुझे मालूम ही नहीं चला। मुझे तो उम्मीद भी नहीं थी कि मुझे पुरस्कार मिलेगा और मैं दिल्ली जाऊंगा।”

लेकिन फिर नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन(NIF) ने इनसे पत्र व्यवहार चालू किया। इसके बाद साल 2002 में उन्हें ‘ग्रासरूट्स’ सम्मान देकर सम्मानित किया गया। मौलाना आजाद यूनिवर्सिटी, जोधपुर और पैसिफिक यूनिवर्सिटी उदयपुर ने भी भिसे के संघर्ष को सलाम करते हुए उन्हें ‘खेतों के वैज्ञानिक’ सम्मान प्रदान किया है। मिशन फॉर्मर साइंटिस्ट परिवार के प्रणेता डॉ. महेंद्र मधुप ने अपनी किसान वैज्ञानिकों की पुस्तक श्रृंखला में उन्हें भी स्थान देते हुए एक अध्याय में उनकी कहानी को प्रमुखता से लिखा है। इनाम मिलने की खुशी जाहिर करते हुए वह कहते हैं, “फर्क़ इतना ही पड़ा है कि दिल खुश रहता है, अपना इतना नाम हो गया है दुनिया में। बस यही सफलता है, दूसरा क्या है? जीवन बहुत अच्छा है। खेती कर रहा हूं, बावड़ी है, पानी है। हम दोनों के लिए भरपूर अनाज पकता है, खाते हैं मज़े से। पीड़ादायक बात इतनी सी है कि इस उम्र में भी काम करना पड़ रहा है। उम्र ज्यादा हो गई तो भी करना पड़ रहा है, क्या करें फिर। अभी खेत में ज्वार लगा हुआ है, पहले कपास था। मेरा खेत 2 एकड़ से थोड़ा सा ज्यादा है।”

खेती से आय

एक किसान के रूप में उन्हें भी कभी अकाल तो कभी बारिश न होने जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ा। बीच में 2-3 साल पानी कम होने से आवक कम हो गई थी। पहले सलाना 40,000-50,000 रुपए मिल जाते थे। लेकिन 20-25,000 रुपए ही सालाना आय होती है। पर वह इतने में भी खुश रहते हुए गुज़र कर लेते हैं।

एक किसान के रूप में उन्होंने जीवन भर परिश्रम किया, उनका  परिश्रम आज तक जारी है। उनके साथ के लोग आगे बढ़ चुके हैं पर वह आज तक काम कर रहे हैं। वह अपने जीवन में ईमानदारी से जिए हैं, भले ही 2 पैसे कम मिले हों पर दिल से सदैव संतुष्ट रहे हैं। उनका एक ही बेटा है, जो अहमदनगर में नौकरी करता है और सीनियर LIC एजेंट है। अब वहीं रह गया है, बंगला गाड़ी सब है उसके पास। उनका बेटा उन्हें सपोर्ट नहीं करता, बस कभी कभार मिलने आ जाता है और इसलिए गोपाल और उनकी 68 वर्षीय पत्नी खेती का काम कर विकास कमाते हैं।

आत्महत्या करने वाले किसानों के यहां भी गए…

सिकंदराबाद, हैदराबाद में जब किसानों ने आत्महत्या की, तब वहां की एक कंपनी ने गोपाल के इस बाइसाइकिल वीडर के 50 नग मंगवाए। गोपाल भी वहाँ गए और मौजूद किसानों को प्रैक्टिकल कर के दिखाया। समझाया कि कैसे चलाना है, मशीन कैसे काम करती है। वहां मौजूद किसानों ने जब मौके पर इसे चलाया तो बड़े खुश हो गए। भिसे का बाइसाइकिल वीडर वर्धा, अहमदाबाद, बनारस, काशी भी गया है। काशी में एक बड़े वर्कशॉप में जुगाड़ कार्यक्रम आयोजित किया गया था, वहां एक प्रोफेसर ने इनको बुलाया था।

देश ही नहीं विदेशों में भी गया वीडर…

कंबोडिया और न्यूयॉर्क से आए 2 लोग भी इस वीडर को ले गए हैं। उनकी डायरी में उनका नाम पता है। वे गोपाल का फोटो भी लेकर गए हैं। वे लोग इंग्लिश बोलते थे इसलिए भिसे कुछ समझ नहीं पाते थे। लेकिन फिर एक व्यक्ति की मदद से वह कुछ-कुछ बातें समझ पाये।

लागत कम लेकिन दाम ज्यादा

जब भिसे ने 1997-98 में बाइसाइकिल वीडर बनाया तब लागत 700-800 रुपए थी, बाद में इसे स्थानीय वेल्डिंग कारीगरों द्वारा 1200 रुपए तक में बेचा गया। पेटेंट न करवाने के कारण अब गाँव में बहुत सारे लोग इस उपकरण को बनाने लग गए हैं, कीमत भी बढ़ा दी गई है। आज एक मशीन 3000 रुपए तक में बेची जा रही है। इस मंहगे रेट को देखते हुए वह कहते हैं, “यदि मेरी मदद करने वाला कोई होता तो मैं इसे कम कीमत में बेचता, क्योंकि मैं किसानों का दर्द समझता हूं।” उन्हें जीवन में इस बात की बड़ी खुशी रही कि जो भी उनके काम या उनकी शोध के बारे में जानने समझने आया, वो इनकी बात और इनके जीवन के संघर्षों को जानने के बाद बिना प्रेरणा लिए नहीं गया। यदि आप भी गोपाल भिसे से साइकिल मशीन संबंधित कोई जानकारी चाहते हैं या इस मशीन को बनाकर बेचने में उनकी मदद करना चाहते हैं तो उनसे उनके मोबाइल नंबर 09970521044 पर संपर्क कर सकते हैं।

संपादन – अर्चना गुप्ता

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