इस तकनीक से 70% कम लकड़ियों में होगा शव दाह संस्कार

ecofriendly funeral

अजय कुमार जैस्वाल ने एक खास तरह का दाह संस्कार मॉडल बनाया है, जिसमें बहुत कम लकड़ियों का इस्तेमाल होता है।

किसी के लिए भी अपने करीबी को दुनिया से अंतिम विदाई देना आसान नहीं होता है। साथ ही, इससे बहुत से लोगों की आस्था भी जुड़ी होती है और इसलिए वे चाहते हैं कि उनके अपनों की इस दुनिया से अंतिम यात्रा पूरे रीति रिवाज और सम्मान के साथ हो। लेकिन लोगों की भावनाओं के साथ-साथ, अब समय है कि हम पर्यावरण के बारे में भी सोचें।

पारंपरिक हिन्दू रीति रिवाज के अनुसार दाह संस्कार करने में पर्यावरण को कई तरीके से नुकसान पहुंचता है। सबसे पहले तो एक दाह संस्कार के लिए 300-400 किलो लकड़ियां चाहिए होती हैं। इस कारण, वनों पर प्रभाव पड़ता है। साथ ही, खुले में दाह संस्कार करने से वायु प्रदूषण भी काफी होती है और इस प्रक्रिया में अगर शव पूरी तरह से जल न पाए, तो इसे पानी में प्रवाहित किया जाता है। जिस कारण पानी भी दूषित होता है। इन्हीं सब परेशानियों को देखते हुए गोरखपुर की एक कंपनी ने एक इनोवेटिव सिस्टम तैयार किया है, जिसका नाम है ‘ऊर्जा अंत्येष्टि’। 

‘अंत्येष्टि’ प्रदूषण मुक्त शवदाह संस्कार सिस्टम है, जिसमें लकड़ियां भी कम लगती हैं। इस तरह से यह सिस्टम पर्यावरण के अनुकूल है। इस सिस्टम को बनाने वाली कंपनी का नाम है ‘ऊर्जा गैसीफायर्स‘ और इसे शुरू किया है अजय कुमार जैस्वाल ने। 

साल 2012 से अपनी कंपनी चला रहे अजय कुमार एक केमिकल इंजीनियर हैं। कई सालों तक इंडस्ट्री में काम करने के बाद, उन्होंने अपनी खुद की कंपनी शुरू की। अजय हमेशा से ही ऐसी तकनीकों पर काम करना चाहते थे, जो पर्यावरण संरक्षण में मददगार हों। उन्होंने अपनी शुरुआत खेती के कचरे को गैस में बदलने वाले गैसीफायर बनाने से की।

Ajay Kumar Jaiswal providing green creamation services
अजय कुमार जैस्वाल और उनका ऊर्जा अंत्येष्टि सिस्टम

उन्होंने बताया, “कुछ साल पहले तक बहुत से इलाकों में बिजली की समस्या थी। इसे हल करने के लिए हमने खास तरह का सिस्टम बनाया। जिसमें पहले खेती के कचरे से गैस बनाई जाती थी और फिर जनरेटर की मदद से इस गैस को बिजली में बदला जाता है। बिहार और पश्चिम बंगाल में कई छोटी-बड़ी इंडस्ट्रीज के लिए हमने गैसीफायर सेटअप किया है।” 

गैसीफायर का काम हुआ कम तो बनाया अंत्येष्टि सिस्टम 

लेकिन कहते हैं न कि आपको हमेशा कुछ न कुछ नया करते रहना चाहिए, ताकि अगर कभी एक प्रोडक्ट की मांग कम हो जाये तो आपके पास विकल्प हो। अजय बताते हैं, “जैसे-जैसे देश में बिजली का नेटवर्क बढ़ा, हमारे गैसीफायर की मांग घटने लगी। ऐसे में, मैंने सोचा कि हमें कुछ और भी करना होगा। क्योंकि हम सिर्फ एक तकनीक के भरोसे काम नहीं कर सकते हैं। उसी दौरान, एक व्यक्ति ने मुझे शवदाह संस्कार के लिए ऐसी तकनीक बनाने की सलाह दी, जिसमें लकड़ियों का इस्तेमाल कम से कम हो।” 

हालांकि, पहले अजय ने सोचा कि सरकार इलेक्ट्रिक शवदाह संस्कार सिस्टम पर काम कर रही है। लेकिन जब उन्होंने इस विषय पर रिसर्च की, तो पता चला कि पारंपरिक दाह संस्कार के तरीकों से लोगों की भावनाएं जुड़ी हैं और इसलिए आज भी लोग इलेक्ट्रिक प्रक्रिया को अपना नहीं पा रहे हैं। साल 2015 में अपनी रिसर्च के बाद, उन्होंने तय किया कि वह शवदाह संस्कार के लिए इनोवेटिव सिस्टम तैयार करेंगे, जो न सिर्फ पर्यावरण के अनुकूल होगा, बल्कि इसमें लोगों की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए बनाया जाएगा। 

साल 2016 में उनकी कंपनी ने IIT BHU के मार्गदर्शन में ‘ऊर्जा अंत्येष्टि’ सिस्टम तैयार किया। जिसमें लोग अपने पारंपरिक रीति रिवाजों का अनुसरण करते हुए इको फ्रेंडली तरीके से अपनों को विदाई दे सकते हैं। उनका यह सिस्टम पर्यावरण के अनुकूल तो है ही, साथ ही इसमें लोगों का अंत्येष्टि पर होने वाला खर्च भी कम होता है। 

eco friendly crematorium
इको फ्रेंडली शवदाह संस्कार सिस्टम

70% कम लकड़ियों में हो जाता है शवदाह 

अजय कहते हैं कि उनके सिस्टम में एक ट्रॉली, भट्टी, एयर नोज़ल, वाटर स्क्रबर और चिमनी है। ट्राली में लकड़ियां और शव को रखा जाता है। सभी रीति रिवाजों के बाद इस ट्राली में चिता को मुखाग्नि दी जाती है। जैसे ही लकड़ियां जलने लगती हैं, इस ट्रॉली को भट्टी के अंदर भेजा जाता है। भट्टी के अंदर दहन अच्छी तरह से होता है और शव पूरी तरह से जलता है। इसके बाद ट्रॉली को निकालकर अन्य रिवाज किए जाते हैं। अस्थियां ट्रॉली के नीचे लगी एक ट्रे में इकट्ठी हो जाती हैं, जिन्हें बाद में ले लिया जाता है। 

उन्होंने बताया कि इस सिस्टम में धुंआ चिमनी से बाहर निकलता है और यह इतनी ऊंचाई पर होती है कि इससे वायु में प्रदूषण नहीं फैलता है। इसके अलावा, इस सिस्टम में 70% कम लकड़ियों की जरूरत पड़ती है। सामान्य तौर पर देखा जाए तो एक शव के दाह संस्कार में लगभग 400 किलो लकड़ियां लगती हैं। लेकिन अजय के बनाये सिस्टम में मात्र 100 किलो या कम लकड़ियों से काम चल जाता है। “यदि आठ रुपए प्रति किलो लकड़ी का हिसाब लगाएं तो 3000 रुपए से ज्यादा में होने वाला दाह संस्कार मात्र 800 रुपए में हो जाता है,” उन्होंने कहा। 

साथ ही, भट्टी के अंदर दहन अच्छे से होता है तो शव भी पूरी तरह जलता है, जिससे इसे बाद में पानी में प्रवाहित करने की जरूरत नहीं पड़ती है। और इस पूरी प्रक्रिया में मात्र डेढ़ घंटे का समय लगता है। जबकि सामान्य तरीके से दाह संस्कार करने से लगभग चार घंटे का समय लगता है। उनका कहना है कि सामान्य तरीके से दाह संस्कार करने में लगभग 600 किलो कार्बन डाई ऑक्साइड का एमिशन होता है जबकि इस इनोवेटिव तरीके से सिर्फ 160 किलो कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन होता है।

Eco Friendly Cremation
अपनों को अंतिम विदाई

लोगों की भावनाओं का रखा ख्याल

अब तक उनकी कंपनी मुंबई, वाराणसी, गया सहित कई शहरों में कुल 48 अंत्येष्टि सिस्टम लगा चुकी है। उन्होंने भारत के बाहर नेपाल में भी, यह सिस्टम लगाया है। मुजफ्फरपुर में मुक्तिधाम प्रबंध कार्यकारिणी समिति के संयोजक, रमेश कुमार कहते हैं कि उनके यहां भी यह ख़ास दाह संस्कार संयंत्र लगाया गया है। जिससे अब दाह संस्कार में कम लकड़ियां लगती हैं और प्रदूषण भी नहीं होता है। इस तरह से यह पर्यावरण के अनुकूल है। साथ ही, उनका कहना है कि इस सिस्टम में लोगों की भावनाओं का ख्याल रखा गया है। जिस कारण बहुत से लोग बेझिझक इस सिस्टम को अपना रहे हैं। 

लोगों के लिए इलेक्ट्रिक दाह संस्कार सिस्टम को अपनाना बहुत ही मुश्किल है। क्योंकि इससे उनकी भावनाएं आहत होती हैं। बड़े शहरों में तो कुछ लोग इलेक्ट्रिक सिस्टम को अपना रहे हैं लेकिन छोटे शहरों, कस्बों और गांवों में ऐसा मुमकिन नहीं हो पा रहा है। इसलिए इन जगहों के लिए यह अंत्येष्टि सिस्टम सबसे उपयुक्त है। उनका कहना है कि इससे न सिर्फ पर्यावरण बच रहा है, बल्कि लोगों की जेब का बोझ भी कम हुआ है। बहुत से गरीब परिवारों के लिए अपनों की अंत्येष्टि प्रक्रिया करवा पाना भी मुमकिन नहीं हो पाता है। लेकिन इस सिस्टम में 1000 रुपए से भी कम पैसों में लोग अपने अपनों को सम्मानजनक विदाई दे सकते हैं। 

अजय कहते हैं कि उन्होंने अपनी इस तकनीक का पेटेंट करा लिया है। इसके अलावा उन्होंने और भी कई तकनीकों पर काम किया है, जिनमें ऊर्जा बायोमास गैसीफायर, ऊर्जा एमएसडब्ल्यू इंटेग्रेटेर, और ऊर्जा इको बर्न शामिल हैं। गैसीफायर से वह खेती के कचरे से गैस बनाते हैं, तो इंटीग्रेटर से नगर निगम के सॉलिड वेस्ट को रिसर्च और डेवलपमेंट के अंतर्गत आयनिक वेस्ट में तब्दील किया जाता है। वहीं, इको बर्न को उन्होंने खासतौर पर सैनिटरी नैपकिन के डिस्पोजल के लिए बनाया है। 

अगर आप अजय कुमार जैस्वाल के काम के बारे में अधिक जानना चाहते हैं तो उनकी वेबसाइट देख सकते हैं। 

संपादन- जी एन झा

तस्वीर साभार: अजय कुमार जैस्वाल

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