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गांव से जेब में 35 रुपए लेकर आये थे मुंबई, आज 25 करोड़ का है कारोबार

Mumbai's iconic Gaurav Sweets' Founder Veeral Patel's Success Story

“मुंबई कभी किसी को निराश नहीं करती। अगर आप मेहनत करते हैं और कुछ करने का जज़्बा है, तो आप अपनी मंजिल पा ही लेते हैं,” यह कहना है 55 वर्षीय विरल पटेल का। ठाणे में रहने वाले विरल मशहूर ‘गौरव स्वीट्स‘ के मालिक हैं। अगर आप ठाणे में रहते हैं, तो जरूर इस नाम से वाकिफ होंगे। ‘गौरव स्वीट्स’ के मुंबई में 14 आउटलेट्स हैं और जल्द ही, दूसरे शहरों में भी वे अपने आउटलेट शुरू करने वाले हैं। 

‘गौरव स्वीट्स’ के उत्पाद जितने स्वादिष्ट हैं, उतनी ही दिलचस्प है इस ब्रांड के शुरू होने की कहानी। इस ब्रांड को शुरू हुए आज भले ही 15-16 साल हुए हैं, लेकिन इसकी नींव के बीज तभी पड़ गए थे, जब साल 1983 में गुजरात के एक किसान के बेटे विरल पटेल ने मुंबई आने का फैसला किया था। हालांकि, उस समय न विरल पटेल ने और न उनके परिवार ने सोचा था कि एक दिन उनकी कमाई करोड़ों में होगी। बल्कि उस समय तो उनके माता-पिता की बस इतनी सी इच्छा थी कि घर का बेटा बड़े शहर जाकर नौकरी करे, ताकि घर के हालत सुधर सकें। 

द बेटर इंडिया से बात करते हुए विरल पटेल ने अपने सफर के बारे में बताया। उन्होंने कहा, “मैं कच्छ के एक छोटे से गांव से हूं। पिताजी किसानी करते थे पर उस समय गांव में सिंचाई की कोई अच्छी व्यवस्था नहीं थी, तो खेती भी ढंग से नहीं हो पाती थी। कहने के लिए बस घर चल रहा था। परिवार में आठ सदस्य थे। माँ-पिताजी और हम छह भाई-बहन। मैं सबसे बड़ा था, तो छोटी उम्र से ही पिताजी का काम में हाथ बंटाने लगा था। सातवीं कक्षा तक गांव के स्कूल में ही पढ़ाई की। इसके बाद, दसवीं तक का स्कूल तालुका में था।”

फीस के पैसे न होने के कारण छूट गयी पढ़ाई 

विरल कहते हैं कि वह पढ़ाई में अच्छे थे। अक्सर उनके शिक्षक कहते थे कि 12वीं की पढ़ाई कर लें, फिर शिक्षक की नौकरी मिल जाएगी तो जीवन सुधर जायेगा। इसलिए उन्होंने तालुका के स्कूल में दाखिला ले लिया। “अब समस्या थी कि रहा कहां जाये। तो तालुका में पटेल समाज का एक हॉस्टल था, जहां कम से कम पैसे में बच्चे रहकर पढ़ते थे। पर उस हॉस्टल की महीने की 30 रुपए फीस भरना भी पिताजी के लिए मुश्किल था। मैं दिन-रात पढ़ाई में मेहनत करता था, ताकि अच्छी नौकरी मिल जाये और घर में सब कुछ अच्छा हो,”उन्होंने कहा। 

विरल पटेल के माता-पिता

लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। विरल कहते हैं कि उन्होंने बहुत मुश्किल से दसवीं पास की, क्योंकि पिता के पास फीस के पैसे नहीं थे। उन्होंने कहीं से उधार लेकर उनकी हॉस्टल फीस जमा की थी। इसलिए दसवीं के बाद विरल को पढ़ाई छोड़नी पड़ी। 15-16 साल की उम्र में उन्होंने मुंबई जाकर कमाने का फैसला किया। उस समय लोग कमाने के लिए मुंबई जाते थे। उनके गांव के आसपास से और उनके कई रिश्तेदार मुंबई में काम कर रहे थे। उन्होंने बताया, “पिताजी ने एक बार फिर कहीं से उधार लिया और मुझे 100 रुपए दिए। 100 रुपए में 65 रुपए का टिकट था। इसलिए जब मैं मुंबई आया, तो मेरी जेब में मात्र 35 रुपए थे और दो जोड़ी पहनने के कपड़े।”

उनके पिता के एक जानने वाले ने उन्हें एक स्टेशनरी की दुकान पर लगवा दिया। लेकिन इस दुकान पर उन्हें शुरू में कोई पगार नहीं मिली। “सेठ ने कहा कि पहले काम सिखाएंगे और फिर पगार का देखेंगे। लेकिन मुझे रहना-खाना उन्होंने दिया। तब तो मेरे लिए इतना भी बहुत था। क्योंकि मुझे लगता था कि काम सीखने के बाद, मैं जरूर कुछ अच्छा कर लूंगा। इसके बाद, मैं बस एक लाख रुपए कमाऊंगा और अपने गांव लौट जाऊंगा। वहां जाकर ट्रैक्टर खरीदकर, मैं और पिताजी अच्छे से खेती करेंगे,” विरल ने कहा। 

250 रुपए मिली पहली तनख्वाह 

उन्होंने आगे बताया, “मुझे खाना और रहना तो मिल रहा था पर घर की बहुत याद आती थी। उस जमाने में फ़ोन की उतनी सुविधा नहीं थी कि आपका जब मन हुआ तब घरवालों से बात हो गई। उन दिनों मैं बहुत रोता था, घर की याद आती थी। कई बार तो दुकान में झाड़ू-पौंछा लगाते हुए रोता रहता था। फिर लगने लगा कि अब मुंबई आ गया हूं, तो कुछ करना है। कम से कम इतना कमाना है कि घर पर चार बहनों को और छोटे भाई को अच्छी ज़िन्दगी मिले। इसलिए मैं पूरे मन से काम करता रहा और सीखता रहा कि स्टेशनरी का बिज़नेस कैसे चलता है।”

लगभग छह महीने बाद, विरल को उनकी पहली कमाई मिली। उन्हें पहली बार हाथ में 250 रुपए मिले तो उनकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था। उसमें से कुछ पैसे उन्हें अपने लिए रखे और बाकी सब घर पर भेज दिए। विरल कहते हैं कि उन्होंने ढाई साल तक उस दुकान में काम किया। इसके बाद, एक दूसरी दुकान में काम करने लगे। लेकिन दूसरों के यहां नौकरी करते हुए, उनका ध्यान हमेशा इस बात पर रहा कि एक दिन वह अपना खुद का कारोबार करेंगे। “घर पर पैसों की तंगी थी, लेकिन नौकरी में सिर्फ गुजारा हो सकता था। मैं चाहता था कि मेरा परिवार अच्छी ज़िंदगी जिए। जैसे किसी ने मुझे काम दिया है, वैसे मैं और लोगों को काम दूं। इसलिए बिज़नेस करना तो पक्का था,” वह बताते हैं। 

पुराने दिन

साल 1987 में विरल को उनके एक दूर के रिश्तेदार ने ठाणे बुलाया। वह ठाणे में अपनी एक स्टेशनरी की दुकान खोलने जा रहे थे और चाहते थे कि विरल इसे संभाल लें। क्योंकि, विरल मेहनती थे और उन्हें काम पता था। विरल इसे अपनी किस्मत मानते हैं कि उन्हें यह मौका मिला। क्योंकि, इस दुकान को संभालते हुए उनकी काफी बचत हुई। इसी बचत से कुछ सालों बाद, उन्होंने अपना खुद का बिज़नेस जमाना शुरू किया। उन्होंने कहा कि कुछ पैसे उनके पास थे और कुछ उन्होंने अपने रिश्तेदारों से उधार लिए, ताकि वह ठाणे में अपनी स्टेशनरी की दुकान शुरू कर सकें। 

यह रिस्की तो था, लेकिन विरल यह रिस्क लेना चाहते थे। क्योंकि, उन्हें खुद की मेहनत पर बहुत भरोसा था। उन्हें लगा कि एक बार तो उन्हें खुद को मौका देना चाहिए और इसके बाद जो होगा, वह किस्मत। उन्होंने कहा, “अपनी दुकान को चलाने के लिए मैंने बहुत मेहनत की। उस जमाने में, मैं हमेशा शाम के चार बजे खाना खा पाता था। लेकिन कभी अपने ग्राहकों को वापस नहीं लौटने दिया। क्योंकि यह बात मैंने समझ ली थी कि आप ग्राहक का आदर नहीं करेंगे तो आपको भी आदर नहीं मिलेगा।” 

बिज़नेस के प्रसार पर दिया जोर 

साल 2000 तक उनका स्टेशनरी का काम अच्छा चलने लगा था। उनकी कमाई भी ठीक हो रही थी और इसलिए उन्होंने और दो-तीन जगह अपने स्टोर खोल दिए थे। लेकिन विरल इतने से संतुष्ट नहीं थे और शायद कहीं न कहीं उन्हें पता था कि वह बहुत आगे तक जा सकते हैं। “बिज़नेस में आपको हमेशा अलग-अलग चीजें करनी चाहिए, क्योंकि बाजार का किसी को नहीं पता। इसलिए मैं हमेशा अलग-अलग सेक्टर के बारे में जानकारी जुटाता रहता था कि किस सेक्टर में क्या मुनाफा या रिस्क है। ऐसे में, एक बार मुझे एक जाननेवाले ने सलाह दी कि खाने के बिज़नेस में कभी रिसेशन नहीं आता है। अगर कुछ हुआ, तो हो सकता है धंधा मंदा पड़ जाये पर बंद नहीं होगा। क्योंकि खाना सबको चाहिए और मुंबई जैसी जगह पर खाने का बिज़नेस चलना ही चलना है,” उन्होंने कहा। 

आज हैं 14 आउटलेट

विरल को यह बात जंच गयी, क्योंकि यह सच्चाई है। इसलिए साल 2005 में उन्होंने ‘गौरव स्वीट्स’ की नींव रखी। गौरव स्वीट्स के लिए पहले दिन से ही उनका उद्देश्य रहा कि मुंबई में अलग-अलग कोने से आये लोगों की जरूरतों को पूरा करना है। वह कहते हैं, “मुंबई पचरंगी शहर है। यहां देश के हर हिस्से से लोग आकर बसे हुए हैं। इसके अलावा, कोई निम्न वर्गीय है, तो बहुत हाई-फाई। लेकिन अपने आउटलेट के माध्यम से हम सभी को सर्व करना चाहते थे। इसलिए हमने सिर्फ एक या दो मिठाई पर फोकस करने की बजाय वैरायटी पर ध्यान दिया।” 

फिर मिठाई के साथ-साथ उन्होंने नमकीन, सेव, चिप्स जैसे उत्पाद भी लॉन्च किये, ताकि ग्राहकों को कहीं और न जाना पड़े। इसके बाद, उन्होंने अपने आउटलेट में लोगों के लिए खाने के विकल्प भी रखे जैसे पावभाजी, वडा पाव आदि। विरल कहते हैं, “मैं किसान का बेटा हूं। इसलिए न तो कभी मेहनत करने से पीछे हटा और न ही रिस्क लेने से। इसी का नतीजा है कि आज हमारे 14 आउटलेट हैं और एक फैक्ट्री प्लांट है। इन सब जगहों पर लगभग 350 लोग काम करते हैं। पिछले साल हमारा टर्नओवर 25 करोड़ रुपए रहा है। अगर कोरोना महामारी की वजह से लॉकडाउन न हुआ होता, तो यह 30 से ऊपर होता। लेकिन मैं संतुष्ट हूं कि मेरे हिस्से की कामयाबी मुझे मिल रही है और मैं अपने परिवार के साथ-साथ इन 350 लोगों के परिवार के लिए कुछ भी कुछ कर पा रहा हूं,” उन्होंने कहा। 

गांव में भी बनाया रोजगार का साधन 

आते-जाते रहते हैं गांव

विरल ने न सिर्फ मुंबई में अपने लिए आशियाना बनाया है, बल्कि गांव में भी अपने आशियाने को संवारा है। उनके माता-पिता आज भी गांव में ही रहते हैं। कभी-कभी ही वे मुंबई आते हैं पर शहर उन्हें ज्यादा भाता नहीं है। इसलिए विरल महीने-दो महीने में गांव पहुंच ही जाते हैं। उन्होंने बताया कि कच्छ में अब उनकी लगभग 200 एकड़ जमीन है, जिस पर सिर्फ जैविक खेती की जा रही है। उनके खेतों पर गौपालन भी होता है। इन सबकी देखभाल के लिए उन्होंने गांव के लोगों को ही काम पर रखा है। 

“इस तरह से हम गांव से जुड़े हुए हैं, क्योंकि मैं अपनी जड़ों को नहीं भूल सकता हूं। साथ ही, गांव के लोगों को गांव में रोजगार का साधन मिले, इससे अच्छा और क्या हो सकता है। इसलिए मैं बीच-बीच में जाकर खेतों पर काम देख आता हूं और माता-पिता के साथ भी समय बिताता हूं। मैं सबको बस यही सलाह देता हूं कि जैसे बैंक लॉकर की दो चाभी होती है, एक आपकी, एक मैनेजर की। वैसे ही हमारी भी दो चाबी हैं, एक मेहनत की तो दूसरी किस्मत की। आप मेहनत करते रहिये, किस्मत की चाबी अपने-आप, आप तक पहुंच जाएगी,” उन्होंने अंत में कहा। 

संपादन- जी एन झा

तस्वीर साभार: विरल पटेल

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