Site icon The Better India – Hindi

इस महिला गुप्तचर ने बीमार हालत में काटी कारावास की सजा, ताकि देश को मिले आज़ादी!

साल 1920 के आस-पास का समय वह था जब क्रांतिकारी आंदोलनों में छात्र-छात्राओं की सक्रियता बढ़ रही थी। खासकर कि बंगाल में, जहां सिर्फ लड़के नहीं बल्कि युवा लड़कियां भी हर एक सीमा को पार करके आज़ादी की लड़ाई में कूद पड़ी थीं। अंग्रेजी सरकार के खिलाफ प्रदर्शन करना, धरने देना, स्वतंत्रता सेनानियों को गुप्त संदेश पहुँचाना और यहाँ तक कि उनके लिए हथियार इकट्ठे करके पहुँचाना, ये सब काम भारत की बेटियां निर्भीक होकर कर रहीं थीं।

हर विद्यार्थी किसी न किसी क्रांतिकारी दल से जुड़ा था और ब्रिटिश अफसरों को मार गिराने के लिए तत्पर था। 21 साल की बीना दास ने जब बंगाल के गवर्नर स्टेनले जैक्सन पर भरी सभा में गोलियां चलाई तो इस घटना ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया। इस लड़की के साहस ने न सिर्फ अंग्रेजों के दिलों में डर भरा बल्कि स्त्रियों के प्रति भारतीयों की रुढ़िवादी सोच को भी चुनौती दी।

यह भी पढ़ें: बीना दास : 21 साल की इस क्रांतिकारी की गोलियों ने उड़ा दिए थे अंग्रेज़ों के होश!

बीना दास की ही तरह और भी न जाने कितनी ही बेटियां थी भारत की, जिन्होंने आज़ादी के संग्राम में अपनी जान की बाजी लगाई। कारावास की यातनाएं सहने से लेकर सीने पर गोली खाने तक, किसी भी अंजाम से वे पीछे नहीं हटीं।

Bina Das

‘भारतीय क्रांतिकारी वीरांगनाएं’ किताब में रामपाल सिंह और विमला देवी ने लिखा है कि यह वह दौर था जब अंग्रेजी अफसर बंगाल में अपनी पोस्टिंग होने से डरने लगे थे। कई अफसरों ने अपना तबादला कराने के लिए सिफारिशें कीं, क्योंकि उन्हें डर था कि यहाँ कोई भी विद्यार्थी उन्हें कभी भी गोलियों से भून सकता है।

हमारे इतिहास की कमी यह है कि ब्रिटिश सरकार को जड़ से उखाड़ फेंकने की नींव जिन लोगों ने रखी, उनमें से सिर्फ कुछ लोगों को ही सही पहचान मिल पाई। अन्य क्रांतिकारी और विशेषकर महिला क्रांतिकारियों के नाम आज भी इतिहास के पन्नों से नदारद हैं।

यह भी पढ़ें: मंगल पांडेय से 33 साल पहले इस सेनानी ने शुरू की थी अज़ादी की जंग!

ऐसा ही एक नाम है, वनलता दास गुप्ता। बहुत ही कम जानकारी उपलब्ध है इस वीरांगना के बारे में। कुछ तथ्यों के मुताबिक, उनका जन्म साल 1915 में विक्रमपुर (अब ढाका में) में हुआ था। वनलता को बचपन से ही श्वास की बीमारी थी, लेकिन उनकी बीमारी कभी भी उनके राष्ट्र-प्रेम के बीच न आ सकी।

वनलता पढ़ाई के साथ-साथ खेल-कूद, व्यायाम करने और मोटर गाड़ी चलाने का प्रशिक्षण लेने में भी व्यस्त रहतीं थीं। उनकी बीमारी की वजह से उनके माता-पिता नहीं चाहते थे कि वह घर से बाहर जाएं। लेकिन बचपन से ही सेनानियों की गाथा सुनने वाली वनलता का मन था कि वह भी अन्य छात्र-छात्राओं के साथ मिलकर राष्ट्र की सेवा करें।

A book by Rampal Singh and Vimala Devi

उन्होंने जैसे-तैसे साल 1933 में कॉलेज में दाखिला लिया और हॉस्टल में रहने लगीं। यहाँ पर उनका संपर्क बहुत से क्रांतिकारियों से हुआ और धीरे-धीरे वह उनके दलों का हिस्सा बन गईं। अन्य छात्रों की तरह, वह भी ज़रूरी सूचनाएं और गुप्त संदेश सेनानियों तक पहुंचाती थीं। उन्होंने रिवाल्वर चलाना भी सीखा और उनके पास खुद की भी एक रिवॉल्वर रहती थी।

बताया जाता है कि हॉस्टल में वह अपना रिवॉल्वर अपनी एक दोस्त ज्योतिकणा दत्त के कमरे में छिपाकर रखतीं थीं। एक बार हॉस्टल में चोरी हुई और सभी छात्राओं के कमरे की तलाशी ली गई। ज्योतिकणा के कमरे से रिवॉल्वर बरामद हुई तो तुरंत इसकी सूचना ब्रिटिश पुलिस को मिली। कड़ी पूछताछ के दौरान, उन्होंने वनलता का नाम उगला।

इसके बाद, वनलता के कमरे में छापा मारा गया। लेकिन पुलिस को वहां क्रांतिकारी साहित्य के अलावा और कुछ नहीं मिला। अदालत में भी वनलता पर कोई आरोप सिद्ध नहीं हुआ। पर वनलता का नाम ब्रिटिश अफसरों की नज़रों में आ चुका था और वे उनकी हर गतिविधि पर कड़ी नज़र रख रहे थे।

ज्योतिकणा को हथियार रखने के जुर्म में चार साल कारावास की सजा हुई। वनलता पर कोई आरोप नहीं था, लेकिन फिर भी अंग्रेजों ने उन्हें तीन साल कारावास की सजा दी। खड़गपुर के हिजली जेल में दोनों सहेलियों को साथ में रखा गया। उनसे अक्सर क्रांतिकारियों के बारे में पूछताछ की जाती पर वे जुबान नहीं खोलती थीं। उनका राष्ट्रप्रेम हर एक यातना से बढ़कर था।

जेल में सही दवाइयां और ढंग का खाना न मिलने के कारण, वनलता की तबीयत बिगड़ने लगी। उनकी बीमारी के चलते उन्हें रिहा किया गया लेकिन उन्हें घर में ही नज़रबंद रहने के आदेश मिले। अंग्रेज उनपर कड़ी नज़र रखते कि कहीं वह क्रांतिकारियों से तो नहीं मिल रही हैं। जिस वजह से उन्हें घर पर भी उचित स्वास्थ्य सेवा नहीं मिल रही थी।

वनलता का स्वास्थ्य दिन-प्रतिदिन गिरता ही जा रहा था और फिर साल 1936 में मात्र 21 साल की उम्र में उनकी मृत्यु हो गई। वनलता चाहतीं तो आराम से घर में रहते हुए एक अच्छी ज़िंदगी गुज़ार सकतीं थीं। लेकिन उन्होंने राष्ट्रप्रेम को खुद से पहले रखा और अपनी बीमारी के बावजूद क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लेतीं रहीं।

यह उनके जैसे वीर और वीरांगनाओं का बलिदान ही है, जो आज हम आज़ाद भारत में सांस ले रहे हैं। द बेटर इंडिया, भारत की इन बेटियों को सलाम करता है!

वनलता दास गुप्ता की ही तरह बहुत से ऐसे गुमनाम नायक-नायिकाएं हैं, जिनकी तस्वीरें तक उपलब्ध नहीं हैं।

यह भी पढ़ें: एक महिला सेनानी का विरोध-प्रदर्शन बन गया था ब्रिटिश सरकार का सिरदर्द!

#अनदेखे_सेनानी, सीरीज़ में हमारी यही कोशिश रहेगी कि आज़ादी के इन परवानों की कहानियां हम आप तक पहुंचाएं। यदि आपको कहीं भी इनकी तस्वीरें मिलें तो हमें ईमेल (hindi@thebetterindia.com) करें या फेसबुक या ट्विटर के माध्यम से कमेंट या मैसेज में बताएं!

संपादन – अर्चना गुप्ता


यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है, या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ साझा करना चाहते हो, तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखें, या Facebook और Twitter पर संपर्क करें। आप हमें किसी भी प्रेरणात्मक ख़बर का वीडियो 7337854222 पर व्हाट्सएप कर सकते हैं।

Exit mobile version