एक महिला सेनानी का विरोध-प्रदर्शन बन गया था ब्रिटिश सरकार का सिरदर्द!

अंग्रेजों द्वारा शराब की दुकान खोलने और अफीम उगाने के विरोध में बसंतलता और उनकी महिला साथियों ने मोर्चा खोला था। ये 'स्वदेशी आंदोलन' इस कदर बढ़ा कि अंग्रेजों को इसे रोकने के लिए सर्कुलर निकालना पड़ा!

भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान शायद ही कोई प्रांत होगा, जहाँ तक महात्मा गाँधी का असहयोग आंदोलन नहीं पहुंचा था। इस आंदोलन से पूरे देश में क्रांति की लहर दौड़ गई थी। गाँधी जी और स्वतंत्रता सेनानियों ने मिलकर ‘स्वदेशी’ की संकल्पना को घर-घर तक पहुँचाया।

कहते हैं कि इस आंदोलन ने हर भेदभाव को हटाकर सभी भारतीयों में राष्ट्रप्रेम की भावना को जगाया और लोगों ने अपने देश और देशवासियों के महत्व को समझा। इस आंदोलन के ऐतिहासिक होने की कई वजहें थीं जैसे कि लोगों का गली-मोहल्लों में बिना किसी डर के अंग्रेजी वस्तुओं का बहिष्कार करना, ब्रिटिश सरकार की रातों की नींदे उड़ जाना!

एक और खास बात इस आंदोलन को ऐतिहासिक बनाती है और वह है इसमें भारतीय महिलाओं का योगदान। यदि महिलाएं गाँधी जी के आह्वाहन पर अपने घरों से निकलकर इस आंदोलन का हिस्सा न बनतीं तो शायद इस आंदोलन का इतना व्यापक प्रभाव न पड़ता।

देश के कोने-कोने से महिलाओं ने इस आंदोलन में भाग लिया था। बस विडंबना की बात यह है कि इनमें से कुछ गिनतीभर नाम ही हमारे इतिहास के पन्नों में दर्ज हुए और बाकी वक़्त के साथ कहीं धुंधले से पड़ गए।

Non-co-operation Movement
Women during Non- Co-operation Movement

ऐसा ही एक नाम है बसंतलता हज़ारिका- देश की वह वीर बेटी, जिसने स्वतंत्रता संग्राम की मशाल को हाथ में लेकर बाकी महिलाओं को भी राष्ट्रप्रेम की राह दिखाई। लेकिन आज इनके बारे में सिर्फ चंद जगहों पर ही पढ़ने को मिलता है और इनकी तस्वीर तो ढूंढे भी नहीं मिलती।

भारत की आज़ादी के लिए असम की इन महिलाओं के योगदान को कोई भी अनदेखा नहीं कर सकता। इन महिलाओं ने दूरगामी गांवों में भी ब्रिटिश सरकार की खिलाफत का बिगुल बजाया था। साल 1930-31 में हर जगह महिलाओं द्वारा ब्रिटिश सरकार को देने वाली चुनौती देखने लायक थी।

सुबह 4-5 बजे उठ कर प्रभात फेरी निकालना और जोशीले नारों से लोगों का उत्साहवर्धन करना, शराब और गांजे के उत्पादन के विरोध में धरने देना, विदेशी सामान बेच रही दुकानों में जाकर प्रदर्शन करना और उन्हें समझाना, स्कूल-कॉलेज के छात्रों को प्रेरित करना, यह सब पहल महिलाओं ने खुद कीं।

बसंतलता हज़ारिका ने अपनी साथी महिला, स्वर्णलता बरुआ और राजकुमारी मोहिनी गोहैन के साथ मिलकर, महिलाओं की एक विंग, ‘बहिनी’ की स्थापना की। उनकी यह नारी बहिनी जगह-जगह जाकर ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीतियों के विरोध में मोर्चे निकालती थी।

शराब की दुकानों और अफीम उगाने के विरोध में इन महिलाओं के धरनों ने ब्रिटिश सरकार को परेशान कर दिया था। कहते हैं कि बसंतलता के यह धरने ब्रिटिश अफसरों के सिर का दर्द बन गए थे और उनको देखते-देखते और भी महिलाएं सड़कों पर उतर आईं थीं।

इतना ही नहीं, बसंतलता और उनकी ‘बहिनी’ ने असम के छात्रों के लिए भी लड़ाई लड़ी। स्कूल-कॉलेज के छात्रों को बड़ी संख्या में आंदोलन में भाग लेते देख, ब्रिटिश सरकार ने उनके खिलाफ एक सर्कुलर निकाला। इसके मुताबिक, कोई भी छात्र यदि आंदोलन में भाग लेगा तो उसे स्कूल या कॉलेज से निकाल दिया जाएगा।

उन्होंने सभी छात्रों और उनके माता-पिता को लिखित में यह देने के लिए कहा कि उनके बच्चे किसी भी तरह के विरोध-प्रदर्शन में हिस्सा नहीं लेंगे। यदि कोई भी माता-पिता यह लिखित में नहीं देते हैं तो वे अपने बच्चों को स्कूल या कॉलेज से निकाल सकते हैं।

इस सर्कुलर का पूरे असम में पुरजोर विरोध हुआ। बसंतलता और उनकी महिला साथियों ने कॉटन कॉलेज के बाहर धरना देना शुरू किया। इस सर्कुलर से डरने की बजाय लोगों ने इसे अपने अधिकारों का हनन समझा और इसे मानने से इंकार कर दिया।

इन महिलाओं को धरने से हटाने के लिए ब्रिटिश सरकार ने घोषणा करवाई कि अगर वे पीछे नहीं हटीं तो उनपर लाठी-चार्ज किया जाएगा। लेकिन एक भी महिला कॉलेज के सामने से नहीं हिली, बल्कि उन्होंने इस बात के इंतज़ाम किए कि अगर लाठी-चार्ज में किसी को चोट आई तो फर्स्ट-ऐड उपलब्ध हो।

लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। कॉटन कॉलेज के प्रशासन ने कुछ दिनों के लिए कॉलेज को बंद करवा दिया और छात्रों को छुट्टी मिल गई। इसके बाद, महिलाओं ने भी अपने धरने बंद कर दिए क्योंकि अब कॉलेज में कोई नहीं आ रहा था।

बसंतलता और उनकी साथी महिलाओं ने समाज में महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई के साथ-साथ देश की आज़ादी की लड़ाई में भी पूरा योगदान दिया। लेकिन उनके बारे में इससे ज्यादा कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। उनकी ही तरह बहुत से ऐसे गुमनाम नायक-नायिकाएं हैं, जिनकी तस्वीरें तक उपलब्ध नहीं हैं।

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संपादन- अर्चना गुप्ता


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