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इस भारतीय फिल्म में पहली बार चली थी सेंसर की कैंची, स्वदेसी कैमरे से बनी थी फिल्म!

भारत के अग्रणी फिल्म निर्माताओं में से एक महत्वपूर्ण नाम है बाबूराव कृष्णराव मिस्त्री उर्फ़ बाबूराव पेंटर का। बाबूराव का जन्म 1890 में महाराष्ट्र के कोल्हापुर में हुआ था। फिल्म उद्योग में आने के बाद जब बाबूराव ने रात में फिल्म शूटिंग करने का विचार किया तो लोगों ने उनकी इस बात को बिलकुल भी गंभीरता से नहीं लिया। कई लोगों ने उन्हें चेताया कि सही रोशनी नहीं मिलने के कारण रात को शूटिंग करना सही नहीं होगा। कई लोगों ने तो उनका मज़ाक भी उड़ाया। लेकिन बाबूराव अपने विचार पर अडिग रहे और उन्होनें वह कर दिखाया जिसे कई लोग असंभव मान रहे थे।

यह साल 1923 की बात है जब एडवांस तकनीक और शूटिंग उपकरण भारत नहीं पहुँचे थे। बाबूराव एक मराठी फिल्म सिंहगढ़ की शूटिंग कर रहे थे। एक दृश्य के लिए उन्होंने शॉट से कुछ सेकंड पहले किलों में इस्तेमाल होने वाले गनपाउडर पैकेट का इस्तेमाल कर आर्टिफिशियल लाइट का प्रयोग किया और रात में शूट किया। जिसके लिए अगले साल लंदन में वेम्बले प्रदर्शनी में उन्हें सम्मानित भी किया गया।

आज के समय में, फिल्मों में आर्टिफिशिअल लाइटिंग का इस्तेमाल बेहद आम है लेकिन आज से करीब सौ साल पहले यह शायद पहली बार था जब किसी ने आर्टिफिशिअल लाइटिंग का इस्तेमाल किया था।

यह कोई पहला मौका नहीं था जब बाबूराव ने सिनेमा के पारंपरिक मानदंडों को तोड़ा था और अपने नियम बनाए थे।

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अफसोस की बात है कि बहुत से लोग भारतीय फिल्म उद्योग में उनके अद्वितीय योगदान के बारे में नहीं जानते हैं। इसका एक प्रमुख कारण यह है कि अक्सर कैमरे के पीछे के लोगों को कम महत्व दिया जाता है। इसके अलावा, वह अपनी पहचान फिल्म जगत के पिता माने जाने वाले दादा साहब फाल्के के बराबार बनाने में व्यस्त थे।

लेकिन बाबूराव एक ऐसे शख्स थे जिन्होंने कभी किसी तरह के तवज्जो की मांग नहीं की। उनका प्राथमिक ध्यान अपनी मनोरंजक फिल्मों के माध्यम से सामाजिक मुद्दों के बारे में जागरूकता फैलाना था।

 

अपने दम पर बनाए रास्ते और पाई मंज़िल

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बाबूराव ने अपने चचेरे भाई, आनंदराव पेंटर के साथ एक पेंटर के रूप में अपना करियर शुरू किया था। दोनों भाईयों की जोड़ी ने थिएटर और नाटक मंडली में अपनी कलाकृतियों के माध्यम से एक उल्लेखनीय छाप छोड़ी। दोनों भाई संगीत, नाटक और गुजराती पारसी थियेटर के लिए बैकग्राउंड और पर्दे डिज़ाइन करते थे। इस काम ने उन्हें अभिनय  और नाटकों की शानदार और आकर्षक दुनिया से परिचित कराया और फिर धीरे-धीरे उनकी पहुँच मूक फिल्मों तक हो गई।

भारत की पहली फीचर फिल्म, राजा हरिश्चंद्र को देखने के बाद,  बाबूराव की दिलचस्पी और बढ़ी और उन्होंने और फिल्में देखना शुरू किया।

एक दिन, बाबूराव ने अपना कैमरा बनाने का फैसला किया। इसके लिए उन्होनें फाल्के से संपर्क किया, जिन्होंने जर्मनी से एक फिल्म कैमरा खरीदा था। बाबूराव के मन में कई सवाल थे और वह काफी उत्साहित थे लेकिन फाल्के के साथ मुलाकात से बात नहीं बनी।

बाबूराव ने हार नहीं मानी। उन्होंने एक सेकेंड हैंड प्रोजेक्टर के साथ अपना कैमरा बनाने का फैसला किया। 1918 में, अपने चचेरे भाई, आनंदराव और शिष्य, वी. जी. डामले की मदद से उन्होंने कैमरा बना ही लिया।

‘मुरलीवाला’ फिल्म का एक दृश्य source

1919 में, बाबूराव ने अपने दोस्तों के साथ कोल्हापुर में अपनी फिल्म कंपनी, महाराष्ट्र फिल्म कंपनी की स्थापना की, जिसमें भारत के बेहतरीन फिल्म निर्माता, वी शांताराम भी शामिल थे। बाद में कंपनी को बंद करना पड़ा क्योंकि कुछ सदस्य प्रभात फिल्म कंपनी में शामिल हो गए थे।

एक साल बाद, बाबूराव अपनी पहली फिल्म, सौरंध्री की शूटिंग के लिए तैयार थे। यह फिल्म पौराणिक महाकाव्य, महाभारत पर आधारित थी। फिल्म की कहानी खलनायक केचक और सौरंध्री के इर्द-गिर्द घूमती है, वह पात्र जिसे निर्वासन के तेरहवें वर्ष में द्रौपदी द्वारा अपनाया गया था।

इस फिल्म ने ब्रिटिश सरकार का ध्यान आकर्षित किया जिन्होंने बाबूराव को फिल्म के एक दृश्य को सेंसर करने के लिए कहा। यह भारत में सेंसरशिप की पहली घटना थी।

मराठी फिल्म निर्माता और चित्रकार, चंद्रकांत जोशी ने इंडियन एक्सप्रेस के साथ बात करते हुए बताया, “सौरंध्रि में एक दृश्य है जिसमें भीम को कीचक को मारते हुए दिखाया गया है। यह इतना वास्तविक लगता था कि पहले कुछ शो के दौरान, दर्शकों में बैठी महिलाओं ने इसे सच मान कर चिल्लाना शुरू कर दिया था। हालांकि ऐसा कोई दस्तावेज नहीं है जिससे पता चले कि दृश्य को संपादित किया गया था। एक प्रतिनिधि स्क्रीनिंग से पहले घोषणा करता था कि इसे प्रॉप का उपयोग करके शूट किया गया था।”

आलोचकों की प्रशंसा और लोगों पर इस फिल्म का जो प्रभाव पड़ा उसने बाबूराव को और अधिक फिल्में बनाने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने 18 मूक फिल्में और नौ टॉकीज फिल्में बनाई हैं।

ऐसे समय में जब फाल्के जैसे फिल्मकारों के फिल्मों की कहानियाँ मिथकों और विश्वास के आसपास केंद्रित होती थी तब बाबूराव ने असामान्य रास्ता अपनाया। उन्होंने यथार्थवाद और सामाजिक मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया।

कोल्हापुर में बना बाबूराव पेंटर मेमोरियल source

जैसे कि उनकी फिल्म, सवकारी पाश (1925) ने कर्ज में डूबे गरीब किसानों की दुर्दशा को उजागर किया गया है। हालाँकि, फिल्म को सफलता नहीं मिली क्योंकि उस समय के दर्शक एक काल्पनिक दुनिया को पसंद करते थे।

इस बीच, उनकी एक अन्य फिल्म, सिंहगढ़ काफी लोकप्रिय हुई। इस फिल्म को कई लोगों ने देखा और सराहना की। इसने राजस्व विभाग को मनोरंजन कर लागू करने के लिए प्रेरित किया, यह एक और घटना थी जो जो बाबूराव के माध्यम से आई थी।

अपनी खुद की फिल्मों को निर्देशित करने के अलावा, उन्होंने कई अन्य पहलुओं का भी ध्यान रखा जैसे, सेट डिजाइनिंग, स्क्रीनप्ले लिखना, फिल्मों के कैरेक्टर बनाना और कॉस्ट्यूम डिजाइन करना। बाबूराव ने तकनीकी प्रगति में भी काफी योगदान दिया जैसे उन्होंने आर्टिफिशिअल लाइट, रिफ्लेक्टर और थ्री-डायमेंशन स्पेस की शुरूआत की।

वह शायद भारत के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने फिल्म के प्रचार के महत्व को समझा। इसके लिए, वह पैम्पलेट और बुकलेट डिजाइन करते थे।

बाबूराव एक समय में कई चीजों को पूरा करने में कामयाब रहे जब फिल्म निर्माण पर कोई इंटरनेट, मार्गदर्शन या औपचारिक शिक्षा नहीं थी। उन्होंने हमारे उद्योग को ऐसे पहलू दिए जिनके बिना फिल्म निर्माण की कल्पना नहीं की जा सकती है।

कई उपलब्धियाँ अपने नाम करते हुए, बाबूराव ने 1954 में इस दुनिया को अलविदा कह दिया। वह सही मायने में, एक दूरदर्शी फिल्म निर्माता थे।

मूल लेख- GOPI KARELIA

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