ग़ालिब को आपके बुक शेल्फ तक पहुंचाने वाले मुंशी नवल किशोर की कहानी!

वह उन चंद लोगों में से एक थे जिन्होंने प्रिंटिंग के काम का व्यवसायीकरण किया और सस्ती कीमतों पर किताबें प्रिंट करवायी, जिससे ज्ञान, साहित्य और विज्ञान जैसे कठिन विषयों की पहुंच आम लोगों तक हुई!

भारत में प्रिंटिंग का इतिहास 1556 में शुरु हुआ जब पुर्तगाल के जेसुइट मिशनरियों ने गोवा में पहला प्रिंटिंग प्रेस स्थापित किया था। 1577 में पुर्तगाली टेक्स्ट का तमिल अनुवाद डॉक्ट्रिना क्रिस्टम प्रकाशित हुआ जो भारतीय भाषा का पहला अनुवाद था। लेकिन अगली दो शताब्दियों में यूरोप ने भी प्रिंटिंग टेक्स्ट की दिशा में कदम बढ़ाया और आधुनिक वैज्ञानिक आविष्कार के रूप में भारत में भी प्रेस का विकास हुआ।

विद्वानों का कहना है कि मुगलकाल में खूबसूरती से लिखे गए और सचित्र पांडुलिपियों का बोलबाला था। उस वक्त लोगबाग प्रिंटेड टेक्स्ट की बजाय हाथ से लिखे टेक्स्ट को ही ज़्यादा पसंद करते थे। इसलिए इस मशीन की क्षमता का विकास नहीं हो पाया।

प्रेस ने 18 वीं शताब्दी के अंत में लोकप्रियता हासिल करना शुरू किया जब मिशनरियों ने मुकदमा चलाने और निर्देश के लिए छपाई करना शुरू कर दिया। जल्द ही भारतीयों को प्रिंट की शक्ति का एहसास हुआ और 19 वीं शताब्दी के अंत तक बड़े पैमाने पर कई भारतीय भी प्रिंटिंग प्रेस का उपयोग करने लगे।

प्रिंट के इस व्यवसायीकरण ने पठन, प्रकाशन और मुद्रित सामग्री को एक ऐसे वर्ग तक पहुंचाया जो अधिक साक्षर हो रहे थे। आगे चलकर प्रिंट माध्यम से राष्ट्रीय चेतना के निर्माण में मदद मिली जो अंततः ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने के लिए काम आया।

मुंशी नवल किशोर (1836-1895) प्रिंट मीडियम के पहले खोजकर्ता नहीं थे। वह एक प्रसिद्ध लेखक भी नहीं थे, जिसने कई लोगों को पढ़ने के लिए प्रेरित किया, और न ही वह एक प्रारंभिक भारतीय राष्ट्रवादी थे, जिन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ प्रतिरोध के लिए इस माध्यम का उपयोग किया। फिर भी उनका नाम लेखकों और पाठकों की मदद और व्यापक जनता को प्रिंट की क्षमता का एहसास दिलाने एवं लोगों में क्रांति की ज्वाला भड़काने के लिए याद किया जाता है।

History of Book Publishing
The Nawal Kishore Road in Lucknow, Uttar Pradesh. Source: Guzashta Lakhnau/Facebook

वह उन चंद लोगों में से एक थे जिन्होंने प्रिंटिंग का व्यवसायीकरण किया और सस्ती कीमतों पर प्रिंटिंग टेक्स्ट का प्रसार किया, जिससे ज्ञान, साहित्य और विज्ञान तक लोगों की पहुंच को सुगम बनाया। उनका अधिकांश मुद्रण हिंदी में था और उर्दू ने भी इस प्रक्रिया में योगदान दिया जो कि 19 वीं शताब्दी के सबसे महत्वपूर्ण विकासों में से एक था लेकिन अक्सर इस पर छिपकर काम किया जाता था।

नवल किशोर प्रेस – दशकों तक उत्तर भारतीय मुद्रण पर हावी रहा

मुंशी नवल किशोर की कहानी की झलक ब्रिटिश प्रशासन के अधीन उत्तर भारत की सामाजिक और राजनीतिक गतिशीलता को बदलने में नजर आती है। उनकी कहानी एक साहस की कहानी है – उद्यम से जुड़े उत्साह और महत्वाकांक्षा का एक उदाहरण।

नवल किशोर के पूर्वज 14वीं शताब्दी में सरकरी बाबू हुआ करते थे। वे सभी मुगलों (यहां तक ​​कि मराठों) के दरबार में काम करते थे। सेवा के बदले उन्हें जागीरें मिलती थी। उनकी एक जागीर अलीगढ़ के पास सासनी में थी जहां 1836 में नवल किशोर का जन्म हुआ था।

परिवार में संस्कृत विद्या हासिल करने की परंपरा थी और युवा नवल किशोर संस्कृत विषय में निपुण हो गए। परिवार का मुगलों से संबंध होने के कारण पारसियों से भी मेलजोल था। इसलिए नवल किशोर इस साझी सांस्कृतिक परंपरा में पले बढ़े थे। उन्हें 1852 में आगरा कॉलेज में दाखिला मिला और रिकॉर्ड से पता चलता है कि उन्होंने इस प्रसिद्ध संस्थान में फारसी के अलावा अंग्रेजी भी सीखी।

Source: Amar Ravindra Gangji‎/Facebook

रिकार्ड के अनुसार नवल किशोर स्नातक की पढ़ाई पूरी नहीं कर सके थे।
1854 में वह लाहौर चले गए और कोह-ए-नूर प्रेस के कर्मचारी बन गए जिन्होंने अन्य चीजों के साथ, पंजाब का पहला उर्दू अखबार कोह-ए-नूर भी प्रकाशित किया। यह अप्रेंटिसशिप 1857 तक चली हालांकि बीच में कुछ समय का अंतराल भी था, लेकिन इस शुरुआत से उन्हें समझ में आ गया कि भविष्य में उनका करियर क्या होगा।

1856 की शुरुआत में किशोर आगरा लौट आए और कुछ समय के लिए अपना एक अखबार सफीर-ए-आगरा निकाला। उस साल के बाद वह लाहौर लौट आए और 1857 के अंत तक वहीं रहे और फिर आगरा चले गए।

ऐसा प्रतीत होता है कि वह इस समय औपनिवेशिक शासन को मंजूरी देकर अंग्रेजों का पक्ष लेने में सफल रहे। वह प्रेस से जुड़े थे और यह खबर ब्रिटिश के कानों तक पहुंच गयी थी। उन्हें ब्रिटिश क्रॉनी से हटाने की धमकी भी दी गयी लेकिन उनका नजरिया उन पेशेवर वर्गों से अलग था जो ब्रिटिशों से डर जाया करते थे। हर काम में उन्होंने उसका फायदा उठाया। अधिकांश पुराने प्रेस बंद हो गए और उनकी निष्ठा संदेह से परे रही, किशोर सही समय पर सही जगह पर सही व्यक्ति साबित हुए।

कुछ महीनों बाद 1858 में, वह लखनऊ चले गए, जहां उस समय विद्रोह चल रहा था। अंग्रेजों ने सत्ता संभाली थी और इससे शहर का आर्थिक संगठन परेशान था। लेकिन सांस्कृतिक क्षेत्र में शहर ने अपने प्रमुख स्थान को बनाए रखा।

Munshi Nawal Kishore stamp of India. Source: Wikimedia Commons

नवंबर 1858 में किशोर ने अंग्रेजों की आधिकारिक स्वीकृति के साथ अपना प्रिंटिंग प्रेस स्थापित किया। उत्तर भारत का पहला उर्दू अखबार, अवध अख़बार लॉन्च किया गया। जबकि अखबार ही प्रेस के काम का एक मुख्य पहलू था, जल्द ही प्रशासन अपने तरीके से आधिकारिक मुद्रण कार्य भेजने लगा। 1860 में उन्हें उर्दू में भारतीय दंड संहिता के मुद्रण का कॉन्ट्रैक्ट सौंपा गया।

टेक्स्टबुक कॉन्ट्रैक्ट्स के प्रिंट का काम जल्द ही पूरा हो गया, और 1861 में वह जामी अल-फ़वाद, रूपांतरण तालिका और वजन तालिकाओं के संकलन को मुद्रित करने और बेचने के लिए अधिकृत किए गए। उच्च सरकारी पदों पर कई मुस्लिम अधिकारियों के साथ किशोर का जुड़ाव था जिसके कारण जब उन्होंने महज छपाई से लेकर प्रकाशन शुरू किया तो उन्हें सलाह देने वालों की कमी नहीं थी। लोकप्रिय धार्मिक किताबों और कुरान का सही अर्थ बताने वाली किताबों को भी किशोर ने व्यावसायिक प्रकाशन में शामिल किया।

इस समय किशोर ने मिर्ज़ा ग़ालिब से संपर्क किया और उनकी कविता को प्रकाशित करने की इच्छा जतायी। शुरुआत में कुछ गलतियों के बाद नवल किशोर प्रेस जल्द ही ग़ालिब का प्रकाशक बन गया। 1869 तक प्रेस ने नजीर अहमद के मिरात अल-उरस को भी प्रकाशित किया, जिसे उर्दू में पहला उपन्यास कहा गया।

मुद्रण और प्रकाशन की दुनिया में दशक की सबसे सनसनीखेज घटना कुरान के एक मामूली कीमत वाले संस्करण को प्रकाशित करने का प्रेस का निर्णय था – जिसकी कीमत एक और डेढ़ रुपये थी। कम कीमत की वजह से यह पवित्र पुस्तक आम मुसलमानों के बीच काफी लोकप्रिय हुई।

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Hand-coloured lithograph of ‘Aja’ib al-makhluqat, Lucknow 1866. Source: BL Asian and African/Twitter

समानांतर रूप से यहां तक ​​कि इन्होंने खुद को क्षेत्र के प्रतिष्ठित उर्दू प्रकाशक के रूप में स्थापित किया, प्रेस ने भी हिंदी प्रकाशन में काफी योगदान दिया। हिंदी उस समय एक भाषा थी जो विकसित होने की प्रक्रिया में थी। इसकी राह में कई रोड़े थे : एक स्तर पर हिंदी-उर्दू, दूसरे स्तर पर हिंदी-ब्रज, और लिपि से जुड़ी असहमति-नागरी, कैथी या फ़ारसी। फिर भी, प्रेस ने इस दलदली क्षेत्र में प्रवेश करने की योग्यता दिखायी।

1860 के दशक में जिन हिंदी पुस्तकों को लाया गया था, उनमें तुलसीदास की रामचरितमानस (जिसकी 1873 में 50,000 प्रतियां बेची गई थीं), सूरदास की सूर सागर, और लल्लूजी लाल की प्रेमसागर (पहचान के हिसाब से आधुनिक हिंदी में शुरुआती कार्यों में से एक) हैं।

1880 में, प्रेस ने एक अंग्रेजी काम प्रकाशित किया जिसमें तुलसीदास का अनुवाद शामिल था। जैसा कि प्रेस ने अपनी बढ़ती सूची में और अधिक किताबें जोड़ीं, 1870 के दशक के अंत तक इसकी सूची में 3,000 के करीब किताबें थीं – उर्दू, हिंदी, फारसी और संस्कृत में, मुख्य रूप से अरबी, पश्तो, मराठी और बंगाली में। इनमें से कई किताबें साहित्य से जुड़ी हुई थीं। हालांकि उनमें से कई किताबें जैसे कि विज्ञान, चिकित्सा और इतिहास की किताबें अंग्रेजी से अनुवाद की हुई थी।

1877 में, अवध अख़बार एक दैनिक समाचार पत्र बन गया। नवल किशोर प्रेस ने कानपुर, गोरखपुर, पटियाला और कपूरथला में कई शाखाएं खोलीं और यहां तक कि लंदन में एक एजेंसी भी बनाए रखी। प्रकाशन और किताबों को बेचने के अलावा उनका प्रेस मार्केटिंग और विज्ञापन में भी आगे था।

उत्तर भारत से लेकर कलकत्ता तक प्रेस ने कई बुकस्टोर संचालित किए। इस प्रेस ने अपनी किताबों और अखबारों में इन किताबों की दुकानों का विज्ञापन किया। फिर, इसने अपने कैटलॉग को विज्ञापित करने के लिए प्रकाशित पुस्तकों के साथ-साथ अन्य प्रकाशकों को भी इसके समाचार पत्र में अपने विज्ञापनों डालने के लिए प्रोत्साहित किया।

व्यवसाय चलाने के अलावा, मुंशी नवल किशोर को आगरा कॉलेज की नगरपालिका समिति,अपने अल्मा मेटर के बोर्ड में सेवा करने का भी मौका मिला और कई जाति संगठनों के साथ-साथ हिंदू और मुस्लिम दोनों शैक्षणिक संस्थानों को संरक्षण दिया।

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1895 में जब हृदय गति रुक जाने के कारण नवल किशोर का निधन हुआ उस समय उनके द्वारा स्थापित इस प्रेस की सांस्कृतिक क्षेत्र में काफी पहुंच हो चुकी थी। इस प्रेस के कारण लोगों का लिखने पढ़ने का तरीका बदला और उसमें नयापन आया। इसका प्रभाव बीसवीं सदी के पूर्वार्ध पर भी पड़ा जब अंग्रेजों से अपने विरोध के लिए लोगों ने प्रेस का सहारा लिया और किताबें पढ़कर खुद को जागरूक किया। उस विद्रोह में शामिल कई लोगों ने जो पहली छपी हुई किताब पढ़ी होगी वो नवल किशोर प्रेस से ही छपकर आयी थी।

मूल लेख: कार्तिक वेंकटेश


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