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पूर्वोत्तर भारत की पांच महिलाएं, जिनका इतिहास में है अहम योगदान

strongest women in Indian history from north east

देश में जो समाजिक, आर्थिक और राजनीतिक बदलाव हुए, उन बदलावों में स्त्रियों की अहम साझेदारी रही है। महिलाओं ने घर और बाहर दोनों मोर्चे पर दोहरी लड़ाई लड़ी। अगर पूर्वोत्तर भारत के इतिहास की बात की जाए, तो वहां भी महिलाओं ने कई बड़े आंदोलनों में हिस्सा लिया। आज हम आपको पूर्वोत्तर भारत की उन पांच महिला विभूतियों के बारे में बताने जा रहे हैं, जिन्होंने अपने क्षेत्र में फैली विषमताओं को दूर करने का प्रयास किया।

1. मीना अग्रवाल

Woman Of Northeast India, Meena Agrawal
(Source: Feminism India)

असम की सामाजिक कार्यकर्ता मीना अग्रवाल ने जीवन भर महिलाओं के अधिकारों के लिए काम किया। वह लंबे समय तक तेजपुर महिला समिति से जुड़ी रहीं। असम से पर्दा प्रथा हटाने में अहम भूमिका निभानेवाली चंद्रप्रभा सैकियानी से प्रेरित होकर उन्होंने जीवन भर महिलाओं के अधिकारों के लिए काम किया।

मीना अग्रवाल 1950 के दशक में तेजपुर जिला समाज कल्याण बोर्ड की अध्यक्ष बनी थीं। ग्रामीण महिलाओं के लिए उन्होंने कई उल्लेखनीय काम किए। उन्होंने तिब्बती शरणार्थियों का स्वागत करने के लिए महिलाओं को संगठित किया था। साल 1962 में उनकी टीम ने चीनी आक्रमण के खिलाफ राष्ट्रीय रक्षा कोष के लिए धन जुटाया। उन्होंने मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के लिए भी बात की और तीन तलाक, मेहर और अक्षम रखरखाव के खिलाफ खड़ी हुईं। उन्होंने व्यापक रूप से महिलाओं की शिक्षा, विशेषकर ग्रामीण महिलाओं की शिक्षा की वकालत की।

24 जुलाई 2014 को पूर्वोत्तर की इस महान महिला नेता ने अंतिम सांस ली।

2. सिल्वरीइन स्वेर

Silverein Swer (Source: Feminism India)

सिल्वरीन स्वेर, मेघालय की एक सामाजिक कार्यकर्ता थीं। उनका जन्म शिलांग के खासी समुदाय में हुआ था। वह गर्ल्स गाइड मूवमेंट की ट्रेनर और सलाहकार बनने वाली पहली महिला थीं। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश सरकार ने उन्हें सहायक राशन नियंत्रक के रूप में नियुक्त किया था। अकादमिक क्षेत्र में उनका योगदान बहुत बड़ा है। शुरू में वह चांगलांग तिरप में शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान की सदस्य थीं और बाद में वहां की प्रधानाचार्या के रूप में उन्होंने काम किया। स्वेर ने कोलकाता के स्कॉटिश चर्च कॉलेज से पढ़ाई की थी।

सिल्वरीन स्वेर साल 1968 में सेवानिवृत्त हुईं। वह 15 वर्षों तक अरुणाचल प्रदेश में मुख्य सामाजिक शिक्षा आयोजक के रूप में कार्यरत रहीं। रिटायर होने के बाद भी सामाजिक क्षेत्र में उनका काम नहीं रुका। वह विभिन्न महिला संगठनों से जुड़ी रहीं। वह राज्य समाज कल्याण सलाहकार बोर्ड की अध्यक्ष भी रहीं। उन्होंने मेघालय में आदिवासी महिलाओं के लिए काफी काम किया। सामाजिक कार्यों में उनके लंबे योगदान के बाद 103 साल की उम्र में 1 फरवरी 2014 को उनका निधन हो गया।

3. चंद्रप्रभा सैकियानी

Chandraprabha Saikiani (Source: Wikipedia)

चंद्रप्रभा सैकियानी ने असम में पर्दा प्रथा को दूर करने में योगदान दिया था। उन्होंने मात्र 13 साल की उम्र में प्राइमरी स्कूल खोला था। साथ 1926 में असम प्रादेशिक महिला समिति की स्थापना भी की। वह बहुत कम उम्र से ही महिलाओं और लड़कियों की शिक्षा के लिए खड़ी हुई थीं। साल 1918 में असम छात्र संघ द्वारा असम सत्र चलाया जा रहा था। उस दौरान चंद्रप्रभा सैकियानी ने अफीम की खपत के दुष्प्रभावों के बारे में बात की और इसके प्रतिबंध की मांग की।

वह हमेशा जातिगत भेदभाव के खिलाफ थीं। उन्होंने धार्मिक स्थलों और अनुष्ठानों में महिलाओं के प्रवेश की वकालत की। वह असहयोग आंदोलन का भी हिस्सा बनीं और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया। सन् 1925 में उन्होंने असम साहित्य सभा के नौगांव अधिवेशन में लैंगिक समानता और न्याय पर भाषण दिया था।

चंद्रप्रभा ने महिलाओं व पुरुषों को एक बैरिकेड में रखने का विरोध किया। साल 1926 में असम प्रादेशिक महिला समिति की स्थापना करके, उन्होंने बाल विवाह जैसे पितृसत्तात्मक उत्पीड़न के खिलाफ अपना रोष प्रकट किया और महिलाओं की शिक्षा और स्वरोजगार का समर्थन किया।

चंद्रप्रभा सैकियानी ने 16 मार्च 1972 को अंतिम सांस ली। उन्हें अपने काम के लिए पद्मश्री से नवाज़ा गया था।

4. कनकलता बरुआ

Kanaklata Barua

पूर्वोत्तर भारत की कनकलता बरुआ भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल असमिया नेताओं में से एक थीं। उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा लिया था। बरुआ ने अंग्रेजों के खिलाफ निडर होकर लड़ाई लड़ी। उन्होंने गोहपुर पुलिस स्टेशन में ब्रिटिश शासन के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया।

बरुआ ने तिरंगा फहराने के लिए एक महिला जुलूस का नेतृत्व किया था, जिसे पुलिस स्टेशन में भारतीय ध्वज फहराना था। कनकलता बरूआ, भारतीय ध्वज के साथ पुलिस स्टेशन की ओर चल पड़ीं। जब वह थाने की ओर बढ़ रही थीं, तो पुलिस ने भीड़ पर गोली चला दी, जिससे उनकी मौत हो गई।

प्रतिष्ठित और रूढ़िवादी डोलखरिया बरुआ परिवार से ताल्लुक रखनेवाली कनकलता का 17 वर्ष की अल्पायु में ही निधन हो गया। उन्होनें बचपन से ही कठिन समय का सामना किया था, क्योंकि वह 5 साल की उम्र में अनाथ हो गई थीं। लेकिन इसके बावजूद उन्होंने अपने भाई-बहनों और घर की जिम्मेदारी संभाली। मरणोपरांत उन्हें ‘शहीद’ और ‘ बीरबाला’ की उपाधि दी गई थी।

5. सती जॉयमोती

Women Of Northeast India, Sati Joymoti (Source : Wikipedia)

पूर्वोत्तर भारत की जॉयमोती एक अहोम राजकुमारी थी और बाद में राजा गदाधर (गदापानी / सुपात्फा) सिंह की रानी बनीं। अपने राज्य और अपने पति के लिए उनका आत्म बलिदान असम में प्रसिद्ध माना जाता है। भ्रष्टाचार, उत्पीड़न और अक्षम प्रशासन से मुक्त राज्य स्थापित करने के लिए उन्होंने लोरा रोजा (सुलिकफा) के हाथों अपना जीवन बलिदान कर दिया।

जब लोरा राजा और उनके सिपाही जॉयमति के पति को पकड़ने आए, तो उनके पति तो बचकर निकलने में सफल रहे लेकिन जॉयमति को बंधक बना लिया गया। एक कांटेदार पौधे से बांधे जाने के बाद, उन्हें असम के शिवसागर जिले के जारेंग पत्थर में लगातार अमानवीय शारीरिक यातना का सामना करना पड़ा। यातना से प्रताड़ित होने के बावजूद जॉयमोती ने अपने पति के ठिकाने का खुलासा नहीं किया।

उन्होंने अंतिम सांस तक अपने पति और अपने राज्य की रक्षा करने की कोशिश की और इसी कारण उन्हें सती की उपाधि दी गई। उन्होंने अपने राज्य और लोगों को सुलिकफा के अत्याचारों से बचाने की कोशिश की। इस कार्य के बाद वह जल्द ही बहादुरी की प्रतीक बन गईं। उनका निस्वार्थ बलिदान, देशभक्ति, साहस और सच्चाई उन्हें पूर्वोत्तर भारत समेत असमिया इतिहास में एक नायिका की उपाधि दिलाता है। उनकी याद में हर साल 27 मार्च को असम में सती जॉयमोती दिवस (सती का स्मरण दिवस) आयोजित किया जाता है।

द बेटर इंडिया पूर्वोत्तर की इन महान महिला (Women Of Northeast India) विभूतियों की स्मृति को नमन करता है।

संपादन- जी एन झा

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