हमारे देश में ऐसे बहुत से नाम हैं, जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में स्वयं को देश के लिए अर्पित कर दिया। पर फिर भी इतिहास में इनका नाम ढूंढने पर भी नहीं मिलता। ऐसा ही एक नाम है – शांति घोष।
शांति घोष भारत के स्वतंत्रता संग्राम की क्रांतिकारी वीरांगना थीं। उनका जन्म 22 नवंबर 1916 को पश्चिम बंगाल के कोलकाता में हुआ था। उनके पिता देबेन्द्रनाथ घोष कोमिल्ला कॉलेज में प्रोफ़ेसर थे और साथ ही राष्ट्रवादी भी।
शांति पर अपने पिता की राष्ट्र भक्ति का बहुत प्रभाव था! वे बचपन से ही भारतीय क्रांतिकारियों के बारे में पढ़ती रहती। 1931 में फज़ुनिस्सा गर्ल्स स्कूल में पढ़ते हुए मात्र 15 साल की उम्र में शांति, अपनी सहपाठी प्रफुल्ल नलिनी के माध्यम से ‘युगांतर पार्टी’ में शामिल हो गयी और क्रांतिकारी कार्यों के लिए आवश्यक प्रशिक्षण लेने लगी।
यह एक क्रांतिकारी संगठन था, जो उस समय ब्रिटिश अधिकारियों की हत्या कर ब्रिटिश राज में खलबली मचाने के लिए प्रसिद्द था। जल्द ही, शांति के जीवन में वह दिन आया जब उसे अपनी मातृभूमि के लिए खुद को समर्पित करने का अवसर मिला। इस बुलावे को उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया।
साल 1931 में दिसम्बर की 14 तारीख को शांति अपनी एक और सहपाठी सुनीति चौधरी के साथ एक ब्रिटिश अफ़सर और कोमिल्ला के जिला मजिस्ट्रेट चार्ल्स जेफरी बकलैंड स्टीवंस के कार्यालय में पहुंची। उन्होंने इस बात का बहाना दिया कि वे एक पेटीशन फाइल करने आई हैं।
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जब अधिकारी उनके कागजात देखने लगे तो उन्होंने अपनी शाल के नीचे से पिस्तौल निकाली और उन्हें गोली मार दी। इससे कार्यालय में चारों तरफ अफरा-तफरी मच गयी। शांति और सुनीति को तुरंत पकड़ लिया गया। इस घटना ने न केवल ब्रिटिश साम्राज्य बल्कि पुरे देश को हिला कर रख दिया।
किसी को इन किशोरियों की बहादुरी पर हैरानी थी, तो कोई इनके हौंसले की वाह-वाही करते नहीं थक रहा था। इनकी तस्वीरों के साथ एक फ्लायर भी छपा।
ब्रिटिश सरकार ने उनकी कम उम्र की वजह से उन्हें फाँसी की जगह काले पानी की सजा दी। पर इन दोनों देशभक्तों ने हँसते-हँसते छोटी-सी उम्र में जेल की यातनाएं सही।
साल 1937 में अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के प्रयासों से आख़िरकार शांति घोष को जेल से रिहा कर दिया गया। जेल से निकलने के बाद उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की। इसके साथ ही वे स्वतंत्रता संग्राम में भी सक्रीय रहीं। उन्होंने प्रोफ़ेसर चितरंजन दास से शादी की। वे 1952-62 और 1967-68 में पश्चिम बंगाल विधान परिषद में कार्यरत रहीं।
उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘अरुणबहनी’ नाम से लिखी। साल 1989 में 28 मार्च को उन्होंने अपनी आखिरी सांस ली।
देश की इस महान क्रांतिकारी को द बेटर इंडिया का नमन!
संपादन – मानबी कटोच