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भारतीय इतिहास की पांच शक्तिशाली महिलाएं

Powerful women of indian history

हमारे देश का इतिहास बहुत ही विशाल और समृद्ध है। महान राजाओं, स्वतंत्रता सेनानियों, क्रांतिकारियों की कहानियां सुनकर मन जोश से भर जाता है। कई बार तो लगता है कि काश! वह जमाना हमने भी देखा होता है। हालांकि, पुरुषों के शौर्य और वीरता की गाथाएं तो बहुत सी जगह सुनने को मिल जाएंगी। लेकिन आज हम आपको भारतीय इतिहास की महान और शक्तिशाली महिलाओं के बारे में बताना चाहते हैं। भारत की उन बेटियों की कहानी, जिन्होंने अपने राज्य का पालन-पोषण करते हुए, युद्ध क्षेत्र में भी कौशल दिखाया। 

किसी ने ब्रिटिश सरकार की हुकूमत के खिलाफ जंग लड़ी तो किसी ने मुग़ल सेना के सामने घुटने नहीं टेके। इन वीरांगनाओं की कहानी, आज की हर एक बेटी के लिए प्रेरणा है। आये दिन महिलाएं अपने आसपास हजारों चुनौतियों का सामना करती हैं। लेकिन कई बार थक कर हार मानने लगती हैं। खासकर इन महिलाओं को यह लेख पढ़ना चाहिए और जानना चाहिए इतिहास की उन महान स्त्री शासकों के बारे में, जिन्होंने समाज की बनाई रूढ़िवादी बेड़ियों को तोड़कर अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए खुद को समर्पित कर दिया। 

1. रानी दुर्गावती: गोंडवाना की रानी (1524 – 1564)

Rani Durgavati (Source)

5 अक्टूबर, 1524 को उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले में कालिंजर के राजा कीर्तिसिंह चंदेल के घर दुर्गाष्टमी के दिन एक बेटी का जन्म हुआ। जिसका नाम रखा गया- दुर्गावती। दुर्गावती बचपन से ही अस्त्र-शस्त्र विद्या में रूचि रखती थीं। उन्होंने घुड़सवारी, तीरंदाजी, तलवारबाजी जैसे युद्धकलायों में महारत हासिल की। 1542 में, दुर्गावती की शादी गोंड राजवंश के राजा संग्राम शाह के सबसे बड़े बेटे दलपत शाह के साथ हुई। मध्य प्रदेश के गोंडवाना क्षेत्र में रहने वाले गोंड वंशज 4 राज्यों पर राज करते थे- गढ़-मंडला, देवगढ़, चंदा और खेरला। दुर्गावती के पति दलपत शाह का अधिकार गढ़-मंडला पर था।

दुर्गावती का दलपत शाह के साथ विवाह बेशक एक राजनैतिक विकल्प था। क्योंकि यह शायद पहली बार था जब एक राजपूत राजकुमारी की शादी गोंड वंश में हुई थी। गोंड लोगों की मदद से चंदेल वंश उस समय शेर शाह सूरी से अपने राज्य की रक्षा करने में सक्षम रहा। 1545 में रानी दुर्गावती ने एक बेटे को जन्म दिया, जिसका नाम वीर नारायण रखा गया। लेकिन 1550 में दलपत शाह का निधन हो गया। दलपत शाह की मृत्यु पर दुर्गावती का बेटा नारायण सिर्फ 5 साल का था। ऐसे में सवाल था कि राज्य का क्या होगा?

लेकिन यही वह समय था जब दुर्गावती न केवल एक रानी बल्कि एक बेहतरीन शासक के रूप में उभरीं। उन्होंने अपने बेटे को सिंहासन पर बिठाया और खुद गोंडवाना की बागडोर अपने हाथ में ले ली। उन्होंने अपने शासन के दौरान अनेक मठ, कुएं, बावड़ी तथा धर्मशालाएं बनवाईं। वर्तमान जबलपुर उनके राज्य का केन्द्र था। उन्होंने अपनी दासी के नाम पर चेरीताल, अपने नाम पर रानीताल तथा अपने विश्वस्त दीवान आधारसिंह के नाम पर आधारताल बनवाया। 1564 में मुगलों ने गोंडवाना पर हमला बोल दिया। इस युद्ध में रानी दुर्गावती ने खुद सेना का मोर्चा सम्भाला। हालांकि, उनकी सेना छोटी थी, लेकिन दुर्गावती की युद्ध शैली ने मुग़लों को भी चौंका दिया।

उन्होंने अपनी सेना की कुछ टुकड़ियों को जंगलों में छिपा दिया और बाकी को अपने साथ लेकर चल पड़ीं। जब मुगलों ने हमला किया और उसे लगा कि रानी की सेना हार गयी है तब ही छिपी हुई सेना ने तीर बरसाना शुरू कर दिया और उसे पीछे हटना पड़ा। कहा जाता है, इस युद्ध के बाद भी तीन बार रानी दुर्गावती और उनके बेटे वीर नारायण ने मुग़ल सेना का सामना किया और उन्हें हराया। लेकिन जब वीर नारायण बुरी तरह से घायल हो तो रानी ने उसे सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दिया और स्वयं युद्ध को सम्भाला।

रानी दुर्गावती के पास केवल 300 सैनिक बचे थे। रानी को भी सीने और आंख में तीर लगे। जिसके बाद उनके सैनिकों ने उन्हें युद्ध छोडकर जाने के लिए कहा। लेकिन इस योद्धा रानी ने ऐसा करने से मना कर दिया। वह अपनी आखिरी सांस तक मुग़लों से लडती रहीं।

2. अहिल्याबाई होलकर: मालवा की रानी (1725 – 1795)

Ahilyabai Holkar (Source)

अहिल्याबाई का जन्म एक साधारण परिवार में हुआ। लेकिन नियति ने उनके लिए एक असाधारण रास्ता चुना हुआ था। तभी तो एक बार पुणे जाते वक़्त उस समय मालवा राज्य के राजा या फिर पेशवा कहें, मल्हार राव होलकर चोंडी गांव में विश्राम के लिए रुके। तभी उनकी नज़र आठ साल की अहिल्या पर पड़ी, जो भूखों और गरीबों को खाना खिला रही थी। इतनी कम उम्र में उस लड़की की दया और निष्ठा को देख मल्हार राव होलकर ने अहिल्या का रिश्ता अपने बेटे खांडेराव होलकर के लिए माँगा।

मात्र 8 साल की उम्र में अहिल्या ब्याहकर मालवा पहुंच गयी। पर संकट के बादल अहिल्याबाई पर तब घिर आये जब साल 1754 में कुम्भार के युद्ध के दौरान उनके पति खांडेराव होलकर वीरगति को प्राप्त हुए। इस समय अहिल्याबाई केवल 21 साल की थीं! समाज की रीत के अनुसार, उन्होंने सती हो जाने का निर्णय लिया। पर उनके ससुर ने उन्हें रोक लिया। हर एक परिस्थिति में अहिल्या के ससुर उनके साथ खड़े रहे। लेकिन साल 1766 में जब उनके ससुर भी दुनिया को अलविदा कह गए। और फिर 1767 में शासन के कुछ ही दिनों में उनके जवान बेटे की मृत्यु हो गयी।

कोई भी एक औरत, वह चाहे राजवंशी हो या फिर कोई आम औरत, जिसने अपने पति, पिता समान ससुर और इकलौते बेटे को खो दिया, उसकी स्थिति की कल्पना कर सकता है। पर अपने इस दुःख के साये को उन्होंने शासन-व्यवस्था और अपने लोगों के जीवन पर नहीं पड़ने दिया। 11 दिसंबर, 1767 को वे स्वयं मालवा की शासक बन गयीं। हालाँकि राज्य में एक तबका था, जो उनके इस फैसले के विरोध में था पर होलकर सेना उनके समर्थन में खड़ी रही और अपनी रानी के हर फैसले में उनकी ताकत बनी।

उनके शासन के एक साल में ही लोगों ने देखा कि कैसे एक बहादुर होलकर रानी अपने राज्य और प्रजा की रक्षा मालवा को लूटने वालों से कर रही है। अस्त्र-शस्त्र से सज्जित हो इस रानी ने कई बार युद्ध में अपनी सेना का नेतृत्व किया। उन्होंने न सिर्फ अंग्रेजों की चाल से पेशवा को आगाह किया बल्कि अपने राज्य को भी आगे बढ़ाया। मालवा में किले, सड़कें बनवाने का श्रेय अहिल्याबाई को ही जाता है। राहगीरों के लिए कुएं और विश्रामघर बनवाये गए। गरीब, बेघर लोगों की जरूरतें हमेशा पूरी की गयीं। आदिवासी कबीलों को उन्होंने जंगलों का जीवन छोड़ गांवों में किसानों के रूप में बस जाने के लिए मनाया। हिन्दू और मुस्लिम, दोनों धर्मों के लोग सामान भाव से उस महान रानी के श्रद्धेय थे। 

3. कित्तूर चेन्नम्मा: कित्तूर की रानी (1778 – 1829)

Rani Chennamma (Source)

कर्नाटक के बेलगावी जिले के कित्तूर तालुका में हर साल अक्टूबर के महीने में ‘कित्तूर उत्सव’ मनाया जाता है। यहां के लोगों के लिए यह उत्सव बहुत मायने रखता है। इनके लिए यह उनकी संस्कृति और विरासत का हिस्सा है। हालांकि, इस उत्सव की शुरुआत साल 1824 में यहां की रानी चेन्नम्मा ने की थी। रानी चेन्नम्मा- वह भारतीय स्वतंत्रता सेनानी जिसका नाम वक़्त के साथ इतिहास से जैसे मिट ही गया हो। लेकिन कित्तूर निवासियों ने इस नाम को न तो अपने जहन से मिटने दिया और ना ही अपनी आने वाली पीढ़ियों को इससे अपरिचित रखा।

साल 1778 में 23 अक्टूबर को वर्तमान कर्नाटक के बेलगाम जिले के पास एक छोटे से गांव काकती में लिंगयात परिवार में चेन्नम्मा का जन्म हुआ। बचपन से ही तलवारबाजी, तीरंदाजी और घुड़सवारी की शौक़ीन रही चेन्नम्मा की बहादुरी से पूरा गांव परिचित था। काकती के पास ही कित्तूर का भरा-पूरा साम्राज्य था। उस समय कित्तूर में देसाई राजवंश का राज था और राजा मल्लसर्ज सिंहासन पर आसीन थे। राजा ने चेन्नम्मा की बहादुरी से प्रभावित होकर उनका हाथ उनके पिता से मांगा। 15 साल की चेन्नम्मा कित्तूर रानी चेन्नम्मा बन गयीं। मल्लसर्ज रानी चेन्नम्मा की राजनैतिक कुशलता से भी भलीभांति परिचित थे। राज्य के शासन प्रबंध में वे रानी की सलाह लिया करते थे। उनका एक बेटा भी हुआ, जिसका नाम रुद्रसर्ज रखा गया।

लेकिन किस्मत को शायद कुछ और ही मंजूर था। एक अनहोनी में साल 1816 में राजा मल्लसर्ज की मौत हो गयी। रानी चेन्नम्मा पर तो जैसे दुःख के बादल घिर आये, पर उन्होंने अपना मनोबल नहीं टूटने दिया। उन्होंने कित्तूर की स्वाधीनता की रक्षा को ही अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया। यही वह समय था जब अंग्रेजों की नजर कित्तूर पर पड़ी। वे कित्तूर को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाना चाहते थे। जब राजा की मौत के कुछ समय पश्चात् उनके बेटे की भी मौत हो गयी तो जैसे कित्तूर का भविष्य ही खत्म हो गया हो। ब्रिटिश राज की गतिविधियां तेज हो गयीं और उन्हें लगने लगा कि अब बिना किसी देरी कित्तूर उन्हें मिल जायेगा। लेकिन रानी चेन्नम्मा ने अपने दत्तक पुत्र को राजा घोषित कर दिया और ब्रिटिश सरकार से युद्ध करने का फैसला किया। 

अंग्रेजों को लगा कि आज नहीं तो कल रानी चेन्नम्मा कित्तूर उन्हें दे देगी। लेकिन उन्हें नहीं पता था कि यही रानी चेन्नम्मा भारत में उनके पतन की शुरुआत बनेंगी। ब्रिटिश सेना ने अक्टूबर 1824 को कित्तूर पर घेरा डाल दिया। यह कित्तूर और अंग्रेजों के बीच पहला युद्ध था। अंग्रेजों ने लगभग 20, 000 सैनिकों और 400 बंदूकों के साथ हमला किया। पर रानी चेन्नम्मा इस तरह के हमले के लिए बिल्कुल तैयार थीं। उन्होंने अपने सेनापति और सेना के साथ मिलकर पुरे जोश से युद्ध किया।

युद्ध के ऐसे परिणाम की ब्रिटिश सरकार ने कभी कल्पना भी नहीं की थी। ब्रिटिश सेना को युद्ध के मैदान से भागना पड़ा। यह शायद अंग्रेजों की इतनी बुरी पहली हार हो। इस युद्ध में दो अंग्रेज अधिकारी मारे गये और बाकी दो अधिकारियों को बंदी बनाया गया। इन दोनों अधिकारियों को इस शर्त पर रिहा किया गया कि ब्रिटिश सरकार कित्तूर के खिलाफ युद्ध बंद कर देगी और कित्तूर को शांतिपूर्वक रहने दिया जायेगा। अंग्रेजों ने इस समझौते को माना भी। लेकिन उन्होंने कित्तूर की पीठ में छुरा भौंका और अपने वादे से मुकर गये।

अंग्रेजों ने कई बारे कित्तूर पर हमला किया और आखिरकार रानी चेन्नम्मा को बंदी बना लिया गया। लेकिन उनके विद्रोह ने अंग्रेजी शासन के खिलाफ चिंगारी फूंक दी थी, जिससे भारतियों को अंग्रेजों से लड़ने की प्रेरणा मिली। 

4. रानी अवंतीबाई: रामगढ़ की रानी (1800 – 1858)

Rani Avantibai (Source)

1831 में जन्मी अवंतीबाई का विवाह रामगढ़ के राजा विक्रमादित्य के साथ हुआ था। वह बचपन से ही वीर और साहसी थीं। उन्होंने छोटी उम्र से ही घुड़सवारी और तलवारबाजी का प्रशिक्षण लिया। वह हमेशा ही राज्य संचालन में अपने पति की मदद किया करती थीं। स्वास्थ्य सही न रहने के कारण राजा विक्रमादित्य का निधन हो गया और इसके बाद अवंतीबाई ने राज्य की बागडोर संभाली। लेकिन अंग्रेजों को यह मंजूर नहीं था कि एक रानी रियासत संभाले। उन्होंने तुरंत रामगढ को ब्रिटिश सरकार के अधीन लेने का फरमान सुना दिया। 

उन्होंने रामगढ़ रियासत को ‘कोर्ट ऑफ वार्ड्स’ के अधीन कर लिया और शासन प्रबंध के लिए एक तहसीलदार को नियुक्त कर दिया। रामगढ़ के राजपरिवार को पेंशन दे दी गई। इस घटना से रानी वीरांगना अवंतीबाई लोधी काफी दुखी हुईं और उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध करने का फैसला लिया। रानी ने अपनी ओर से क्रांति का संदेश देने के लिए अपने आसपास के सभी राजाओं और प्रमुख जमींदारों को चिट्ठी के साथ कांच की चूड़ियां भिजवाईं। उस चिट्ठी में लिखा था- ‘देश की रक्षा करने के लिए या तो कमर कसो या चूड़ी पहनकर घर में बैठो।’

सभी देशभक्त राजाओं और जमींदारों ने रानी के साहस और शौर्य की बड़ी सराहना की और उनकी योजनानुसार अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का झंडा खड़ा कर दिया। जगह-जगह गुप्त सभाएं कर देश में सर्वत्र क्रांति की ज्वाला फैला दी और साल 1857 की क्रांति का बिगुल बज उठा। इस निडर रानी ने खुद 4000 सैनिकों की सेना का नेतृत्व करते हुए ब्रिटिश सेना के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। पहली लड़ाई खेरी गांव में हुई और अंग्रेज रानी की युद्ध कुशलता देखकर दंग रह गए थे। अंग्रेजों को पहली ही लड़ाई में हार की उम्मीद नहीं थी। 

अपनी हार से आग-बबूला होकर अंग्रेजों ने पूरी ताकत के साथ रामगढ पर चढ़ाई कर दी और उनकी सेना का सामना रामगढ की सेना नहीं कर पाई। लेकिन अवंतीबाई अपनी आखिरी सांस तक लड़ती रही और देशवासियों को अंग्रेजी हुकूमत को उखाड़ फेंकने का संदेश दे गईं। 

5. रानी लक्ष्मीबाई: झाँसी की रानी (1828 – 1858)

Rani Lakshmi Bai (Source)

शायद ही कोई हो जिसे झाँसी की रानी, लक्ष्मी बाई के बारे में न पता हो। इतिहासकारों के बाद, फिल्मों और टीवी सीरियलों ने भी रानी लक्ष्मीबाई की वीरगाथा को घर-घर तक पहुंचाया है। लक्ष्मी बाई का वास्तविक नाम ‘मणिकर्णिका’ था और उनका जन्म काशी में हुआ था। उनके पिता बिठूर के पेशवा के राजदरबार में नियुक्त हुए तो मणिकर्णिका भी उनके साथ रहने लगी। उन्होंने बचपन से ही तीरंदाजी, तलवारबाजी और घुड़सवारी के साथ-साथ युद्ध कला और राजनीति की भी शिक्षा ली। 

मणिकर्णिका का विवाह झाँसी के राजा गंगाधर के साथ हुआ और विवाह के बाद उनका नाम लक्ष्मी बाई हो गया। सितंबर 1851 में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया। परन्तु चार महीने की उम्र में ही उसकी मृत्यु हो गयी। सन् 1853 में राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य बहुत अधिक बिगड़ जाने पर उन्हें दत्तक पुत्र लेने की सलाह दी गयी। पुत्र गोद लेने के बाद 21 नवम्बर 1853 को राजा गंगाधर राव की मृत्यु हो गयी। रानी लक्ष्मी बाई ने अपने दत्तक पुत्र को उत्तराधिकारी बनाया। लेकिन अंग्रेजों को यह मंजूर नहीं था और उन्होंने झाँसी को हड़पने के लिए प्रयास शुरू कर दिए। 

रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी की सुरक्षा को सुदृढ़ करना शुरू कर दिया और एक स्वयंसेवक सेना का गठन प्रारम्भ किया। इस सेना में महिलाओं की भर्ती की गयी और उन्हें युद्ध का प्रशिक्षण दिया गया। साधारण जनता ने भी इस संग्राम में सहयोग दिया। साल 1857 की क्रांति में झाँसी प्रमुख गढ़ बनकर उभरा। लगभग एक साल तक रानी लक्ष्मीबाई कभी पड़ोसी राजाओं से तो कभी ब्रिटिश सरकार से युद्ध लड़ती रहीं। उन्होंने अपनी आखिरी सांस तक हार नहीं मानी। 18 जून 1858 को ब्रिटिश सेना से लड़ते हुए उन्होंने अपने प्राण त्यागे। 

झाँसी की रानी की वीरगाथा को जानी-मानी हिंदी लेखिका सुभद्रा कुमारी चौहान ने जनमानस तक पहुंचाया। 

संपादन- जी एन झा

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