जानिए जे.पी दत्ता की फ़िल्म पलटन में दिखाए भारत-चीन युद्ध के जांबाज़ जवानों को!

बॉर्डर, रिफ्यूजी और एलओसी कारगिल जैसी फ़िल्में बनाने वाले जे.पी दत्ता एक बार फिर अपनी नई फिल्म 'पलटन' के साथ बड़े परदे पर लौटने वाले हैं। । 'पलटन' फिल्म भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच लगभग 50 साल पहले सिक्किम में नाथू ला और चो ला में हुए एक सैन्य स्टैंड-ऑफ पर आधारित है।

बॉर्डर, रिफ्यूजी और एलओसी कारगिल जैसी फ़िल्में बनाने वाले जे.पी दत्ता की फिल्म ‘पलटन’ एक बड़े युद्ध की कहानी है।

दिलचस्प बात यह है कि दत्ता को अपनी इस फिल्म के लिए प्रेरणा भारतीय सेना से ही मिली है। ‘पलटन’ फिल्म भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच लगभग 50 साल पहले सिक्किम में नाथू ला और चो ला में हुए एक सैन्य स्टैंड-ऑफ पर आधारित है।

सितंबर 1967 में नाथू ला और चो ला में जो हुआ, उसकी अविश्वसनीय कहानी – एक लड़ाई जिसके बारे में चीनी शायद ही कभी बात करें और जो भारत के अनगिनत सैनिकों को प्रेरित करती है।

फोटो स्त्रोत

वह वर्ष 1962 था। 20 अक्टूबर को, जहां एक तरफ हर एक देश की नज़र क्यूबा में सोवियत-अमेरिका परमाणु स्टैंडऑफ पर थी। वहीं दूसरी तरफ दुनिया के दो सबसे अधिक आबादी वाले देश युद्ध के लिए तैयार थे। तिब्बत और क्षेत्रीय विवादों पर तनाव के चलते चीन की पीपल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) ने कश्मीर के अक्साई चीन क्षेत्र और तत्कालीन उत्तर-पूर्व फ्रंटियर एजेंसी (अब अरुणाचल प्रदेश) पर हमला किया।

कराकोरम पहाड़ों में 14000 फीट की ऊंचाई पर लड़ा गया यह युद्ध एक महीने भी नहीं चला। इस युद्ध में लगभग 2000 जानें दांव पर लगी हुई थी। इस युद्ध का विजेता चीन रहा। पर मुश्किल से 5 साल बाद ही दोनों देशों की सेनाओं में फिर से युद्ध हुआ।

इस बार युद्ध का मैदान नाथू ला था, जो तिब्बत-सिक्किम सीमा पर रणनीति के हिसाब से महत्वपूर्ण ऊंचाई वाला पास है।

उस समय सिक्किम भारतीय संरक्षण में था। इसलिए यहां पर भारतीय सेना ने अपने सैनिकों को बाहरी आक्रमण रोकने के लिए तैनात किया था। इस बात से नाखुश, चीन ने भारत से 1965 के भारत-पाक युद्ध के दौरान सिक्किम-तिब्बत सीमा पर नाथू ला के पर्वतीय रास्ते को खाली करने के लिए कहा।

नाथू ला पास

जब भारतीय सेना ने इससे इंकार कर दिया, तो चीन ने धमकी का सहारा लेना शुरू कर दिया और भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ का प्रयास किया। 13 जून, 1967 को चीन ने पेकिंग (अब बीजिंग) में दो भारतीय राजनायकों पर जासूसी का आरोप लगाया और अन्य कर्मचारियों को दूतावास परिसर में ही कैद करवा दिया।

दिल्ली में चीनी दूतावास के कर्मचारियों के खिलाफ़ पारस्परिक कार्रवाई में भारत ने दयालु प्रतिक्रिया दी। इन प्रतिबंधों को अंततः 3 जुलाई को हटा दिया गया था, लेकिन तब तक चीन और भारत के संबंध बहुत बिगड़ चुके थे।

तो जब पीएलए ने सिक्किम-तिब्बत सीमा पर 29 लाउडस्पीकर लगाकर भारतीय सेना को 1962 के युद्ध के जैसा नतीजा झेलने की चेतावनी देना शुरू किया, तो भारत ने सीमा पर तारों की बाड़ लगाने का फैसला किया ताकि चीनी सेना को सीमा उल्लंघन का बहाना न मिले। इसका काम 20 अगस्त को शुरू हुआ।

साल 1967 में नाथू ला पास पर चीनी सिपाही भारतीय सेना की गतिविधियों पर नज़र रखते हुए

चीनी सेना ने इस बाड़ का विरोध किया और इसके चलते पीएलए राजनीतिक कमीश्नर और भारतीय सेना में पैदल सेना के कमांडिंग अधिकारी कर्नल राय सिंह के बीच वाद-विवाद हो गया। 7 सितंबर को एक लड़ाई हुई – दोनों सेनाओं के दिमाग में 1962 की यादें अभी भी ताजा थीं।

तीन दिन बाद, चीन ने भारतीय दूतावास के माध्यम से एक चेतावनी भेजी, जिसमें भारतीय नेताओं “प्रतिक्रियावादी” को बुलाया गया था।

11 सितंबर की सुबह, जब बिना किसी विवाद के भारतीय सेना ने काम करना शुरू किया, तो पीएलए सैनिकों ने विरोध जताया। कर्नल राय सिंह उनसे बात करने के लिए बाहर गए।

अचानक चीनी सैनिकों ने अपनी मध्यम मशीन गन (एमएमजी) से फायर करना शुरू कर दिया।

कर्नल राय सिंह

अपने घायल कमांडिंग ऑफिसर को जमीन पर गिरता देख, दो बहादुर अधिकारियों (2 ग्रेनेडियर के कप्तान डागर और 18 राजपूत के मेजर हरभजन सिंह ने भारतीय सैनिकों का नेतृत्व किया और चीनी एमएमजी पोस्ट पर हमला किया। यह लड़ाई खुले मैदान में हुई (नाथू ला पास में कोई छुपने का स्थान नहीं है), इसलिए भारतीय सैनिकों को दो अधिकारियों सहित भारी हताहतों का सामना करना पड़ा। इन दोनों को अपनी बहादुरी के लिए बहादुरी पुरस्कार से नवाज़ा गया।

इस समय तक, भारतीय सेना ने तोप के हमलों से चीनी सेना को जवाब देना शुरू कर दिया था। आस-पास की हर चीनी पोस्ट पर हमला किया गया।

पर्वतारोहियों, ग्रेनेडियर और राजपूतों द्वारा भयंकर हमला करके अगले तीन दिनों में हर एक चीनी पोस्ट को तहस-नहस कर दिया गया था।

फोटो: चीनी सेना

भारत की इस प्रतिक्रिया की ताकत और साहस से अचंभित होकर चीन ने युद्धपोतों को लाने की धमकी दी। अपने संदेश घर को सैन्य रूप से संचालित करने के बाद, भारत सिक्किम-तिब्बत सीमा पर एक असहज युद्धविराम के लिए सहमत हो गया। 15 सितंबर को सैम मानेकशॉ (तत्कालीन पूर्वी सेना कमांडर) और जगजीत सिंह अरोड़ा (तत्कालीन कोर कमांडर) की उपस्थिति में मृत सैनिकों के शरीर का आदान-प्रदान किया गया था।

लेकिन एक विद्रोही पीएलए अभी भी मौके की तलाश में थी। चो ला पास सिक्किम-तिब्बत सीमा पर एक और पास नाथू ला से उत्तर दिशा में कुछ किलोमीटर की दुरी पर है। 1 अक्टूबर 1967 की सुबह यहाँ का आंकलन करते हुए एक बोल्डर पर अधिकार को लेकर चीनी सेना की एक भारतीय पलटन कमांडर (नायब सुबेदार ज्ञान बहादुर लिंबू) के साथ कहा-सुनी हो गयी।

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आगे की लड़ाई में चीनी सेना ने आक्रामक पदों पर कब्जा कर लिया था। लेकिन चीनी भूल गए थे कि वे प्रसिद्ध गोरखा सैनिकों (नव निर्मित 7/11 गोरखा रेजिमेंट) का सामना कर रहे थे। अपनी जमीन पर खड़े होकर युद्ध के लिए तैयार हो रहे दुश्मन पर भारतीय सेना ने भयानक हमला किया।

सेक्शन कमांडर लांस नायक कृष्ण बहादुर ने इस हमले का नेतृत्व किया और खुद तीन बार चीनी गोली खायी। इसके बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी और मरते दम तक अपने सैनिकों को खुकरी से चेतावनी देते रहे।

राइफलमैन देवी प्रसाद लिंबू ने अपना गोला-बारूद ख़त्म होने के बाद चीनी सैनिकों पर अपनी खुकरी से निशाना साधा और शहीद होने से पहले पांच चीनी सैनिकों को मार गिराया। उन्हें उनके साहस के लिए वीर चक्र से सम्मानित किया गया।

एक और जवान, हवलदार तिनजोंग लामा को वीर चक्र से सम्मानित किया गया था! तिनजोंग ने चीनी सैनिकों द्वारा उपयोग की जाने वाली भारी मशीन गन को अपनी 57 मिमी गन से अचूक निशाना लगाकर खत्म कर दिया था। कमांडिंग अधिकारी कर्नल केबी जोशी ने भी व्यक्तिगत रूप से प्वाइंट 15,450 को पुनः प्राप्त करने के लिए कंपनी का नेतृत्व किया।

हवालदार तिनजोंग लामा (बाएं) और राइफलमैन देवीप्रसाद लिम्बु (दाएं)

चो ला पास पर यह बन्दूकबाज़ी लगभग 10 दिन तक चली और चीनी पीएलए की हार के साथ समाप्त हुई। गोरखा सैनिको ने पीएलए को कैम बैरक्स नामक एक फीचर तक 3 किलोमीटर पीछे जाने पर मजबूर कर दिया था। जहां वे आज तक तैनात हैं।

मेजर जनरल शेरू थापलीयाल (जिन्हें उस समय सिक्किम में तैनात किया गया था) द्वारा लिखे गए युद्ध के दस्तावेजों के मुताबिक भारत ने अपने लगभग 70 सैनिकों को खोया, तो वहीं चीन के 400 सैनिक मारे गए थे।

एक पूर्व भारतीय राजनयिक ने हिंदुस्तान टाइम्स को बताया, “हमने चीन की नाक को घायल किया था।”

इस तरह से साल 1962 के युद्ध के कुछ हिसाब नाथु ला और चो ला पास पर पुरे किये गए। तब से लेकर अब तक सिक्किम के साथ-साथ ये दोनों पास भारत के नियंत्रण में हैं।

नाथू ला फ्रंटियर में चीनी और भारतीय सैनिक केवल 30 मीटर की दुरी पर तैनात हैं।

भारतीय सैनिक

दिलचस्प बात यह है कि नाथू ला को 2006 में सीमा व्यापार के लिए फिर से खोल दिया गया था और अब यह एक पर्यटक गंतव्य बन गया है। इस पास के चीनी साइड पर तिब्बत की चुम्बी घाटी है, जहां पीएलए गार्ड भारी मात्रा में तैनात हैं।

पास के भारतीय साइड पर एक व्यापारिक पोस्ट है। साथ ही दो युद्ध स्मारक (नाथू ला और पास के शहर शेरथांग में) बहादुर सैनिकों का सम्मान करते हैं, जिन्होंने देश और सिक्किम राज्य की रक्षा करने के लिए अपने जीवन का बलिदान दे दिया।

नाथू ला की कहानी, ‘बाबा’ हरभजन सिंह (पंजाब रेजिमेंट के 23 वें बटालियन के एक सैनिक) और उनके लिए समर्पित असामान्य मंदिर के उल्लेख के बिना अधूरी है।

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दरअसल, हरभजन खच्चरों के एक समूह पर अपने सैनिकों के लिए सामान ले जा रहे थे, जब उनका पैर फिसलने से वे ग्लेशियर में डूब गए। पुरे तीन दिन बाद सेना को उनका शव मिला। भारतीय सेना की एक लोक कहानी के मुताबिक हरभजन ने अपने साथी सैनिकों के सपने में आकर उनके लिए एक स्मारक बनाने के लिए कहा। जिसके बाद उनके रेजिमेंट ने यह स्मारक बनाया। बाद में यह स्मारक मंदिर के रूप में प्रसिद्द हो गया ,जहां न केवल आम भारतीय ही नहीं बल्कि सैनिक भी माथा टेकने आते हैं।

सेना के सैनिकों का मानना ​​है कि हरभजन सिंह न केवल चीन के साथ 14,000 फीट ऊंची सीमा बिंदु की रक्षा करने वाले 3,000 सैनिकों की रक्षा करते हैं बल्कि उन्हें किसी भी हमले के बारे में तीन दिन पहले ही संकेत दे देते हैं। उनकी शहादत के बाद भी सेना ने उन्हें कप्तान के पद पर भी पदोन्नत किया और हर महीने उनका वेतन उनके परिवार को भेजा जाता है।

इतना ही नहीं, उनकी आधिकारिक सेवानिवृत्ति तक, इस अमर सैनिक को हर साल 14 सितंबर से वार्षिक छुट्टी दी जाती थी और तीन भारतीय सैनिक उनकी तस्वीर और सूटकेस उनके गाँव तक छोड़कर आते थे!

मूल लेख: संचारी पाल

संपादन – मानबी कटोच


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