Incredible India: भारत के इस मंदिर में है विश्व का सबसे पुराना लिखित ज़ीरो

Gwalior Fort Chaturbhuj Temple Of Gwalior Has The Oldest Written Zero

ग्वालियर का चतुर्भुज मंदिर, दुनिया के सबसे पुराने लिखित शून्य का प्रतीक है। पढ़ें, प्राचीन भारत के शून्य से जुड़ने की बेहद रोचक कहानी।

इतिहास में दिलचस्पी रखनेवाले हर शख्स ने, एक न एक बार देश के मध्य में स्थित ग्वालियर के सांस्कृतिक केंद्रों का दौरा जरूर किया होगा। ढेरों ऐतिहासिक कहानियों को अपने अंदर समेटे हुए, यह शहर आज अपने किलों (Gwalior fort) के लिए ज्यादा जाना चाहता है। यहां मौजूद मंदिर हमारी सभ्यता और वास्तुकला की कहानी कहते हैं। लेकिन एक और वजह है, जिसने इस शहर को देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी खासा लोकप्रिय बना दिया। वह है इसका चतुर्भुज मंदिर। कहते हैं कि आज जिस संख्या को हम जीरो के रूप में जानते और इस्तेमाल करते हैं, उसका सबसे पुराना रिकार्ड यहीं इस मंदिर में दर्ज है। 

शून्य की उत्पत्ति की लेकर जो भी अनसुनी बातें हैं, उसके बारे मे बताने से पहले हम ग्वालियर के इतिहास पर थोड़ी सी नजर डाल लेते हैं, जो अपने आप में काफी रोचक रहा है। इस शहर पर कभी तोमरों के राजपूत वंश ने शासन किया था। बाद में इसे 16वीं शताब्दी की शुरुआत में मुगल सम्राट बाबर का कब्ज़ा हो गया।

यह शहर, अकबर के दरबार में नौ रत्नों में से एक संगीतकार और कवि तानसेन का घर भी रहा है। शायद यही वजह है कि ग्वालियर घराना न केवल देश के सबसे पुराने हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत विद्यालयों में से एक है, बल्कि सबसे सम्मानित भी है। यह वही जगह है, जहां रानी लक्ष्मीबाई ने 1857 के विद्रोह के दौरान अंतिम सांस ली थी। कहते हैं कि कभी मराठा सिंधिया कबीले की रियासत का केंद्र रहे इस शहर का नाम हिंदू संत ग्वालिपा के सम्मान में रखा गया था, जिन्होंने कुष्ठ रोग से जूझ रहे एक स्थानीय सरदार को ठीक किया था।

सास-बहु का मंदिर और गूजरी महल

oldest zero chaturbhuj temple
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मध्य भारत की सबसे प्राचीन जगहों में से एक ग्वालियर किला (Gwalior fort) काफी मशहूर है। गोपाचल पर्वत के ऊपर बना यह किला, अपने बेहतरीन आर्किटेक्चर के लिए जाना जाता है, जिसकी झलक यहां के महलों, मंदिरों और कुछ जलाशयों में साफ नजर आती है। यहीं पर 15वीं शताब्दी में बना रॉक-कट जैन स्मारक भी है। 

इसके अलावा, द्रविड़ शैली का तेली-का-मंदिर और गूजरी महल भी लोगों को अपनी ओर खींचता है। गूजरी महल को राजा मान सिंह ने अपनी रानी मृगनयनी के लिए बनवाया था। किले (Gwalior fort) का दूसरा महल मान मंदिर पैलेस है, जिसका निर्माण तोमर शासन के दौरान करवाया गया था। कहा यह भी जाता है कि इस जगह पर औरंगजेब ने अपने भाई को कैद करके रखा था और उसकी हत्या कर दी थी। यहां मौजूद दो-स्तंभों वाले सास-बहू मंदिर को देखने के लिए भी दूर-दूर से लोग आते हैं।

जीरो का सबसे पहला प्रयोग

ग्वालियर किले (Gwalior fort) के पास मौजूद चतुर्भुज मंदिर, हर युग के गणितज्ञों को लगातार अपनी ओर आकर्षित करता रहा है और इसकी वजह है यहां मौजूद शून्य। आज जिस संख्या को हम जीरो के रूप में जानते और इस्तेमाल करते हैं, उसका सबसे पुराना रिकॉर्ड यहीं इस मंदिर में दर्ज है। इसी वजह से यह देश-विदेश के गणितज्ञों के लिए अध्ययन का केंद्र बना हुआ है। मंदिर की एक दीवार पर नौवीं शताब्दी के एक शिलालेख पर “0” को दर्शाया गया है। 

876 ईस्वी में बने, भगवान विष्णु को समर्पित इस चतुर्भुज मंदिर में मौजूद शिलालेख पर दो बार शून्य संख्या का उल्लेख किया गया है। देवनागरी लिपि व संस्कृत भाषा में शिलालेख पर ‘270 X 167 हाथ जमीन दान में देने और पूजा के लिए प्रतिदिन 50 मालाएं दान में देने’ की बात लिखी गई है।

कंबोडिया में है सबसे पूराना रिकॉर्ड?

कुछ समय पहले तक सिर्फ भारत ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में इसे जीरो का सबसे पुराना रिकॉर्ड माना जाता था। लेकिन फ्रांसीसी पुरातत्वविद् एडेमार्ड लेक्लेरे की खोज ने काफी कुछ बदल दिया। उन्होंने 1891 में कुछ ऐसी पांडुलिपियों की खोज की, जिसमें एक बिंदु को जीरो की तरह इस्तेमाल किया गया था। ये डॉट उत्तरपूर्वी कंबोडिया के क्रैटी प्रांत में, आर्कियोलॉजिकल साइट ट्रैपांग प्री के एक बलुआ पत्थर की सतह पर उकेरे गए थे।

खमेर सभ्यता की इस लिपि में लिखा गया था, “घटते चंद्रमा के पांचवें दिन चाका युग 605 वर्ष पर पहुंच गया है।” ऐसा माना जाता है कि ये अभिलेख 687 ई के हैं और इनका संबंध कंबोडिया के अंगकोर वाट मंदिर से है, जो फिलहाल युनेस्को के विश्व धरोहर स्थलों में से एक है। जनवरी 2017 में कंबोडिया के राष्ट्रीय संग्रहालय में लगी एक प्रदर्शनी में इस प्राचीन लिपि को भी शामिल किया गया था। यह लिपि, खमेर साम्राज्य के दौरान मंदिरों के निर्माण में अंक प्रणाली के महत्व को बताती है।

बख्शाली पांडुलिपि की खोज

बख्शाली पांडुलिपि की खोज 1881 में भारतीय गांव बख्शाली, मर्दन (फिलहाल पाकिस्तान में) में एक खेत में हुई थी। सबसे पहले जापानी विद्वान डॉ हयाशी ताकाओ ने इस लिपि पर शोध किया और बताया कि इस लिपी की उत्पत्ति संभवतः 8वीं और 12वीं शताब्दी के बीच हुई थी।

एन्सायक्लोपीडिया ऑफ द हिस्ट्री ऑफ साइंस, टेक्नोलॉजी एंड मेडिसिन इन नॉन वैस्टर्न कल्चर में उन्होंने अपने एक लेख में लिखा था कि इस लिपि में कई तरह के कार्यों में गणितीय नियमों और उदाहरणों का संकलन था। बाद में, जब 1902 में पांडुलिपि को ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी की बोडलियन लाइब्रेरी में लाया गया, तो वैज्ञानिकों ने इसकी उत्पत्ति का पता लगाने के लिए कार्बन डेटिंग का प्रयोग किया।

उन्होंने कहा कि पांडुलिपि में 70 बहुत नाजुक बर्च की छाल वाले पृष्ठ हैं और यह कम से कम तीन अलग-अलग समय में लिखे गए थे। इसलिए शोधकर्ता इसकी उत्पत्ति का सही-सही पता नहीं लगा पाए हैं। 

भारतीय गणितज्ञ तीसरी सदी से करते आ रहे थे शून्य का इस्तेमाल 

सबसे पहले जीरो का रिकॉर्ड चाहे ग्वालियर किले (Gwalior fort) के पास, चतुर्भुज मंदिर में मिला हो या फिर अंगकोर वाट मंदिर में। इसका संबंध कहीं न कहीं भारत से ही रहा है। क्योंकि कंबोडिया का मंदिर भी हिंदू और बौद्ध धर्म का मिला-जुला रूप है। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं के अनुसार, “यह बात तो तय है कि भारतीय गणितज्ञ तीसरी या चौथी शताब्दी से शून्य का इस्तेमाल करते आ रहे थे। इस लिपि में सैकड़ों शून्य हैं, जिनमें से सभी को एक साधारण डॉट का उपयोग करके दर्शाया गया। यकीनन यह दुनिया भर में जीरो का पहला उल्लेख है।

ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में गणित के प्रोफेसर मार्कस डू सौतॉय, ने एक बार कहा था, “बख्शाली पांडुलिपि में पाए गए डॉट से जीरो को एक संख्या के रूप में इस्तेमाल करना गणित के इतिहास की सबसे बड़ी उपलब्धि है।” 

उन्होंने आगे कहा, “अब हम जान चुके हैं कि भारत के प्राचीन गणितज्ञों ने तीसरी सदी में ही गणित के विचार का ऐसा बीज रोपा था, जो आज आधुनिक दुनिया की बुनियाद है। तो इन खोजों से यह तो साफ है कि प्राचीन काल में भारतीय उपमहाद्वीप में गणित की विद्या खूब फल-फूल रही थी।”

‘निर्वाण बाय नंबर्स’ डाक्यूमेंट्री

साल 2013 में ब्रिटिश लेखक एलेक्स बेलोज़ ने ग्वालियर (Gwalior fort) के सात चतुर्भुज मंदिर का दौरा किया था। वह बीबीसी रेडियो डाक्यूमेंट्री, ‘निर्वाण बाय नंबर्स’ के लिए शोध कर रहे थे। 

उन्होंने अपने एक लेख में लिखा था कि वे भारतीय ही थे, जिन्होंने पहली बार जीरो को, एक और नौ से जोड़कर उसे दूसरी संख्याओं के समान महत्वपूर्ण बना दिया और इसे “गणित के इतिहास में संभवतः सबसे बड़ी वैचारिक छलांग” के रूप में दर्शाया गया था। उन्होंने लिखा कि उपमहाद्वीप में ही पहली बार जीरो से संख्या तैयार की गई थी।

‘प्लेसहोल्डर’ के रूप में, शून्य का इस्तेमाल संख्यात्मक पैमाने पर रैंकिंग की डिग्री को दर्शाने के लिए किया जाता था। सरल शब्दों में कहें, तो जीरो अपने आप में कुछ नहीं होगा। लेकिन किसी भी संख्या के साथ लगने के बाद, यह उन संख्याओं के मूल्य को बदल देगा। जीरो का इस्तेमाल ऐसी जगहों के लिए भी किया गया, ‘जहां कुछ भी नहीं’ होता है। उन्होंने कहा कि चीनियों ने जीरो का इस्तेमाल ऐसी ही कुछ जगहों के लिए किया, जबकि बेबीलोनियों ने एक प्लेस होल्डर के रूप में जीरो को माना था। 

भारतीय दर्शन से भी जुड़ा है शून्य

एलेक्स जब ग्वालियर के जीवाजी विश्वविद्यालय में गणित की प्रोफेसर रेणु जैन से मिले, तो जीरो को देखने का उनका नजरिया ही बदल गया। एक बातचीत में रेणु ने उन्हें बताया था कि जीरो की अवधारणा कहीं न कहीं निर्वाण के भारतीय दर्शन के साथ भी जुड़ी है। जब हम साधना में होते हैं, तो ऐसी स्थिति को ‘आध्यात्मिक शून्यता’ कहा जाता है। इस सोच से ही आगे चलकर जीरो का आविष्कार हुआ।

प्रोफेसर ने एलेक्स से कहा था, “जीरो का मतलब है ‘कुछ भी नहीं’। लेकिन भारत में इसे शून्य की अवधारणा से लिया गया था। शून्य का अर्थ है एक प्रकार का मोक्ष। जब हमारी सभी इच्छाएं समाप्त हो जाती हैं, तब हम निर्वाण या शून्य या पूर्ण मोक्ष में चले जाते हैं।”

ऋग्वेद में भी है इसका ज़िक्र

अपनी किताब ‘द क्रेस्ट ऑफ द पीकॉक’ में; गणित के गैर-यूरोपीय मूल, डॉ जॉर्ज घेवरघेस जोसेफ ने भी लिखा है कि जीरो के लिए संस्कृत शब्द, शून्य, है जिसका अर्थ है ‘रिक्त’ या ‘खाली’। वहीं ऋग्वेद के पवित्र ग्रंथों में ‘अभाव’ या ‘कमी’ की परिभाषा के साथ इसे जोड़ा गया था। बौद्ध सिद्धांत में कहा गया है कि मस्तिष्क को विचारों और धारणा से मुक्त करना ही “शून्यता” है।

इस बीच, नीदरलैंड स्थित ज़ीरोरिगइंडिया प्रोजेक्ट के पीटर गोबेट्स ने भी माना कि प्राचीन भारत में कई तथाकथित सांस्कृतिक पृष्ठभूमियां दर्शाती हैं कि गणितीय शून्य अंक का आविष्कार वहां किया गया था।

जीरो की उत्पत्ति कहां और कैसे हुई, इसे लेकर खोजें होती रहेंगी और उन खोजों का लगातार विरोध भी किया जाता रहेगा, क्योंकि इससे एक सभ्यता की जयजयकार होने का डर जुड़ा हुआ है। लेकिन हमारे लिए यह किसी दिलचस्प बात से कम नहीं है कि इस संख्या के इस्तेमाल के शुरुआती रिकॉर्ड भारत में भी मौजूद हैं। इसलिए जब अगली बार ग्वालियर के सफर पर आएं, तो यहां का किला (Gwalior fort) और चतुर्भुज मंदिर के सांस्कृतिक गौरव का अनुभव लेना न भूलें।

मूल लेखः तूलिका चतुर्वेदी

संपादनः अर्चना दुबे

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