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मीराबेन: वह ब्रिटिश महिला, जिन्हें गांधी जी का साथ देने के लिए कई बार जाना पड़ा था जेल

महात्मा गांधी के अनुयायी पूरी दुनिया में थे। इसमें मार्टिन लूथर किंग, नेल्सन मंडेला जैसे महान नेताओं से लेकर राजकुमारी अमृत कौर और सरोजिनी नायडू जैसी कई महिलाओं के नाम भी शामिल हैं। लेकिन, गांधी जी की एक अनुयायी ऐसी भी थीं, जिन्होंने सत्य और अहिंसा के रास्ते पर चलने के लिए धन-दौलत ही नहीं, बल्कि देश भी छोड़ दिया। 

उनकी इस अनुयायी का नाम मीराबेन (Mirabehn) था। मीराबेन का असली नाम मेडेलीन स्लेड था। वह एक ब्रिटिश एडमिरल की बेटी थीं। उनका जन्म 22 नवंबर 1892 को इंग्लैंड में हुआ था। 

मेडेलीन स्लेड को बचपन से ही प्रकृति से एक खास लगाव था। वह पहली बार भारत, 1908 में अपने पिता के साथ आईं। यहां दो साल रहने के बाद, वह वापस अपने देश चली गईं।

कहा जाता है कि मेडेलीन जर्मनी के मशहूर पियानिस्ट और म्यूजिशियन बीथोवेन की फैन थीं। इसी कारण वह नोबल पुरस्कार से सम्मानित फ्रांसीसी लेखक रोमां रोलां के संपर्क में आईं। रोमां रोलां वही शख्स थे, जिन्होंने महात्मा गांधी की जीवनी लिखी थी। 

गांधी जी की जीवनी ने मेडेलीन को काफी प्रभावित किया और उन्होंने गांधी जी को एक चिठ्ठी लिखकर, उनके आश्रम आने की इच्छा जताई। कहा जाता है कि मेडेलीन, गांधी जी को ईसा मसीह का अवतार मानने लगी थी और उन्हें एहसास हो गया था कि यह वही ‘अज्ञात’ हैं, जिसका उन्हें इंतजार है।

मीराबेन

अक्टूबर 1925 में वह मुंबई के रास्ते, अहमदाबाद आईं। मेडेलीन ने गांधी जी से अपनी पहली मुलाकात को कुछ यूं बयां किया, “जब मैं वहां पहुंची, तो सामने से एक दुबला-पतला शख्स सफेद गद्दी से उठकर मेरी तरफ बढ़ रहा था। मैं जानती थी कि वह बापू थे। मैं हर्ष और श्रद्धा से भर गई थी। मुझे बस सामने एक दिव्य रौशनी दिखाई दे रही थी। मैं बापू के पैरों में झुककर बैठ जाती हूं। बापू मुझे उठाते हैं और कहते हैं – तुम मेरी बेटी हो।”

इसके बाद उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी गांधी जी की सेवा में समर्पित कर दी और गांधी जी ने उन्हें मीराबेन (Mirabehn) नाम दिया। उन्होंने न सिर्फ भारत के रहन-सहन के तरीकों को अपनाया, बल्कि सेवा और ब्रह्मचर्य का संकल्प भी ले लिया। वह पूरी जिंदगी गांधी जी की सेवा में लगी रहीं। 

सजा का भी किया सामना 

1930 के दौर में भारत में आजादी की लड़ाई काफी तेज हो गई थी। अंग्रेजी हुकूमत ने कांग्रेस को गैरकानूनी घोषित कर, गांधी जी को गिरफ्तार कर लिया था। अखबारों पर सेंसरशिप लगा दिया गया। इस दौरान, मीराबेन सरकारी अत्यचारों की खबरें, दुनिया को बताने लगीं। 

जब अंग्रेजी हुकूमत को इसके बारे में भनक लगी, तो उन्होंने मीराबेन (Mirabehn) को गिरफ्तार कर लिया। रिहा होने के बाद वह मुंबई चली गईं और वहीं से अंग्रेजों के खिलाफ काम करने लगीं। उन्हें एक साल के लिए फिर से गिरफ्तार कर लिया गया। उन्होंने 1942 में, भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान भी गिरफ्तार किया गया। 

इस बार, उन्हें गांधी जी के साथ ही गिरफ्तार किया गया। 1944 में जेल से रिहा होने के बाद, मीराबेन ने गांधी जी से उत्तर भारत में काम करने की अनुमति मांगी।

स्त्रोत – भारतकोश

मीराबेन (Mirabehn) स्वतंत्र रूप से काम करना चाहती थीं। वह ऐसी जगह रहना चाहती थीं, जहां से हिमालय पास हो और खेती-किसानी संभव हो। इस कड़ी में अमीर सिंह नाम के एक किसान ने उन्हें रूड़की और हरिद्वार के बीच में 10 एकड़ जमीन दान में दे दी। मीराबेन ने यहां ‘किसान आश्रम’ शुरू किया। 

आजादी के बाद, उन्हें वन विभाग द्वारा ऋषिकेश में ‘पशुलोक आश्रम’ की शुरुआत करने के लिए 1948 में 2146 एकड़ जमीन लीज पर दी गई। मीराबेन पूरी जिंदगी, समाज की भलाई के लिए काम करती रहीं। 

गांधी जी की हत्या ने किया व्यथित

नाथूराम गोडसे ने  30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की हत्या कर दी। इस खबर के सुनने के बाद मीराबेन (Mirabehn) को गहरा धक्का लगा। लेकिन, उन्होंने गांधी जी के पार्थिव शरीर को देखने के लिए दिल्ली जाने के बजाय अपनी कुटिया में ही रहने का फैसला किया। क्योंकि, मीराबेन को एहसास था कि गांधी जी हमेशा उनके साथ हैं और आखिरी दर्शन का कोई मतलब नहीं है। 

स्त्रोत – विकिपीडिया

वह गांधी जी की हत्या के अगले महीने उस जगह पर गईं, जहां उन्हें गोली मारी गई थी। फिर वह उनके समाधि स्थल पर गईं और फिर ऋषिकेश लौट गईं। इसे लेकर उन्होंने कहा, “इस बार दिल्ली मुझे मुर्दों का शहर लगा। सबके चेहरे पर निराशा फैली थी। हर तरफ शून्यता पसरी थी।”

आर्थिक परेशानियों का भी करना पड़ा सामना

अपने आखिरी पलों तक, वह बापूमय जीवन जीती रहीं। उनकी जरूरतें बहुत सीमित थीं। उम्र के साथ-साथ उनका स्वास्थ्य भी गिरने लगा। तबतक वह वियना चली गई थीं। वहां जाने के बाद, उन्हें आर्थिक परेशानियां भी घेरने लगी। 1977-78 में केंद्रीय गांधी स्मारक निधि के मंत्री देवेंद्र कुमार उनसे लंदन में मिले और उन्होंने देखा कि उनके पास इतने भी पैसे नहीं थे कि वह अपने लिए गरम कपड़े सिला सकें। इसके बाद, भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी उनसे मिलने पहुंची और उनकी आर्थिक परेशानियों को दूर किया।

1981 में मीराबेन को भारत सरकार ने ‘पद्म विभूषण’ से सम्मानित किया। 20 जुलाई 1982 को उन्होंने वियना में अपनी अंतिम सांस ली। आस्ट्रिया में दाह संस्कार का रिवाज नहीं है, लेकिन मीराबेन चाहती थीं कि उनका अंतिम संस्कार हिन्दु रीति-रिवाज से किया जाए। मीराबेन की चिता को उनके सेवक रामेश्वर दत्त ने आग दी। फिर उनके भस्म को भारत लाया गया और ऋषिकेश में प्रवाह कर दिया गया।

संपादन- जी एन झा

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