भारत की आज़ादी के संघर्ष में जनक्रांति, विद्रोह और आंदोलन के साथ-साथ पत्रकारिता का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है। अलग-अलग प्रांतों के आम लोगों को आपस में जोड़ने में समाचार पत्र-पत्रिकाओं ने अहम् भूमिका निभाई थी। कई समाचार पत्र और उनके संपादक भारत की जनक्रांति की आवाज़ बने।
कई क्रांतिकारियों ने पत्रकारिता के माध्यम से स्वदेशी, स्वराज्य एवं स्वाधीनता के विचारों को जनसामान्य तक पहुंचाने का कार्य किया। जिनमें लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक प्रमुख व्यक्ति थे।
स्वराज्य का उद्घोष!
यह तिलक ही थे, जिन्होंने स्वतंत्रता के संघर्ष को ‘स्वराज्य’ का नारा देकर जन-जन से जोड़ दिया। उनके ‘स्वराज्य’ के नारे को ही आधार बनाकर वर्षों बाद महात्मा गाँधी ने स्वदेशी आंदोलन का आगाज़ किया था। 23 जुलाई 1856 को महाराष्ट्र के रत्नागिरी में जन्में बाल गंगाधर तिलक महान स्वतंत्रता सेनानी थे। वे उस दौर की पहली पीढ़ी थे, जिन्होंने कॉलेज में जाकर आधुनिक शिक्षा की पढ़ाई की।
वे भारतीयों को एकत्र कर, उन्हें ब्रिटिश शासन के विरुद्ध खड़ा करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने नारा दिया,
“स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है, और मै इसे लेकर रहूँगा।”

‘मराठा’ और ‘केसरी’ बने हथियार!
उनका यह नारा धीरे-धीरे लगभग पूरे भारत की सोच बन गया। तिलक की क्रांति में उनके द्वारा शुरू किये गये समाचार-पत्रों का भी ख़ास योगदान रहा। उन्होंने दो समाचार पत्र, ‘मराठा‘ एवं ‘केसरी‘ की शुरुआत की। इन पत्रों को छापने के लिए एक प्रेस खरीदा गया, जिसका नाम ‘आर्य भूषण प्रेस‘ रखा गया। साल 1881 में ‘केसरी’ अख़बार का पहला अंक प्रकाशित हुआ। इन अख़बारों में तिलक के लेख ब्रिटिश शासन की क्रूर नीतियों और अत्याचारों का खुलकर विरोध करते थे।
‘केसरी’ के प्रकाशन के बाद उन्होंने उसके स्वरूप एवं पत्रकारिता के अपने उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए लिखा था,
‘‘केसरी निर्भयता एवं निष्पक्षता से सभी प्रश्नों की चर्चा करेगा। ब्रिटिश शासन की चापलूसी करने की जो प्रवृत्ति आज दिखाई देती है,वह राष्ट्रहित में नहीं है। ‘केसरी‘ के लेख इसके नाम को सार्थक करने वाले होंगे।”

स्पष्ट और विद्रोही लेखों की वजह से हुई जेल
धीरे-धीरे वे आम जनता की आवाज़ बन गये और इसकी वजह से उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। ‘निबंध माला‘ पत्रिका के संपादक विष्णु कृष्ण चिपलूणकर एवं गोपालकृष्ण आगरकर के सहयोग से तिलक ने न्यू इंग्लिश स्कूल की भी स्थापना की थी। इस स्कूल का काम हो, या उनके प्रेस का, तिलक अपने अन्य साथियों के साथ मिलकर सभी काम स्वयं करते थे। किसी मशीन को एक स्थान से दूसरी जगह ढोकर ले जाना, स्कूल की साफ़-सफ़ाई करना, इतना ही नहीं, ‘मराठा’ और ‘केसरी’ की प्रतियाँ भी वे खुद घर-घर जाकर बेचते।
उन्होंने कभी भी अपने अख़बारों को पैसा कमाने के लिए इस्तेमाल नहीं किया। उनके समाचार पत्रों में विदेशी-बहिष्कार, स्वदेशी का उपयोग, राष्ट्रीय शिक्षा और स्वराज आंदोलन जैसे महत्वपूर्ण विषयों को आधार बनाया गया। अपने इन्हीं स्पष्ट और विद्रोही लेखों के कारण वे कई बार जेल भी गये। इसके बावजूद, तिलक पत्रकारिता के लिए पूर्णतः समर्पित थे और हमेशा अपने विचारों और उसूलों पर अडिग रहे।
पत्रकारिका के मार्ग में मृत्यु से भी नहीं हुए भयभीत
एक बार पुणे में प्लेग की बीमारी फैली। ऐसे में आर्यभूषण मुद्रणालय (जहाँ उनके समाचार पत्र छपते थे) के मालिक ने तिलक से कहा कि मुद्रणालय में कर्मचारियों की संख्या प्लेग के कारण कम हो गयी है और इसलिए जब तक यह महामारी ख़त्म नहीं हो जाती, तब तक ‘केसरी’ की प्रतियाँ समय पर नहीं छप सकती।
इस पर तिलक ने बड़ी ही दृढ़ता से उन्हें जबाव दिया,
“आप आर्यभूषण के स्वामी और मैं ‘केसरी’ का संपादक, यदि इस महामारी में हम दोनों को ही मृत्यु आ गई, तब भी हमारी मृत्यु के पश्चात, पहले 13 दिनों में भी ‘केसरी‘ मंगलवार की डाक से जाना चाहिए।”
आम जनता का नायक ‘लोकमान्य’
अपने इसी निडर और दृढ़ व्यक्तित्व के कारण उन्हें आम लोगों से ‘लोकमान्य’ की उपाधि मिली। इतना ही नहीं, उनके लेख युवा क्रांतिकारियों के लिए प्रेरणास्त्रोत बनें। उनका लेखन एवं मार्गदर्शन क्रांतिकारियों को ऊर्जा प्रदान करता था। इसलिए अंग्रेज़ी सरकार हमेशा ही तिलक और उनके अख़बारों से परेशान रहती थी।
जहाँ एक तरफ वे अंग्रेज़ों के लिए “भारतीय अशान्ति के जनक” थे, तो दूसरी तरफ़ लोग उन्हें अपना ‘नायक’ मान चुके थे। पर भारत का यह ‘लोकमान्य नायक’ स्वाधीनता का सूर्योदय होने से पहले ही दुनिया को अलविदा कह गया। 1 अगस्त 1920 को तिलक का निधन हुआ।
उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए महात्मा गाँधी ने कहा था कि तिलक ‘आधुनिक भारत के निर्माता’ थे और नेहरु ने उन्हें ‘भारतीय क्रांति का जनक’ कहा। पत्रकारिता के क्षेत्र में समर्पण, सत्य और निष्पक्षता के जो मापदंड उन्होंने स्थापित किये, वे आज भी भारत की हर एक पीढ़ी के लिए प्रेरणास्त्रोत हैं।
(संपादन – मानबी कटोच)
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