जब एक बंगाली ने स्वदेशी क्रीम बनाकर अंग्रेजों को दी चुनौती, जानिए बोरोलीन का इतिहास!

कहा जाता है कि जब 15 अगस्त 1947 को भारत को आजादी मिली, तो कंपनी ने बोरोलीन की करीब 1,00,000 ट्यूब मुफ्त में बांटी थी।

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हर मर्ज की दवा - बोरोलीन। करीब एक सदी से हरे रंग की इस ट्यूब के बारे यही कहा जाता रहा है। रूखे होंठ, कटी-जली त्वचा, सूजन जैसी समस्या हो या फिर सर्दियों में सूखी त्वचा की परेशानी हो, हर मर्ज़ की दवा बोरोलीन एंटीसेप्टिक क्रीम मानी जाती रही है। सालों से यह क्रीम हर घर का एक अहम हिस्सा रहा है। 

अगर यकीन न हो तो  किसी बंगाली से पूछ कर देखिए।

बंगालियों और बोरोलीन के बीच खास ताल्लुक रहा है। आज इस लेख में हम आपको बोरोलीन से जुड़े कुछ रोचक तथ्य के बारे में बताएंगे।

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बोरोलीन कंपनी की नींव 90 साल पहले, बंगाल में गौर मोहोन दत्ता ने रखी थी। उस समय देश में ब्रिटिश शासन था। देश में असहयोग आंदोलन का आगाज़ हो चुका था। ऐसे समय, बोरोलीन ना केवल भरोसेमंद वस्तु के रूप में सामने आया है, बल्कि राष्ट्रीय आत्मनिर्भरता के प्रतीक के रूप में भी उभरी। यह कुछ ही स्वदेशी उत्पादों में से एक है जो देश भर में आज भी प्रासंगिक और उपयोग किए जाते हैं।

1929 में, दत्ता की जी डी फार्मास्यूटिकल्स प्राइवेट लिमिटेड ने एक खूशबूदार क्रीम का निर्माण शुरू किया। यह क्रीम एक हरे रंग की ट्यूब में पैक की जाती थी और बाज़ार में बेची जाती थी। इसे रोज़ाना इस्तेमाल किए जाने वाले स्किनकेयर और मेडिकल उत्पाद के साथ विदेशी निर्मित वस्तुओं के खिलाफ एक विरोध प्रदर्शन के रूप में देखा जा रहा था। विदेशी कंपनी द्वारा निर्मित वस्तुएं ब्रिटिशों द्वारा भारतीयों को मंहगी दरों में बेची जाती थी जो एक तरह से आर्थिक शोषण का भी ज़रिया था।

कंपनी के रास्ते में कई रोड़े आए लेकिन इन सबसे लड़ते हुए बोरोलीन क्रीम हिंदुस्तान की जनता के हाथ पहुंचती रही। यहां तक कि आधुनिक स्वतंत्र भारत में भी कई तरह के एडवांस स्किनकेयर उत्पाद आने के बाद भी यह अपनी जगह बनाने में कामयाब रही है। 

बंगाल कनेक्शन

एक तरफ, युवा सूखी त्वचा के साथ-साथ मुहांसो को दूर करने के लिए इस खूशबूदार क्रीम का इस्तेमाल करते थे। वहीं माताएं और दादी चोट-घाव को दूर करने के बोरोलीन लगाती थी। एक तरह से, बंगाली परिवारों की पीढ़ियाँ बोरोलीन का इस्तेमाल मेडिकल के साथ-साथ एक सौंदर्य उत्पाद के रूप में करती आ रही हैं। 

इन वर्षों में, यह बंगाल की संस्कृति का हिस्सा बन गया है।

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यहाँ वीडियो दिया गया है जिसमें इसका सार दिखाया गया है :

बोरोलीन के पीछे का विचार आत्मनिर्भरता के साथ जुड़ा हुआ है। कई समस्याओं का हल देने वाली यह क्रीम एक स्वदेशी कंपनी द्वारा बनाई जाती थी और काफी सस्ते दाम पर बेची जाती थी और इसने न केवल राष्ट्रवादी भारतीयों का बल्कि तेजी से बढ़ते बंगाली मध्यम वर्ग का प्रतिनिधित्व भी किया, जिसने अंततः नए युग की शुरुआत को चिह्नित किया।

धीरे-धीरे यह क्रीम दुनिया के हर कोने तक पहुंच चुकी है। 

क्या है इसमें खास? 

पश्चिम बंगाल से शुरू किया गया यह ‘एंटीसेप्टिक आयुर्वेदिक क्रीम’, अनिवार्य रूप से बोरिक एसिड (टैंकन आंवला), जिंक ऑक्साइड (जसद भस्म), इत्र, पैराफिन और ओलियम से बना है।

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इसका केमिकल फॉर्मूला सरल है। बोरोलीन की लोकप्रियता आज भी उतनी ही है, जितनी आजादी से पहले थी। इस क्रीम की खुश्बू हर किसी के स्मृति में दर्ज है।

इससे भी अधिक दिलचस्प बात यह है कि जीडी फार्मास्यूटिकल्स, जो एक भारतीय मॉडल पर स्थापित की गई कंपनी है, पिछले 90 वर्षों में एक भी रुपये के लिए सरकार की ऋणी नहीं है!

लाइव मिंट से बात करते हुए, कंपनी के संस्थापक, गौर मोहन दत्ता के पोते देबाशीष दत्ता ने बताया कि इसकी लोकप्रियता के पीछे का मुख्य कारण स्थिर गति के साथ दक्षता और उत्पाद की गुणवत्ता है। देबाशीष दत्ता कंपनी के वर्तमान प्रबंध निदेशक यानी मैनेजिंग डायरेक्टर हैं।

इसकी लोकप्रियता का कुछ कारण इसका प्रसिद्ध अतीत भी है। ऐसा कहा जाता है कि जब 15 अगस्त 1947 को भारत को आजादी मिली, तो कंपनी ने बोरोलीन की करीब 1,00,000 ट्यूब मुफ्त में बांटी थी।

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हालांकि, समय के साथ, दूसरे उत्पादों की तरह, यह भी फैंसी पैकेजिंग और प्रचार की आधुनिक शैली को अपना रहा है। हमें उम्मीद है कि यह आने वाले कई वर्षों तक अपनी मीठी और सुगंधित पुरानी दुनिया के आकर्षण को बनाए रखेगा!

मूल लेख-

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