पुणे के इस वकील का है गोवा की आज़ादी में बड़ा हाथ; पुर्तगाली जेल में बिताये थे 14 साल!

गोवा की आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहे लोगों ने यह महसूस किया कि सत्याग्रह जैसे आंदोलन से गोवा को आज़ादी नहीं मिल सकती। इसलिए उन्होंने आंदोलन का अलग रास्ता चुना।

मुद्री तट, लज़ीज़ सी-फूड और खूब सारी मौज-मस्ती। इन सब के लिए मशहूर गोवा अपने प्राचीन इतिहास और संस्कृति के लिए भी जाना जाता है।

गोवा और पुर्तगाली

गोवा में पुर्तगाली शासन 1498 में शुरू हुआ था और करीब 450 साल तक चला। वास्को द गामा ने पुर्तगाल की राजधानी लिस्बन से अपनी यात्रा शुरू की और 1498 में केरल के कालीकट समुद्र तट पर पहुँचे।
1510 में जब गोवा बीजापुर के सुल्तान आदिल शाह के शासन में था, तब अल्फांसो द अल्बुकर्क के नेतृत्व में पुर्तगाल ने इस क्षेत्र पर हमला किया।

उस समय सुल्तान अपनी सेना के साथ किसी दूसरे क्षेत्र में युद्ध में व्यस्त था, इसलिए पुर्तगालियों को गोवा पर कब्ज़ा करने में किसी ख़ास प्रतिरोध का सामना नहीं करना पड़ा।

19 दिसंबर, 1961 को, गोवा को पुर्तगाली औपनिवेशिक शासन से मुक्त किया गया (स्त्रोत)

इस विजय के साथ पुर्तगाल भारतीय उपमहाद्वीप पर अपना शासन स्थापित करने वाला पहला यूरोपीय देश बन गया।
पुर्तगाल के शासन के कारण गोवा को ‘लिस्बन ऑफ ईस्ट’ भी कहा जाता है।

जब पूरे देश में अंग्रेजों से आज़ादी के लिए संघर्ष जारी था, तब गोवा में भी पुर्तगाल के शासन से मुक्ति के लिए आंदोलन हो रहे थे।

मोहन रानडे और गोवा मुक्ति आंदोलन

महाराष्ट्र के सांगली में 1929 में जन्मे मोहन रानडे वकील थे। वे स्वतंत्रता सेनानी व राष्ट्रवादी विचारक जी. डी. सावरकर और वी. डी. सावरकर से प्रभावित थे। गोवा को आज़ादी दिलाने के लिए वे आज़ाद गोमन्तक दल में शामिल हो गए।
रानाडे 1950 की शुरुआत में एक मराठी शिक्षक के रूप में गोवा पहुँच गए और वहाँ पुर्तगाली औपनिवेशिक शासन के खिलाफ गुप्त आंदोलनात्मक गतिविधियों में शामिल हो गए।

उन्होंने पुर्तगाली पुलिस चौकियों पर सशस्त्र हमलों में भाग लिया, जिनमें आखिरी हमला अक्टूबर, 1955 में बेटिम में किया गया। इसमें ये घायल हो गए और पकड़े गए।

गोवा की आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहे लोगों ने यह महसूस किया कि सत्याग्रह जैसे आंदोलन से गोवा को आज़ादी नहीं मिल सकती। इसलिए उन्होंने आंदोलन का अलग रास्ता चुना।

मोहन रानाडे (स्त्रोत)

नव हिन्दी टाइम्स में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, रानडे का कहना था, “हमने लोगों को एकजुट कर पुर्तगाली पुलिस स्टेशनों पर सशस्त्र हमला करने की नीति अपनाई। 28 जुलाई,1954 को हमने नगर हवेली पर हमला किया और 2 अगस्त को उसे मुक्त करा लिया। दादरा व नगर हवेली पर कब्ज़े के बाद गोवा में स्वतन्त्रता आंदोलन को जारी रखने के लिए नया जोश और प्रेरणा मिली। 15 अगस्त,1954 को सैकड़ों लोगों ने पुर्तगाली-गोवा सीमा को पार किया, जबकि सरकार ने किसी भी तरह के आंदोलन में भाग लेने पर पाबंदी लगा दी थी, लेकिन लोगों ने इसकी कोई परवाह नहीं की।“

इस गतिविधि पर विराम तब लगा, जब 1 जनवरी,1955 में बनस्तारीम पुलिस स्टेशन पर हमला करने के दौरान रानडे को गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें इस हमले के लिए 26 साल के कारावास की सज़ा सुनाई गई, जिनमें से 6 साल उन्हें एकांतवास में बिताना था।

उन्हें सज़ा से मुक्त कराने के लिए कई आंदोलन हुए। प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू समेत कई राष्ट्रीय नेताओं ने उनकी रिहाई की मांग की, लेकिन उन्हें नहीं छोड़ा गया। आखिरकार, 25 जनवरी, 1969 को उन्हें रिहाई मिली। दरअसल, तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री सी.एन. अन्नादुराई ने रानडे की सज़ा को लेकर पोप से बात की और उनसे इस मामले में दखलंदाज़ी की प्रार्थना की। इसके बाद उनकी रिहाई का प्रयास सफल हो पाया।

स्त्रोत

रिहाई के बाद रानडे पुणे में रहने लगे।

हालांकि, हर साल दो मौक़े पर वे गोवा अवश्य जाते हैं, एक 18 जून को, जिसे क्रांति दिवस के रूप में मनाया जाता है और दूसरा 19 दिसंबर को जो गोवा का मुक्ति दिवस है। बता दें कि 19 दिसंबर, 1961 को भारतीय सेना ने ‘ऑपरेशन विजय अभियान’ शुरू कर गोवा, दमन और दीव को पुर्तगालियों के शासन से मुक्त कराया था।

मिस्टर एंड मिसेज रानडे (स्त्रोत)

मूल लेख: विद्या राजा
संपादन: मनोज झा


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