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फ्रेडरिक वाल्टर चैंपियन, ब्रिटिश भारतीय सेना के एक पूर्व सैनिक और इंपीरियल फॉरेस्टरी सर्विस (भारतीय वन सेवा) के एक अधिकारी रहे हैं। चैंपियन का नाम एक कन्ज़र्वेशनिस्ट और भारत में जंगली बाघ की पहली तस्वीर लेने वाले शख्स के रुप में जाना जाता है। जिम कॉर्बेट Tiger Reserve ने उन्हें भारत में वाइल्डलाइफ फोटोग्राफी का रास्ता दिखाने वाले शख्स का भी श्रेय दिया।
1921 बैच के अधिकारी रहे चैंपियन ने 1947 तक संयुक्त प्रांत (लगभग वर्तमान उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के अनुरूप) में अपनी सेवाएं दीं। यहां काम करते हुए वह डिप्टी कंजर्वेटर (उप वन संरक्षक) के पद तक पहुंचे। चैंपियन ने पहली बार भारत में कैमरा ट्रैपिंग तकनीक का इस्तेमाल किया।
प्रकृति की रक्षा के प्रति चैंपियन का काफी झुकाव था और इसने ही उन्हें बंदूक छोड़ कैमरा उठाने के लिए प्रेरित किया। 1935 में वह भारत में स्थापित पहले नेशनल पार्क के फाउंडर सदस्य बने, जिसका नाम 1957 में बदलकर कॉर्बेट नेशनल पार्क रखा गया था।
बाकी साथियों से उलट था चैंपियन का स्वभाव
चैंपियन का जन्म इंग्लैंड के सरे में 24 अगस्त 1893 को हुआ। उनके पिता, जॉर्ज चार्ल्स चैंपियन एक एंटमॉलोजिस्ट थे। चैंपियन के पूरे परिवार को प्रकृति से काफी लगाव था।
चैंपियन पहली बार 1910 के दशक की शुरुआत में भारत आए थे। 1916 तक वह पूर्वी बंगाल पुलिस विभाग में सेवा करते रहे, जिसके बाद उन्हें ब्रिटिश इंडियन आर्मी रिज़र्व ऑफ ऑफिसर्स (कैवलरी शाखा) में नियुक्त किया गया। प्रथम विश्व युद्ध के बाद और 1920 के दशक की शुरुआत में वह सेना से रिटायर हो गए।
रिटायरमेंट के बाद, वह इंपीरियल फॉरेस्ट्री सर्विस में शामिल हुए। अपने समय के दूसरे अधिकारियों के विपरीत, उन्हें खेल के लिए जानवरों का शिकार करना पसंद नहीं था और उन्होंने वन्यजीव फोटोग्राफी के माध्यम से जानवरों का दस्तावेजीकरण करना शुरू किया और Tiger Reserves को एक नई दिशा दिखाई।
ट्रिप-वायर फोटोग्राफी तकनीक का इस्तेमाल
IFS में शामिल होने से पहले ही, चैंपियन ने जंगल में एक बाघ की फोटो लेने की कोशिश की थी। जैसा कि वाइल्डलाइफ इतिहासकार रज़ा काज़मी ने एक ट्विटर थ्रेड में लिखा है, "उन्हें इन तस्वीरों को प्राप्त करने में 8 साल लग गए।" कुमाऊं के जंगलों में ली गई, इन तस्वीरों को पहली बार 3 अक्टूबर 1925 को 'द इल्युस्ट्रेटेड लंदन न्यूज़' के पहले पन्ने पर प्रकाशित किया गया था।
उस तस्वीर के साथ हेडलाइन दी गई थी - "ए ट्रायम्फ ऑफ बिग गेम फोटोग्राफी: द फर्स्ट फोटोग्राफ्स ऑफ टाइगर्स इन द नेचुरल हंट्स"।
दो साल बाद, उन्होंने एक किताब लिखी जिसका नाम था - 'विथ कैमरा इन टाइगर-लैंड'। इस किताब ने 'जंगली जानवरों की तस्वीरें' प्रकाशित कर एक नई मिसाल कायम की। इस किताब में, शिकारियों द्वारा जानवरों को मारने के बजाय, यह बताया गया था कि कैसे ये जंगली जानवर मानवों की दुनिया से दूर, भारतीय जंगलों में अपनी रोज़मर्रा की जिंदगी जीते हैं।
इन तस्वीरों को शूट करने के लिए उन्होंने एक तकनीक का इस्तेमाल किया, जिसमें काफी मेहनत लगती है। इस तकनीक को 'ट्रिप-वायर फोटोग्राफी' कहा गया।
जैसा कि रज़ा काज़मी बताते हैं, "इस तकनीक में बाघ (या कोई अन्य जानवर) सामान्य रूप से जिस रास्ते से जाते थे, उन रास्तों पर सावधानी से तार लगाए गए, जो कैमरे से जुड़े थे। तार से जानवरों के टकराते ही तस्वीर क्लिक हो गई।"
चैंपियन ने लगाए थे कुल 200 ट्रैप
चैंपियन ने ट्रिप-वायर फोटोग्राफी के बारे में 'द इल्युस्ट्रेटेड लंदन न्यूज' को एक चिट्ठी के जरिए विस्तार से बताया है। उन्होंने बताया, "ये तस्वीरें काफी अनोखी हैं। मेरी जानकारी में, बाघों के अपने मूल निवास में पहले कभी इतनी संतोषजनक तस्वीरें नहीं ली गई हैं। कैमरे का फ्लैश इतना अचानक चमकता है कि जानवर कई बार शायद इसे बिजली समझ लेते हैं।"
ट्रिप-वायर फोटोग्राफी तकनीक का काफी ज्यादा महत्व है। समय के साथ, इसमें और सुधार किया गया और आज इस तकनीक को 'कैमरा ट्रैप फोटोग्राफी' के रूप में जाना जाता है। संरक्षणवादी आज इस तरीके का उपयोग, Tiger Reserves में बाघों की गणना और उनकी गतिविधियों की निगरानी के लिए करते हैं।
जैसा कि अशोक विश्वविद्यालय में इतिहास और पर्यावरण स्टडीज़ के प्रोफेसर महेश रंगराजन ने एक कॉलम में लिखा, “चैंपियन द्वारा लगाए गए 200 कैमरा ट्रैप में से, बाघ केवल 18 मौकों पर आए थे। कुल मिलाकर, उनके पास नौ बाघों के 11 शॉट थे, लेकिन ये तस्वीरें यह साबित करने के लिए पर्याप्त थीं कि कैसे प्रत्येक जानवर के धारीदार पैटर्न अलग-अलग होते हैं।
इस तकनीक ने हर तरह से एक नया रास्ता खोल दिया था। पिछले तीन दशकों में, दुनिया भर के वैज्ञानिक कहीं ज्यादा एडवांस्ड कैमरों के साथ काम कर रहे हैं। उनके पास कई सॉफ्टवेयर हैं, जिनकी सहायता से वे बाघ को, उनकी धारियों से पहचान सकते हैं। यह अब दुनिया भर में व्यापक रूप से इस्तेमाल की जाने वाली तकनीक है, लेकिन इसे शुरु करने वाले करीब सौ साल पहले जंगलों के डिप्टी कंजर्वेटर थे।
Tiger Reserve और जंगल से जुड़े कई नियमों की वकालत की
चैंपियन के लिए यह प्रक्रिया कितनी कठिन थी, इस बारे में बात करते हुए कर्नाटक में रहनेवाले बाघ एक्सपर्ट, उल्लास कारंत ने अपनी किताब 'ट्रिपवायर फॉर ए टाइगर, सलेक्टेड वर्क्स ऑफ एफडब्ल्यू चैंपियन', के परिचय में लिखा:
"मुझे 1980 के दशक के अंत में बाघों की सटीक गिनती करने में काफी कठिनाई हुई। मैंने 35 मिमी एसएलआर कैमरों और ट्रिपवायर का उपयोग किया था। मुझे सोच कर काफी आश्चर्य हुआ कि 60 साल पहले एक पुराने कैमरा ट्रैप के साथ चैंपियन ने यह कैसे किया होगा।”
'कैमरा ट्रैप फोटोग्राफी के जनक' के रूप में अपनी भूमिका के अलावा, चैंपियन ने ऐसे समय में वाइल्डलाइफ कंजर्वेशन का नेतृत्व करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जब ब्रिटिश अधिकारियों के लिए शिकार का खेल एक गर्व वाली बात थी।
रंगराजन लिखते हैं, "शिकार के कारण बाघों की घटती संख्या के बारे में वह चिंतित थे। उन्होंने 'शूटिंग ब्लॉक' आवंटित किए, जहां शिकारियों के लिए बाघ को मारने की संभावना नहीं थी।" इसके अलावा, उन्होंने बंदूक के लाइसेंस को सीमित करने, मोटरकारों को आरक्षित जंगलों में प्रवेश करने से रोकने और जंगलों में रहने वाले जानवरों को मारने के लिए नकद इनाम को कम करने की भी वकालत की।
उदाहरण के लिए, शिवालिक, जहां चैंपियन ने काफी काम किया था, वहां गवर्नर-जनरल के शूटिंग ब्लॉक थे। कॉर्बेट के आने से पहले, 'विथ कैमरा इन टाइगर-लैंड' (1927) और 'जंगल इन सनलाइट एंड शैडो' (1934) जैसे अपने कामों के साथ, चैंपियन ब्रिटिश भारतीय प्रशासन के शीर्ष अधिकारियों के लिए बड़े गेम शूट आयोजित करते थे।
Rajaji Tiger Reserve की कहानी
हालांकि, जब भारत आजाद हो गया, तब स्वतंत्रता सेनानी और भारत के दूसरे व अंतिम गवर्नर-जनरल सी राजगोपालाचारी (राजाजी) ने चीजों को बदल दिया।
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जैसे कि राजाजी Tiger Reserve की वेबसाइट पर लिखा है, "ऐसा कहा जाता है कि नियुक्ति के बाद गवर्नर जनरल राजाजी को शिकार के लिए आमंत्रित किया गया था, लेकिन वह क्षेत्र में जैविक विविधता और जंगली जानवरों की अधिकता से इतने प्रभावित हुए कि शिकार के बजाय, उन्होंने एक वाइल्डलाइफ सैंग्चुरी बनाने का सुझाव दिया।"
इस तरह, शिवालिक में शूटिंग ब्लॉकों में से, एक सैंग्चुरी 1948 में बनाई गई थी और आज इसे राजाजी नेशनल पार्क के रूप में जाना जाता है, जो गंगा नदी को दो भागों में विभाजित करने के साथ, शिवालिक रेंज पर उत्तर-पश्चिम में देहरादून-सहारनपुर रोड से लेकर दक्षिण-पूर्व में रावसन नदी तक फैली है।
1947 के बाद, चैंपियन पूर्वी अफ्रीका के लिए रवाना हो गए, जहां उन्होंने ब्रिटिश चाय बागान मालिक और प्रकृतिवादी एडवर्ड प्रिचर्ड जी को लिखे एक पत्र में कहा, "यहां जानवरों की फोटोग्राफी बहुत आसान है।" उन्होंने भारत के बाघों को याद करते हुए कहा कि उनकी कभी भी आसानी से तस्वीरें नहीं ली जा सकतीं।
वाइल्डलाइफ संरक्षण के प्रति चैंपियन का लगाव कम नहीं हुआ और वह कई तरह की जानकारियां देते रहे। यह देखते हुए कि "प्रकृति को संतुलित बनाए रखने के लिए प्रत्येक प्राणी का अपना स्थान है", वह कहते हैं कि तेंदुआ, जंगली कुत्ते या सियार जैसे शिकार करने वाले जानवर इतने खतरनाक नहीं होते कि उन्हें गोली मार दी जाए। इससे बेहतर है कि उन्हें, उनके माहौल में अकेला छोड़ दिया जाए।
भारत में एक मजबूत वन विभाग की वकालत की
दूसरे जानवरों के बारे में बात करते हुए, अपनी किताब 'द जंगल इन सनलाइट एंड शैडो' में उन्होंने उन जंगलों के बारे में बात की है, जिन्हें उन्होंने भारत में बाघों से परे देखा। जैसे कि स्केली ऐंट इटर, हनी बेजर, स्वैंप डियर, पैंगोलिन आदि। उन्होंने जंगली तेंदुओं, सुस्त भालू, ढोल आदि की रात के समय की कुछ पहली तस्वीरें भी लीं।
1970 में, 76 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया, लेकिन वह अपने पीछे जो विरासत छोड़ गए हैं वह उल्लेखनीय है। अपने समय से आगे के रहे, चैंपियन ने भारत में एक मजबूत वन विभाग की वकालत की। उनका मानना ​​​​था कि बाघ और जंगल में रहने वाले दूसरे जंगली जानवरों की रक्षा करना उनका कर्तव्य और जिम्मेदारी है।
कुछ लोगों का तर्क है कि अप्रैल 1973 में प्रधान मंत्री के तौर पर इंदिरा गांधी ने जिस प्रोजेक्ट टाइगर को लॉन्च किया था, सही मायनों में भारत में चैंपियन के काम की विरासत है। दरअसल, प्रोजेक्ट टाइगर के पहले निदेशक और प्रसिद्ध संरक्षणवादी कैलाश सांखला ने एक बार कहा था कि अगर बाघों को वोट दिया गया होता, तो Tiger Reserve, कॉर्बेट नेशनल पार्क का नाम चैंपियन के नाम पर रखा गया होता।
मूल लेखः रिनचेन नॉर्बू वांगचुक
संपादनः अर्चना दुबे
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