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आज़ाद भारत को पहला ओलंपिक गोल्ड दिलाने वाला गुमनाम नायक

भारतीय हॉकी की बात करें तो ज़हन में सबसे पहले आता है वह सुनहरा दौर जब 1928 से 1960 तक, भारतीय मेंस हॉकी टीम ने ओलंपिक में लगातार छह खिताब जीते और दुनिया भर में देश को गौरवान्वित किया। इतिहास गवाह है कि भारत ने हॉकी को और हॉकी ने भारत को बहुत ही पसंद किया है।

हॉकी के कई ऐसे खिलाड़ी भी हुए जिनकी काबिलियत और कौशल को देखकर आलोचक भी प्रशंसक बन जाते थे और हर कोई उनका दीवाना हो गया था।

भारतीय मेंस हॉकी टीम में ऐसे ही एक खिलाड़ी थे बलबीर सिंह दोसांज, जिन्होंने अपने देश की मिट्टी को खून और पसीना दिया और हॉकी में मिली हर जीत के बराबरी के हिस्सेदार भी रहे। 

लोग उन्हें बलबीर सिंह सीनियर के नाम से जानते हैं। 

गोल्ड की हैट्रिक!!

हॉकी के दिग्गज बलबीर सिंह सीनियर को अब तक का सबसे अच्छा सेंटर-फॉरवर्ड खिलाड़ी माना जाता है। 1948, 1952 और 1956 में भारतीय हॉकी टीम की ओलंपिक गोल्ड की दूसरी हैट्रिक के बाद उनके खेल कौशल ने देश को कई बार खुशियां मनाने का अवसर दिया और आज़ादी के बाद के वर्षों में एक अलग पहचान बनाने में मदद की।

पंजाब में एक स्वतंत्रता सेनानी करम कौर और दलीप सिंह दोसांज के घर जन्मे बलबीर सिंह ने अपने पिता को बहुत कम ही घर पर देखा था। उनके पिता कभी आज़ादी की लड़ाई में शामिल होते तो कभी जेल में दिन गुज़ार रहे होते थे। यह कहना गलत नहीं होगा कि बलबीर सिंह के खून में ही देश की सेवा करना था।

जब बलबीर सिंह बन गए स्टेट टीम का सितारा

हॉकी ने उन्हें कम उम्र से ही मंत्रमुग्ध कर दिया था। वह जब पांच साल के थे, तभी से उन्होंने इस खेल को खेलना शुरू कर दिया था। फिर जब 12 वर्ष की उम्र में उन्होंने 1936 में भारत की हॉकी टीम को तीसरा ओलंपिक स्वर्ण पदक जीतते हुए देखा, तो बलबीर सिंह सीनियर को पता चल चुका था कि उन्हें अपने जीवन में आगे क्या करना है।

उन्होंने एक गोलकीपर के तौर पर अपनी शुरुआत की और फिर बैक फोर में खेलने लगे। लेकिन उन्हें अपने हुनर का सही अंदाज़ा पहली बार तब हुआ, जब एक स्ट्राइकर के तौर पर उन्हें स्थानीय टूर्नामेंट में खेलने का मौका मिला। 

जल्द ही वह पंजाब की स्टेट टीम के लिए खेलने लगे।

पंजाब की टीम नेशनल्स में 14 साल से पदक नहीं जीत सकी थी, लेकिन बलबीर सिंह सीनियर ने उन्हें 1946 और 1947 में लगातार दो राष्ट्रीय खिताब दिलाने में अपना अहम योगदान दिया।

“देश के लिए खेलना सबसे बड़ी खुशी”

1932 में पहली बार उन्हें लंदन ओलंपिक के लिए चुना गया और इसमें बलबीर सिंह ने दो मैच खेलते हुए आठ गोल करके खुद को साबित कर दिया। 

इस अनुभव को उन्होंने बहुत ही खास बताया है। एक इंटरव्यू में बात करते हुए उन्होंने कहा, “जब मैंने वेम्बली में तिरंगा फहराया, तो मैं खुशी से झूम उठा। देश के लिए खेलना, मेरे जीवन की सबसे बड़ी खुशी थी।”

चार साल बाद 1952 के हेलसिंकी खेलों में बलबीर सिंह सीनियर भारतीय दल के फ्लैग-बियरर थे और केडी बाबू को उप-कप्तान के तौर पर चुना गया था।

फ़िनलैंड में विदेशी परिस्थितियों ने उन्हें बहुत आगे नहीं बढ़ने दिया, वह महज़ नौ गोल ही कर सके। फाइनल में बेहतर प्रदर्शन करने से पहले सेमीफाइनल में ग्रेट ब्रिटेन के खिलाफ उन्होंने हैट्रिक लगाई।

बलबीर सिंह सीनियर ने 1952 हेलसिंकी ओलंपिक गेम्स में 9 गोल दागे थे।

उन्होंने नीदरलैंड के खिलाफ पांच गोल किए और यह अभी भी एक ओलंपिक पुरुष हॉकी फाइनल में किसी खिलाड़ी द्वारा किए गए सबसे अधिक गोल के रिकॉर्ड के रूप में दर्ज है।

भारत बनाम पाकिस्तान फ़ाइनल मैच

1956 के ओलंपिक तक बलबीर सिंह सीनियर को भारतीय हॉकी टीम के कप्तान के तौर पर चुन लिया गया। बलबीर सिंह सीनियर का जादुई दाहिने हाथ में फ्रैक्चर हो गया था, जिससे ओलंपिक के फाइनल में उनके शामिल होने पर संशय बन गया।

हालांकि, आखिरी फाइनल का संघर्ष एक और कड़े प्रतिद्वंदी पाकिस्तान के खिलाफ था और इसलिए प्रेरणा से भरपूर कप्तान ने दर्द के साथ ही खेलने का फैसला किया। उन्होंने भारतीय हॉकी टीम को 1-0 से जीत दिलाकर लगातार छठे ओलंपिक स्वर्ण पदक पर जीत सुनिश्चित की।

इसके बाद वह 1957 में भारत के चौथे सबसे बड़े नागरिक सम्मान पद्म श्री से सम्मानित होने वाले पहले खिलाड़ी बने।

बलबीर सिंह पद्म श्री से सम्मानित होने वाले पहले खिलाड़ी बने।

1958 के एशियाई खेलों में रजत जीतने वाली टीम का हिस्सा रहे, इस इवेंट में हॉकी को पहली बार शामिल किया गया था।

विश्व कप में जीत

बलबीर सिंह ने 1960 में संन्यास ले लिया और पंजाब पुलिस के साथ सहायक अधीक्षक के रूप में अपने कर्तव्यों को जारी रखा। इसके साथ ही वह भारतीय हॉकी टीम की चयन समिति का भी हिस्सा रहे।

हॉकी के खेल से उनके प्यार की वजह से वह इससे बहुत लंबे समय तक दूर नहीं रह सके।

बलबीर सिंह सीनियर उस वक़्त भारतीय हॉकी टीम के कोच थे, जब टीम ने 1971 के पहले वर्ल्ड कप में कांस्य पदक जीतने में सफलता हासिल की। इसके बाद 1975 में एकमात्र विश्व कप जीत के लिए वह टीम का सहारा बने। 

अनोखा खेल, अनूठी तकनीक और बेहतरीन फिनिशिंग स्किल के हुनरमंद बलबीर सिंह सीनियर बहुत सरल स्वभाव  के थे। वह अब इस दुनिया में नहीं रहे लेकिन हर भारतीय को उनके करियर और जीवन पर गर्व है।

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