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जानिये किसने बनायी थी ऑल इंडिया रेडियो की ऐतिहासिक धुन, जिससे होती थी आपके सुबह की मीठी शुरुआत!

मारी एक पूरी पीढ़ी के लिए रेडियो और खासकर कि ऑल इंडिया रेडियो से जुड़ी यादें बहुत महत्वपूर्ण हैं। मुझे याद है कि किस तरह हर शाम मेरे दादाजी रेडियो पर समाचार सुना करते थे। मेरी माँ आज भी मुझे अपने बचपन की कहानियाँ सुनाती हैं, जब वो और उनकी बहन रेडियो पर नए गाने सुनने के लिए हर दिन इंतजार किया करती थीं।

इन सभी यादों को एक ही धागे में पिरोती है वह धुन, जो सुबह की पहली किरण के साथ रेडियो पर बजती थी। राग शिवारंजिनी पर आधारित, तम्बूरे के पीछे लयबद्ध वायलिन के स्वर आज भी हमें उस पुराने जमाने में ले जाते हैं– वह जमाना, जब इस धुन को बनाया गया था।

जहाँ देश के करोड़ों लोग इस धुन को पहचानते हैं, तो शायद बहुत ही कम लोग होंगे, जिन्हें ये पता है कि इस धुन को किसी भारतीय ने नहीं, बल्कि एक यहूदी शरणार्थी ने इज़ाद किया था!

Walter Kaufmann (Photo Source)

चेक निवासी, वाल्टर कॉफ़मैन का जन्म 1907 में कार्ल्सबाद में हुआ था, जिसे आज हम कार्लोवी वारी के नाम से जानते हैं। उनके पिता, जूलियस कॉफ़मैन एक यहूदी थे, जबकि उनकी माँ ने यहूदी में धर्म-परिवर्तन किया था। उस समय यहूदियों पर नाज़ियों का राज था और उनसे बचते-बचते ही चेक बॉर्डर पर वाल्टर के पिता की मौत हुई।

साल 1934 में, जब हिटलर ने प्राग पर आक्रमण किया, तब 27 वर्षीय वाल्टर कॉफ़मैन मुंबई आ गए। एक शरणार्थी के रूप में आये वाल्टर कभी भी भारत में बसना नहीं चाहते थे। पर फिर भी, भारत की सपनों की इस नगरी में उन्होंने 14 साल बिताये।

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शुरूआती दिन

हालांकि, भारत आने के बाद उनके शुरूआती दिन आसान नहीं थे। वे एक प्रशिक्षित संगीतकार थे और ऐसे इंसान की तलाश में थे, जो उनकी प्रतिभा को पहचान पाए। पर भारतीय संगीत के साथ उनका शुरूआती अनुभव बहुत अच्छा नहीं था। उन्हें यह अपनी समझ के बाहर लगा।

भारत आने के कुछ महीनो के बाद उन्हें ‘बॉम्बे चैम्बर म्यूजिक सोसाइटी’ के बारे में पता चला, जो हर गुरूवार को विल्लिंगडन जिमखाना में कार्यक्रम पेश करता था। यहाँ रहते हुए उन्होंने अपने परिवार को कई पत्र लिखे थे और उनके पत्राचार से पुष्टि हुई कि वे वार्डन रोड (अब भुलाभाई देसाई रोड) के महालक्ष्मी मंदिर के पास एक दो मंजिला घर, ‘रीवा हाउस’ में रहते थे।

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एक साल की अवधि में ही, इस सोसाइटी ने 130 से भी ज़्यादा कार्यक्रम किये और हर बार इनके दर्शकों की संख्या बढ़ती रही।

द स्क्रॉल के अनुसार, अपने एक पत्र में वाल्टर ने भारतीय संगीत पर अपनी शुरूआती राय के बारे में भी बेहिचक लिखा था। उन्होंने भारत का जो पहला रिकॉर्ड सुना, वो उनके लिए, “पराया और समझ के बाहर था!” पर फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी।

उन्होंने लिखा, “जैसा कि मुझे पता था कि इस संगीत की रचना किसी ने बड़े प्रेम और समझ से की होगी। हम ये कह सकते हैं कि बहुत-से… शायद करोड़ों लोग ऐसे हैं जो इस संगीत को पसंद करते हैं या इससे प्यार करते हैं .. मैंने ये निष्कर्ष निकाला कि गलती शायद मेरी है और इसे समझने का सही तरीका होगा, उस जगह की यात्रा करना, जहाँ इसका जन्म हुआ।”

ऑल इंडिया रेडियो (AIR) के साथ वाल्टर का कार्यकाल

साल 1936 से 1946 तक, वाल्टर ने आकाशवाणी में संगीतकार के तौर में काम किया, और तभी भारत के नामी ऑर्केस्ट्रा के संचालक, महली मेहता के साथ मिलकर, उन्होंने यह प्रसिद्ध धुन तैयार की। मेहता ने इस धुन के लिए वायलिन भी बजाया है।

फोटो साभार

ये बहुत दिलचस्प बात है कि जिस एक धुन को सुनते हुए पूरी एक भारतीय पीढ़ी आगे बढ़ी है, उसे एक यूरोपियन ने बनाया। और ये प्रमाण है इस बात का, कि संगीत सरहद का मोहताज नहीं है और सही मायने में यह एक वैश्विक भाषा है।

हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में इनका योगदान

वाल्टर, उस समय मुंबई आये, जब यहाँ मूक फ़िल्मों का ज़माना चल रहा था। पश्चिमी संगीत पर उनकी पकड़ के चलते उन्हें हिंदी इंडस्ट्री में काम मिला। मोहन भवनानी (एक दोस्त, जिनसे इनकी मुलाकात बर्लिन में हुई थी) की कई फ़िल्मों में उन्होंने पार्श्व संगीत दिया।

आइंस्टीन की सिफारिश

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अल्बर्ट आइंस्टीन ने 23 जनवरी 1938 को लिखे अपने एक पत्र में वाल्टर के लिए सिफारिश की थी। जर्मन भाषा में लिखे गये इस पत्र में, उन्होंने लिखा, “प्राग से ताल्लुक रखने वाले और वर्तमान में, बॉम्बे (भारत) में बसे, श्री वाल्टर कॉफ़मैन को मैं एक आविष्कारक और प्रतिभाशाली संगीतकार के रूप में वर्षों से जानता हूँ। उन्होंने पहले भी कई रचनाएँ की हैं, पूर्वी संगीत पर उनका प्राधिकार है, और उन्हें एक शिक्षक के रूप में भी व्यापक अनुभव है। अपनी युवा ऊर्जा और सुगम स्वभाव के कारण, वे स्कूलों या विश्वविद्यालयों में गायकों और आर्केस्ट्रा के निदेशक के पद के लिए उपयुक्त रूप से अनुकूल होंगे।”

भारत के बाद

साल 1946 में, वाल्टर ने भारत छोड़ दिया और एक साल के लिए इंग्लैंड चले गए, यहाँ वे बीबीसी में अतिथि सुचालक थे। 1948 से 1957 तक, वह विनिपेग सिम्फनी ऑर्केस्ट्रा, विनिपेग, मैनिटोबा, कनाडा के संगीत निर्देशक और सुचालक थे।
1957 में, वाल्टर हमेशा के लिए अपनी दूसरी पत्नी फ़्रेड के साथ संयुक्त राज्य अमेरिका चले गए।

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उन्होंने ब्लूमिन्ग्टन में इंडिआना यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ़ म्युज़िक में साल 1977 तक संगीत के प्रोफेसर के रूप में संगीत का प्रशिक्षण दिया। यहीं पर साल 1984 में उनकी मृत्यु हो गयी।

वाल्टर कॉफ़मैन को दुनिया से गये तीन दशक से भी ज्यादा वक़्त बीत गया, लेकिन अपनी इस अमर धुन के ज़रिये, आज भी वो हमारे दिलों में जिंदा हैं!

मूल लेख: विद्या राजा
संपादन: निशा डागर


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