सूबेदार जोगिंदर सिंह: भारत-चीन युद्ध का वह सैनिक, जिनके सम्मान में चीनी सेना ने लौटायी थी उनकी अस्थियां!

साल 1962 में महीनों तक चलने वाले भारत-चीन के युद्ध को अक्सर भारत की हार के रूप में याद किया जाता है, लेकिन इस युद्ध में ऐसे बहुत से वीर

साल 1962 में महीनों तक चलने वाले भारत-चीन के युद्ध को अक्सर भारत की हार के रूप में याद किया जाता है, लेकिन इस युद्ध में ऐसे बहुत से वीर सैनिक थे जिन्हें उनके द्वारा किये गए अविश्वसनीय कामों के लिए हमेशा याद किया जायेगा। और बहादुरी का ऐसा ही एक उदाहरण है सूबेदार जोगिंदर सिंह!

साल 1962 में अपनी मातृभूमि के लिए चीन के खिलाफ लड़ते हुए उन्होंने टोंगपेन ला (अरुणाचल प्रदेश में तवांग के पास) का बचाव करते हुए अपना बलिदान दे दिया। उनके इसी निःस्वार्थ बलिदान और दृढ़ हौंसलों के लिए उन्हें मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च सैन्य पुरस्कार (परम वीर चक्र) से सम्मानित किया गया।

ये कहानी है भारत माँ के उस सपूत की, जिसका सम्मान न केवल भारत ने बल्कि चीनी सेना ने भी किया!

सूबेदार जोगिंदर सिंह

सुबेदार जोगिंदर सिंह का जन्म पंजाब के महला कलान गांव (मोगा के पास) में 26 सितंबर, 1921 को हुआ था। उनके माता-पिता, शेर सिंह और कृष्ण कौर थे। किसान परिवार से ताल्लुक रखने वाले जोगिंदर अपनी 10वीं कक्षा की परीक्षा पास करने बाद 28 सितंबर, 1936 को ब्रिटिश भारतीय सेना के प्रथम सिख रेजिमेंट में शामिल हो गए।

प्रशिक्षण पूरा होने के तुरंत बाद, जोगिंदर को बर्मा भेजा गया जहां उन्होंने पूरी निष्ठा से अपनी ड्यूटी की। भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद उनके रेजिमेंट को श्रीनगर पोस्ट कर दिया गया। यहां उन्होंने पाकिस्तानी आदिवासी लश्कर (मिलिशिया) से जंग लड़ी जिन्होंने 1947-48 में कश्मीर पर हमला किया था।

लेकिन जिस युद्ध ने उन्हें इतिहास में अमर कर दिया वह था साल 1962 को भारत- चीन युद्ध!

20 अक्टूबर, 1962 को चीनी सेना के तीन रेजिमेंट ने मैकमोहन लाइन (भारत और तिब्बत के बीच अंतरराष्ट्रीय सीमा) पर स्थित नमका चु भारतीय पोस्ट पर हमला बोल दिया। भारतीय सेना इस हमले के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं थी। अपनी खराब स्थिति होने के बावजूद भारतीय सेना ने चीनी सेना को कड़ी टककर दी। लेकिन हथियारों और गोला-बारूद की कमी के साथ-साथ आपसी सम्पर्क के साधन न होने के कारण जल्द ही चीनी सेना ने भारतीय सैनिकों को परास्त कर इस पोस्ट पर अपनी पकड़ बना ली।

फोटो स्त्रोत

चीनी सेना ने उत्तर पूर्व फ्रंटियर एजेंसी (अब अरुणाचल प्रदेश) में रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण शहर तवांग पर अपना ध्यान केंद्रित किया। नमका चु से तवांग के लिए सबसे छोटा रास्ता बम-ला एक्सिस से हो कर जाता है।

इस जगह की सुरक्षा को मजबूत करने के लिए 1 सिख रेजिमेंट (जोगिंदर के नेतृत्व में) की एक पलटन टोंगपेन ला क्षेत्र में आईबी रिज पर रक्षात्मक स्थिति में तैनात की गयी।

23 अक्टूबर, 1962 को देर रात तवांग को जीतने के इरादे से चीनी सेना ने बम ला पर भारी हमला किया। भारी तोप और गोला-बारूद से लैस चीनी सेना ने तीन बार में हमला किया, हर एक बार 200 सैनिकों की मजबूत स्थिति के साथ और इसके साथ उन्हें उम्मीद थी कि वे भारतीय सेना की छोटी सी टुकड़ी को काबू में कर लेंगें जो कि बम ला की रक्षा कर रही थी।

लेकिन चीनी सेना ने इस 23 सैनिकों की छोटी सी पलटन का नेतृत्व करने वाले सैनिक के रणकौशल और साहस को बहुत कम आँका।

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इस इलाके के बारे में सभी जरूरी जानकरी इकट्ठी करने और जानने के बाद जोगिंदर और उनके सिपाहियों ने ठण्ड में दिन रात काम करके रणनीतिक रूप से सभी बंकरो को लगाया ताकि वे चीनी सेना को मुंहतोड़ जबाब दे सकें। उस समय सेना के पास ठंड से बचने के लिए ज्यादा उपकरण व सुविधाएं भी नहीं हुआ करती थीं।

आगे हुई लड़ाई में इस रणनीति ने भारतीय सेना को काफी फायदा पहुँचाया। इस रणनीति के सहारे जोगिंदर और उनके साथी चीनी सेना के पहले हमले को झेलने में कामयाब रहे और उन्होंने चीनी सेना को बता दिया कि वे भले ही उनकी संख्या कम हो लेकिन उनमें साहस और कौशल की कमी नहीं है।

जोगिंदर ने अपने साथियों को निर्देश दिया कि वे बारूद का इस्तेमाल तभी करें जब दुश्मन उनकी दृष्टि में आना शुरू हो जाये क्योंकि उन्हें पता था की उनके पास गोला-बारूद सीमित है और उन्हें बहुत सोच-समझ कर इसका इस्तेमाल करना है।

अपने पहले हमले को विफल होता देख, चीनी सेना भी सकते में आ गयी थी। क्योंकि उन्होंने भारतीय सेना से इस तरह के जबाब की अपेक्षा नहीं की थी। इसलिए उन्होंने कर भी हथियारों के साथ अपना दूसरा हमला किया, लेकिन फिर उन्हें इसी तरह से विफलता का सामना करना पड़ा। पर इस समय तक भारतीय सेना भी अपने लगभग आधे सैनिक खो चुकी थी।

जोगिंदर बुरी तरह से घायल हो गए थे, लेकिन उन्होंने हार मानने और पीछे हटने से साफ़ इंकार कर दिया। बिना किसी हथियार और गोला-बारूद के भी जोगिंदर अपनी स्थिति से एक इंच भी नहीं हिले और जो कुछ भी वे दुश्मनों को रोकने के लिए कर सकते थे उन्होंने किया।

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अपने सूबेदार की दृढ़ता और बहादुरी से प्रेरित होकर उनकी पलटन भी ज़िद्दी रूप से मैदान में डटी रही। उधर चीनी सेना ने अपना तीसरा हमला शुरू कर दिया था। ऐसे में जोगिंदर ने एक हल्की मशीन गन हाथ में लेकर गोलियां बरसाते हुए और पुरे मैदान में चिल्लाते हुए अपने साथियों को दिशा-निर्देश देना शुरू किया। हालांकि, दुश्मन की स्थिति मजबूत थी, लेकिन इस लड़ाई में चीनी सेना ने अपने बहुत से सैनिकों को खो दिया।

जब भारतीय सेना के पास गोला-बारूद बिल्कुल खत्म हो गया तो बाकी बचे हुए सैनिकों ने अपने बैयोनेट्स (कृपाण) को अपनी राइफल में फिक्स करके, अपनी मौत की परवाह किये बिना, एक आखिरी बार चीनी सेना पर हमला बोल दिया। जैसे ही यह हमला शुरू हुआ तो पुरे मैदान में ‘जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल’ के बोल गूंजने लगे। जोगिंदर के इस हमले ने चीनी सेना को चौंका दिया था, लेकिन जल्द ही चीनी सेना ने उन्हें घेर लिया।

चार घंटों की भयंकर लड़ाई के बाद, बुरी तरह से घायल जोगिंदर को पकड़कर युद्ध का कैदी बना लिया गया। जोगिंदर की मौत चीनी कैद में ही हो गयी थी। जोगिंदर की इस 23 सैनिकों की पलटन में से केवल तीन सैनिक जीवित बचे, वह भी इसलिए क्योंकि जोगिंदर ने उन्हें मुख्य सेना शिविर से और गोला-बारूद लाने के लिए आदेश दिया था।

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दुश्मन के खिलाफ अपने देश के लिए निःस्वार्थ बलिदान, अविश्वसनीय साहस और बहादुरी के लिए सुबेदार जोगिंदर सिंह को मरणोपरांत स्वतंत्र भारत के सर्वोच्च युद्धकाल बहादुर पुरस्कार, परम वीर चक्र से सम्मानित किया गया था। जिस पर लिखे सन्देश की आखिरी पंक्ति में लिखा गया,

“इस पूरे कार्यकाल में, सुबेदार जोगिंदर सिंह ने कर्तव्य, प्रेरणादायक नेतृत्व और अविश्वसनीय बहादुरी का प्रदर्शन किया है।”

यह जानने पर कि जोगिंदर को परम वीर चक्र से सम्मानित किया गया है, चीनी सेना ने भी उनके लिए अकाल्पनिक सम्मान दर्शाते हुए 17 मई, 1963 को रेजिमेंट को पूर्ण सैन्य सम्मान के साथ उनकी अस्थियां लौटायीं। बाद में, मेरठ में सिख रेजिमेंटल सेंटर में समारोह, उनकी अस्थियां उनकी पत्नी गुरदील कौर और उनके बच्चों को सौंप दी गयीं।

मोगा में जिला कलेक्टर के कार्यालय के पास एक स्मारक मूर्ति के अलावा, भारतीय सेना ने आईबी रिज में जोगिंदर सिंह के सम्मान में एक स्मारक बनाया है। इसके अलावा भारत के शिपिंग निगम ने उनके सम्मान में अपने जहाजों में से एक को उनका नाम दिया है। और इसलिए आज भी जोगिंदर- युद्ध के स्मारकों में, उन बर्फीली चोटियों में, जहां उन्होंने अपनी मातृभूमि की निस्वार्थ रक्षा की और अपने प्यारे बच्चों की याद में जीवित हैं।

एक और दिलचस्प बात यह है की पंजाबी फिल्म इंडस्ट्री में उनके जीवन पर आधारित एक फिल्म भी बनाई गयी है। इस फिल्म में गायक-अभिनेता गिप्पी गरेवाल ने सूबेदार जोगिंदर सिंह के किरदार को निभाया है।

मूल लेख: संचारी पाल


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