उत्तर प्रदेश के गाज़ियाबाद में एक कंप्यूटर कैफे चलाने वाले श्रीराम ओझा भले ही दिव्यांग हैं, चल नहीं पाते, उनके हाथों और पैरों में दिक्कत है, लेकिन इन परेशानियों को उन्होंने कभी अपने रास्ते में नहीं आने दिया। श्रीराम स्पेशली एबल्ड हैं और कंप्यूटर कैफे चलाने के साथ-साथ, बच्चों को ट्यूशन भी देते हैं और अब तो उन्होंने प्रॉपर्टी के काम में भी हाथ आजमाया है।
श्रीराम एक मिडिल क्लास फैमिली से आते हैं। उनके घर में कोई खास सुख-सुविधा तो थी नहीं, लेकिन उन्होंने अपनी ज़िंदगी में हमेशा खुश रहना सीखा। अपने आप को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने सबसे पहला काम यह किया कि खुद को दिव्यांग समझना छोड़ दिया, ताकि लोग उन्हें बेबसी से ना देखें।
द बेटर इंडिया से बात करते हुए उन्होंने कहा, ”मैं मांगने वालों में से नहीं हूं, मेहनत करके कमाने वालों में से हूं। हर इंसान को संघर्ष करके कमाने में जितना अच्छा लगता है, उतना भीख मांगने में नहीं लगता। मुझे या मेरे जैसे किसी भी दिव्यांगजन को दयाभाव से बिल्कुल भी मत देखिए। आप में और मुझमें कोई खास अंतर नहीं है। बस जो काम आप दो मिनट जल्दी कर सकते हैं, वह काम हम दो मिनट लेट करते हैं। लेकिन हां, काम ज़रूर कर सकते हैं।”
बड़ी मुश्किल से मिला स्कूल में एडमिशन
श्रीराम बचपन से ही बाकी बच्चों के साथ स्कूल में पढ़ना चाहते थे। लेकिन कोई स्कूल उन्हें स्पेशली एबल्ड होने के कारण एडमिशन नहीं दे रहा था। माता-पिता ने अपने बेटे को नॉर्मल स्कूल में एडमिशन दिलाने के लिए काफी जतन किए और आखिरकार, जब उन्हें स्कूल में एडमिशन मिला, तो बाकी बच्चों के साथ ताल-मेल बैठाना उनके लिए बहुत मुश्किल हो रहा था।
सुबह की प्रार्थना के बाद बच्चे भागते हुए अपनी अपनी क्लास में जाते थे और क्लास थी भी चौथे फ्लोर पर। वहीं, श्रीराम सीढ़ियों पर धीरे-धीरे अपनी क्लास की ओर जाते थे। इस भागमभागी में कई बार उनके हाथ भी दब जाते थे। हालांकि, अपनी परेशानियों को श्रीराम ने अपने तक ही रखा, क्योंकि अगर घर वालों को बेटे का दर्द पता चल जाता, तो वे तुरंत अपने बेटे को घर पर बैठा लेते।
हर दर्द, हर परेशानी को खुद तक रखकर पढ़ाई पूरी करने के बाद, श्रीराम ने अपना कैफे शुरू करने के बारे में सोचा। लेकिन अच्छे लोगों के साथ भी बुरा होता है। श्रीराम कहते हैं, ”मैंने पार्टनरशिप में दो बार कैफे खोला। इनवेस्टमेंट उनकी थी, काम पूरा मेरा था। लेकिन आगे हेल्प के नाम पर दोनों ने हाथ खड़े कर दिए।”
इसके बाद भी श्रीराम का जज़्बा नहीं टूटा। उन्होंने किसी एनजीओ की मदद लेने के बारे में सोचा।
…जब ट्रैफिक पुलिस वाले ने स्पेशली एबल्ड होने के कारण सड़क पर दिए 100 रुपए
श्रीराम ने बताया, ”मुझे एनजीओ से फंडिंग नहीं चाहिए थी। मुझे ऐसा बंदा चाहिए था, जो मुझे यह महसूस न कराए कि वह मुझ पर एहसान कर रहे हैं, दोस्त जैसा कोई चाहिए था। फिर मुझे काफी ढूंढने के बाद, केयरनीडी फाउंडेशन के संस्थापक अंकित मिले। उन्होंने मुझसे पूछा कि मुझे किस किस चीज़ की जरूरत है। मैंने सबसे पहले बताया कि मुझे कंप्यूटर और प्रिंटर की ज़रूरत है और धीरे-धीरे मेरा कैफे चालू हो गया।”
श्रीराम को खुद कमाकर खाने और जीवन जीने में मज़ा आ रहा है। उन्हें अपनी एक इलेक्ट्रिक व्हील चेयर मिल गई है। वह कहते हैं कि जब वह इस पर चलते हैं, तो उन्हें लगता है कि वह बाइक चला रहे हैं। लेकिन सड़कों पर आते-जाते, कोई न कोई उन्हें दयाभाव की नज़र से देखने लगता है, तब उन्हें काफी बुरा लगता है।
उन्होंने बताया, ”एक बार जब मैं ट्रैफिक सिग्नल पर था, तो वहां मेरे पास एक ट्रैफिक पुलिस वाला आया और उसने मुझे 100 रुपये दिए। मैंने पूछा कि आप ये क्यों दे रहे हो, तो उन्होंने कहा ऐसे ही रख लो। तब मैंने उन्हें कहा कि मैं भिखारी नहीं हूं और आप मुझे ऐसी नज़रों से मत देखिए।”
इसके बाद, श्रीराम सीधे अपने कैफे पर चले आए, जहां बच्चे उनका इंतज़ार कर रहे थे। जी हां, श्रीराम स्कूली बच्चों को ट्यूशन भी देते हैं। चूंकि उनके अंदर यह टैलेंट है कि वह बच्चों को शिक्षा देकर अपनी कमाई कर सकते हैं, तो उन्होंने यह काम भी किया। लेकिन जब कोविड आया, तो उनका यह काम भी बंद हो गया था। उस समय बमुश्किल उन्होंने वक्त काटा था, लेकिन अब धीरे-धीरे उन्होंने दोबारा से बच्चों को ट्यूशन देना शुरू कर दिया है।
“दुनिया में कैसे आए यह आपके हाथ में नहीं, लेकिन कैसे जाएंगे, यह आपके हाथ में है”
गली के आसपास के लोग भी श्रीराम के पास अपने बच्चे भेजने में बिल्कुल नहीं हिचकिचाते और न ही वे दिव्यांग होने के नाते श्रीराम को संदेह भरी नज़रों से देखते हैं कि वह पढ़ा भी पाएंगे या नहीं। स्पेशली एबल्ड श्रीराम को पढ़ाना अच्छा लगता है। वह न सिर्फ इन बच्चों को पढ़ाते हैं, बल्कि केयरनीडी एनजीओ की मदद से इन बच्चों को एजुकेशन टूर भी कराते हैं।
श्रीराम को अपनी ज़िदगी में कुछ-कुछ चीज़ें भले ही आज अधूरी लगती हैं। जैसे बपचन में जब बच्चे खेलते थे, तो वह बैठकर देखते थे। वह खेल नहीं पाते थे। यह मलाल आज तक उनके अंदर है। आज वह बाकी लोगों की तरह चल नहीं सकते, दौड़ नहीं सकते, लेकिन वह ज़िंदगी जीने की रेस में किसी से कम या पीछे नहीं हैं।
वह, उन लोगों के लिए प्रेरणा का बड़ा स्त्रोत हैं, जो तमाम संसाधनों के होते हुए भी हार मान लेते हैं। श्रीराम कहते हैं, ”आप दुनिया में कैसे आए हैं, यह आपके हाथ में नहीं, लेकिन कैसे जाएंगे, यह आपके हाथ में है। इसलिए मेहनत कीजिए और अपना नाम बनाइए।”
श्रीराम अभी भी रुके नहीं हैं। वह आगे भी अपना काम बदस्तूर जारी रखना चाहते हैं। अभी उन्होंने प्रॉपर्टी डीलिंग बिज़नेस में हाथ आजमाया है और वह अब आगे बढ़ने से किसी भी कीमत पर नहीं रुकना चाहते। इसलिए आज वह दूसरे दिव्यागजनों और मानव जाति को प्रेरित करते हुए अपना काम कर रहे हैं और अपनी आजीविका कमा रहे हैं।
संपादनः अर्चना दुबे
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