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बाल की खाल के कबाब!

बाल की खाल के जूते
बाल की खाल के बैग
बाल की खाल के लोटे
(और आजकल) बाल की खाल का स्वैग

शर्मा जी आहत हैं – कि इस लेख का आरम्भ ब्राह्मण से ही क्यों किया.
वर्मा जी आहत हैं कि उनका ज़िक्र क्यों नहीं किया.
श्रीमान फ़ेसबुक सिंह कहते हैं कि मुस्लिमों को तो नहीं कहते.
इंटरनेट कुमारी चीखतीं हैं कि इस देश में औरतों को सिर्फ़ नज़रअंदाज़ किया जाता है. जेएनयू में गरमागरम विमर्श चलता है कि इससे किस तरह समाज का नुकसान हुआ है और अब क्या करना है. भक्त ये लेख पढ़ते ही नहीं वो $टीवी देखने में और व्हाट्सऐप से दुनिया सुधारने में व्यस्त हैं. करणी सेना.. वो कहाँ है आजकल दिख नहीं रही. कहीं पद्मावत के लिए मचाये बवाल पर शर्मिंदा तो नहीं है. शर्मिंदा तो भंसाली को होना चाहिए इतिहास का एक बार फिर मज़ाक बनाने के लिए. लेकिन छोड़ो और तुम लेख लिखते हुए कहाँ भटक गए कुछ मुसलामानों के बारे में डालो यार तभी लेख ‘बैलेंस्ड’ दिखेगा.. सोचो सोचो.. सोचो..

बाल की खाल आजकल का सबसे बड़ा धंधा है
और मियाँ, फँस गए तो सबसे ज़हरीला फंदा है

अच्छा बताता हूँ कि ये विषय क्यों चुना इस बार. हाल ही में हिन्दी कविता (यूट्यूब चैनल) पर एक बघेली लोकगीत पर एक वीडियो डाला था ‘बालम सउतनिया काहे लाए’. आप सबसे पहले तो यह वीडियो देखिए फिर आगे की बात करते हैं. शोख़ शुभांगी के इश्क़ में गिरफ़्तार हो सकते हैं, इस चेतावनी के साथ देखें 🙂

अगर इस वीडियो को देख कर कोई आहत हुआ हैं तो ईश्वर से प्रार्थना है कि उनके हाथ पर गरम चाय गिर जाय और संस्कृति के सौंधेपन की ओर ध्यान न दे सकने की सज़ा मिल जाए. साहब लोग, आग्रह है कि संस्कृति बचाने के नारे लगाने की बजाय उसका आनंद लें. हमारी लोक-संस्कृति की इतनी मीठी, मसालेदार बानगी – हमारा सदियों पुराना गीत. लाखों लोग अभिभूत हुए, उन्हें अपनी अपनी आँचलिक भाषाओं पर प्यार आया, उनका प्रयोग करने की झिझक टूटी (हम आंचलिकता को बचाने के चक्कर में नहीं हैं उन्हें फ़ैशनेबल बनाना चाहते हैं) लेकिन चंद लोग जो आजकल के ‘बाल के खाल के स्वैग’ के मारे हैं उन्हें इस लोकगीत की भाषा नागवार गुज़री.. वे मानेंगे नहीं लेकिन यह संस्कृति भी अमेरिका से आयातित है जिसका प्रयोग बेतरतीबी से कभी हीरो दिखने के लिए कभी सियासत चलाने के लिए और कभी फ़िल्में बेचने के लिए किया जा रहा है. हम सबको जागरूक होना पड़ेगा.. माहौल बिगड़ता जा रहा है.. जब भी आप ‘आहत’ होते हैं तो सोचें कि कौन अपना उल्लू सीधा कर रहा है और आपका उपयोग अपने फ़ायदे के लिए कर रहा है.

और इसका मतलब यह नहीं है हम बेशर्मी से पुरानी रूढ़ियों को ढोते ही रहें. जागरूक न हों.. जातीय, धार्मिक, सामाजिक बन्धनों और प्रचलनों पर सवाल न उठायें बस इतनी गुज़ारिश है कि आँख बंद करके आसानी से काला या सफ़ेद न देखें.. अपने विवेक का इस्तेमाल करें. विवेक. विवेक ज़रूरी है. अब जैसे हमारे यहाँ जो गोरा बेहतर-काला बुरा सोचने की जाहिल मानसिकता है, उसका विरोध ज़रूरी है. लेकिन यह भी हो सकता है कि ‘राधा क्यों गोरी, मैं क्यों काला?’ में बाल-कृष्ण को यह समझाया जा रहा हो कि बच्चे, काले में कोई बुराई नहीं है. हो सकता है मनोवैज्ञानिक स्तर पर सबको यह बताया जा रहा हो कि भगवान भी काले हैं. अब वो काले हो सकते हैं तो..

अरे, अपने विवेक का इस्तेमाल करो सुनीता अपने विवेक का!


लेखक –  मनीष गुप्ता

फिल्म निर्माता निर्देशक मनीष गुप्ता कई साल विदेश में रहने के बाद भारत केवल हिंदी साहित्य का प्रचार प्रसार करने हेतु लौट आये! आप ने अपने यूट्यूब चैनल ‘हिंदी कविता’ के ज़रिये हिंदी साहित्य को एक नयी पहचान प्रदान की हैं!


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