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बाल विवाह, कानूनी लड़ाई और कुरीतियों से लड़ते हुए कैसे बनी देश की पहली प्रैक्टिसिंग महिला डॉक्टर!

first lady doctor, Rukhmabai Raut

डॉ. रुक्माबाई राउत का जन्म ब्रिटिश भारत में महाराष्ट्र के बॉम्बे में हुआ था। उनका बाल-विवाह दादाजी भिकाजी के साथ हुआ। लेकिन उन्होंने अपनी शादी को मैंने से इंकार कर दिया और अपने पति के खिलाफ एक ऐतिहासिक कोर्ट केस लड़ा। वे भारत की पहली अभ्यासरत महिला डॉक्टर भी थीं।

ह 1880 का दशक था, जब औरतों को बोलने तक का अधिकार नहीं मिलता था! पर ऐसे समय में भी एक बेबाक और दृढ संकल्पी महिला ने वह कर दिखाया, जो कोई सोच भी नहीं सकता था। मात्र 11 वर्ष की उम्र में शादी के बंधन में बांध जाने वाली रुक्माबाई राउत (Rukhmabai Raut) ने अपने पति भिकाजी के ‘वैवाहिक अधिकार’ के दावे के खिलाफ एक प्रतिष्ठित कोर्ट में  केस लड़ा।  यही केस आगे चलकर, साल 1891 में ‘सहमति की आयु अधिनियम’ का आधार बना।

इसके बाद वे मेडिसिन की पढ़ाई करने के लिए लंदन चली गयी और फिर भारत वापिस आकर अपनी प्रैक्टिस शुरू की। साल 1894 में वे भारत की पहली प्रैक्टिसिंग महिला डॉक्टर बन गयी।

रुक्माबाई का जन्म साल 22 नवम्बर,1864 को बम्बई (अब मुंबई) में हुआ था। उनकी माँ का नाम जयंतीबाई था। उनकी माँ की शादी भी 14 वर्ष की उम्र में हो गयी थी – 15 वर्ष की उम्र में उन्होंने रुक्माबाई को जन्म दिया और 17 वर्ष की उम्र में विधवा हो गयीं। इसके सात साल बाद जयंतीबाई ने डॉ. सखाराम अर्जुन से दूसरी शादी की। सखाराम मुंबई के ग्रांट मेडिकल कॉलेज में बॉटनी के प्रोफेसर भी थे और साथ ही एक समाज सुधारक व शिक्षा के समर्थक थे।

Rukhmabai
डॉ रुक्माबाई राउत

समाज के दबाब के चलते जयंतीबाई ने अपनी बेटी रुक्माबाई की शादी मात्र 11 साल की उम्र में दादाजी भिकाजी से कर दी, जो उस समय 19 वर्ष के थे। उस समय के प्रचलित रिवाज के अनुसार, रुक्माबाई शादी के बाद अपने पति के साथ न रहकर अपनी माँ के साथ ही रहीं। इस दौरान उन्होंने अपने सौतेले पिता के कहने पर अपनी पढ़ाई जारी रखी, जो कि उस समय समाज के नियम-कानूनों के खिलाफ था।

जल्द ही, रुक्माबाई को पता चला कि उनके पति का चरित्र संदेहपूर्ण है और उसे शिक्षा की भी कोई कदर नहीं है। और भिकाजी के बिल्कुल विपरीत, इतने वर्षों में रुक्माबाई एक बुद्धिमान और सभ्य महिला के रूप में उभरी थीं। एक घुटन भरे रिश्ते में रहने के डर से रुक्माबाई ने फैसला किया कि वे ऐसे व्यक्ति के साथ विवाह के बंधन में नहीं रहना चाहती।

मार्च, 1884 में रुक्माबाई स्कूल में ही पढ़ रहीं थीं, जब भिकाजी ने उन्हें अपने साथ आकर रहने के लिए कहा। पर उन्होंने मना कर दिया! तब भिकाजी ने बॉम्बे हाई कोर्ट में ‘एक पति का अपनी पत्नी के ऊपर वैवाहिक अधिकार’ का हवाला देते हुए पेटिशन फाइल कर दी। सीधे शब्दों में, वे चाहते थे कि कोर्ट रुक्माबाई को आदेश दे कि वह उनके साथ आकर रहे।

लेकिन युवा रुक्माबाई ने बहुत दृढ़ता से ऐसा करने से मना कर दिया। ऐसे में कोर्ट ने उन्हें केवल दो विकल्प दिए-

एक- या तो वे अपने पति के घर जाकर उसके साथ रहें या फिर जेल जाकर सजा भुगतें। पर रुक्माबाई अपने फैसले पर अडिग रहीं। उन्होंने कहा कि वे जेल जाने के लिए तैयार हैं, लेकिन ऐसी शादी में नहीं रहेंगी, जिसमें उनकी सहमती ही नहीं ली गयी है। उनका तर्क था कि उन्हें उस शादी में रहने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता, जो तब हुई थी जब वे इसके लिए सहमति देने में असमर्थ थीं। उनका यह तर्क उस जमाने में अनसुना और अकल्पनीय था।

इस तर्क ने, 19वीं सदी में न केवल बॉम्बे बल्कि भारत के सबसे प्रसिद्द अदालती मामलों में से एक मामले को शुरू किया। 1880 के दशक में इस एक केस ने ब्रिटिश प्रेस का ध्यान भी आकर्षित किया और फिर बाल-विवाह और स्त्रियों के अधिकार जैसे मुद्दे भी सामने आये। बेहरामजी मलाबरी और रामाबाई रानडे समेत भारतीय समाज-सुधारकों के एक समूह ने इस मामले को सबके सामने लाने के लिए ‘रुक्माबाई रक्षा समिति’ का गठन किया।

सामाज-सुधारक, शिक्षा अग्रणी और महिलाओं के मुक्ति के लिए लड़ने वाली, पंडिता रमाबाई ने क्रोध में लिखा,

“यह सरकार महिलाओं की शिक्षा और आज़ादी की वकालत तो करती है! पर जब एक महिला किसीकी ‘दासी होने’ से इंकार करती है, तो वही सरकार अपने क़ानून का हवाला देकर, उसे एक बार फिर बेड़ियाँ पहनने पर मजबूर कर देती है।”

रुक्माबाई ने भी ‘द हिन्दू लेडी’ के उपनाम से ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ के लिए दो सामयिक लेख लिखे। नारीवादी दृष्टिकोण के साथ ये दोनों लेख बाल-विवाह, विधवा जीवन और समाज में महिलाओं की स्थिति के विषय पर थे। 26 जून, 1885 को रुक्माबाई द्वारा टाइम्स ऑफ़ इंडिया को लिखे गए एक लेख का अंश यहाँ है, जिसे बाद में जया सागड़े द्वारा ‘भारत में बाल विवाह’ किताब में पुन: प्रस्तुत किया गया,

“बाल विवाह की इस कुरीति ने मेरे जीवन की खुशियों को बर्बाद कर दिया। यह प्रथा हमेशा मेरे और उन सभी चीज़ों के बीच आयी, जिन्हें मैंने सबसे ऊपर रखा- शिक्षा और मानसिक चिंतन। मेरी कोई गलती न होने के बावजूद मुझे समाज से बहिष्कार का सामना करना पड़ा। मेरी अपनी अज्ञानी बहनों से ऊपर उठने की मेरी भावना पर संदेह कर मुझ पर गलत आरोप लगाये गए।”

साल 1888 में भिकाजी रुक्माबाई के साथ अपनी शादी को खत्म करने के बदले में मुआवजे के लिए मान गए। नतीजतन दोनों पार्टियां एक समझौता करने के लिए मान गयी और रुक्माबाई कारावास से बच गयीं। उन्होंने सभी जगह से मिलने वाले वित्तीय सहायता के प्रस्तावों को मना कर दिया और स्वयं क़ानूनी लागतों का भुगतान किया। हालांकि, यह मामला कोर्ट के बाहर सुलझ गया, लेकिन फिर भी यह केस ब्रिटिश भारत में विवाह के लिए महिलाओं की उम्र, सहमति और उनकी पसंद जैसे मुद्दों को उठाने वाले प्रामाणिक केस के तौर पर उभर कर आया!

आखिरकार, रुक्माबाई अपनी आगे की पढ़ाई करने के लिए आज़ाद हो गयी और उन्होंने डॉक्टर बनने का फैसला किया।बॉम्बे के कामा अस्पताल के ब्रिटिश डायरेक्टर ईडिथ पेचेई फिपसन ने उनका समर्थन किया और उनके सुझाव पर रुक्माबाई ने इंग्लिश भाषा का कोर्स किया और और लंदन स्कूल ऑफ मेडिसिन फॉर विमेन से अध्ययन करने के लिए 1889 में इंग्लैंड चली गयीं। उन्होंने 1894 में स्नातक की डिग्री हासिल करने से पहले एडिनबर्ग, ग्लास्गो और ब्रसेल्स में भी पढ़ाई की।

अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद रुक्माबाई अपने देश लौट आयीं और उन्होंने सूरत में चीफ मेडिकल ऑफिसर का पदभार संभाला। इसी के साथ एक डॉक्टर के रूप में शुरू हुआ उनके 35 साल के करियर का सफर। इसके दौरान भी वे बाल-विवाह और पर्दा-प्रथा के खिलाफ लिखती रहीं। उन्होंने कभी भी शादी नहीं की और साल 1955 में 91 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हो गयी। अपनी मृत्यु तक वे समाज सुधार के कार्य में सक्रिय रहीं।

डॉ. रुक्माबाई को भारत की पहली अभ्यास करने वाली महिला डॉक्टर होने का ख़िताब प्राप्त है। हालांकि आनंदी गोपाल जोशी डॉक्टर के रूप में शिक्षा प्राप्त करने वाली पहली भारतीय महिला थीं, लेकिन उन्होंने कभी भी प्रैक्टिस नहीं की। अपनी शिक्षा के बाद वे टुबरक्लोसिस की बीमारी के साथ भारत लौटीं। इसी के चलते अपनी आसमयिक मौत के कारण वे कभी भी डॉक्टर के रूप में अभ्यास नहीं कर पायीं।

ब्रिटिश भारत में महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ने वाले प्रेरक लोगों में से रुक्माबाई एक थीं। महिलाओं के खिलाफ भेदभाव करने वाले सामाजिक सम्मेलनों और रीति-रिवाजों के प्रति उनकी अवज्ञा ने 1880 के रूढ़िवादी भारतीय समाज में बहुत से लोगों को हिलाकर रख दिया और उनकी इस लड़ाई ने ही 1891 में पारित होने वाले ‘सहमति की आयु अधिनियम’ का नेतृत्व किया। उन्होंने असाधारण साहस और दृढ़ संकल्प के साथ कई वर्षों तक अपमान सहन किया।  रुक्माबाई आनेवाले सालों में कई अन्य महिलाओं को डॉक्टर बनने और सामाजिक कार्य करने के लिए प्रेरणा देती रहीं।

फिल्म निर्देशक अनंत महादेवन ने उनके जीवन व चरित्र से प्रभावित होकर, उनके जीवन पर आधारित फिल्म ‘रुक्माबाई भीमराव राउत’ बनायीं है। इस फिल्म में सशक्त और बेबाक रुक्माबाई का किरदार तनिष्ठा चटर्जी ने निभाया है।

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कवर फोटो: बाएं/मध्य/दाएं

मूल लेख: संचारी पाल


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