निर्मल वर्मा (Nirmal Verma) की गिनती देश के सबसे आधुनिक लेखकों में होती है। कहानियों की प्रचलित शैली में निर्मल वर्मा ने परिवर्तन किया। रचनाओं में आधुनिकता का बोध लाने वाले निर्मल वर्मा की कहानियां स्मृतियों के संसार से निकली हैं, जो पाठकों को अतीत की रोमांचक यात्रा पर ले जाती है।
अपनी रचनाओं में उन्होंने लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़ी घटनाओं का बड़ी सहजता से जिक्र किया है। उनकी भाषा सहज थी और हिन्दी के साथ-साथ, वह अंग्रेजी के भी बहुत बड़े जानकार थे।
निर्मल वर्मा ने अपने जीवन में ‘वे दिन’, ‘लाल टीन की छत’, ‘एक चिथड़ा सुख’, ‘रात का रिपोर्टर’, ‘परिन्दे’(Nirmal Verma Books) जैसी कई रचनाएं की। इसके अलावा, उन्होंने जोसेफ स्कोवर्स्की, जीरी फ्राईड और मिलान कुंदेरा जैसे कई विदेशी लेखकों की रचनाओं का हिन्दी अनुवाद भी किया।
साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए उन्हें 1985 में, साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1999 में ज्ञानपीठ पुरस्कार और 2002 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। इतना ही नहीं, 2005 में उन्हें भारत सरकार द्वारा नोबेल पुरस्कार के लिए भी नामित किया गया था।
निर्मल वर्मा का जन्म (Nirmal Verma Birth) 3 अप्रैल 1929 को हिमाचल प्रदेश के शिमला में हुआ था। उनके पिता सेना में एक अधिकारी थे। उन्होंने दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कॉलेज से इतिहास में एमए की पढ़ाई की और इसके बाद, 1959 में अध्यापन के लिए चेकोस्लोवाकिया चले गए।
निर्मल वर्मा वहीं से टाइम्स ऑफ इंडिया और हिन्दुस्तान टाइम्स जैसे अखबारों के लिए यूरोप की संस्कृति और वहां की राजनीति से संबंधित विषयों पर लिखते थे। एक दशक से भी अधिक समय तक यूरोप में रहने के बाद, वह भारत लौट आए और स्वतंत्र रूप से लिखने लगे।
इसी दौरान, 1972 में उन्होंने ‘माया दर्पण’ (Maya Darpan) फिल्म की कहानी लिखी, जिसे राष्ट्रीय पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। इस फिल्म को कुमार साहनी ने निर्देशित किया था। जमींदारी प्रथा पर आधारित इस फिल्म में कांता व्यास, इकबालनाथ कौल और अनिल पांड्या जैसे कलाकारों ने मुख्य भूमिका निभाई थी। निर्मल वर्मा की लेखनी इतनी प्रभावी थी कि कई लोग उन्हें आधुनिक दौर का प्रेमचंद मानते हैं।
लेखनी को बताया पागलपन
यह बात 1999 की है, जब उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। अपने पुरस्कार भाषण के दौरान, उन्होंने मशहूर अमेरिकी लेखक हेनरी जेम्स के शब्दों को दोहराते हुए, ‘लेखनी को पागलपन’ करार दिया था।
पुरस्कार समारोह में उन्होंने कहा, “एक लेखक के तौर पर हम जो लिखते हैं, वह साहित्य का कर्ज चुकाने का प्रयासभर है। सांसारिक सुविधाओं के बीच, अस्तित्व के चरम छोर पर जाने का खतरा हम नहीं उठाना चाहते हैं। यह खतरा साहित्य हमारे लिए उठाता है।”
कई लोग मानते हैं कि निर्मल वर्मा की कहानियों में संवाद की कमी है। लेकिन वास्तव में वह खुद से संवाद करते थे। यही कारण है कि उन्हें ‘अकेलेपन के लेखक’ के तौर पर जाना जाता है। वह अपनी रचनाओं में अनाम व्यक्त दुख का जिक्र करने की कोशिश करते थे।
उदाहरण के तौर पर, उन्होंने अपनी किताब परिन्दे (Parinde Nirmal Verma) में लिखा है, “हमारा बड़प्पन तो हर कोई देखता है, लेकिन अपनी शर्म सिर्फ हम देख पाते हैं। अब वैसा दर्द नहीं होता, जो पहले कभी होता था, तब उसे खुद पर ग्लानि होती है। वह फिर जान-बूझकर उस घाव को कुरेदती है, जो भरता जा रहा है, खुद-ब-खुद उसकी कोशिशों के बावजूद भरता जा रहा है।”
राजनीति से रहे दूर
निर्मल वर्मा (Nirmal Verma) की खासियत थी कि उन्होंने दूसरे लेखकों की तरह चली आ रही विधाओं का सहारा नहीं लिया और हमेशा अपनी मौलिकता को बनाए रखा। उन्हें इस बात की परवाह नहीं थी कि लोग उनके बारे में क्या कह रहे हैं। वह पूरी जिंदगी राजनीतिक गुटबाजी से दूर ही रहे।
उनका मानना था कि साहित्य चेतना को जगाने के बजाय, हमें उन मूल्यों के प्रति सचेत करता है, जिन्होंने सत्ता और साहित्य के बीच एक संतुलन बनाकर रखा है।
वह कहते थे, “हमारे संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को काफी महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। लेकिन यदि हमें अपने जीवन की सच्चाई को बोलने का विवेक न हो, तो उस आजादी का कोई मायने नहीं है। इसलिए एक लेखक के तौर पर हमें हमेशा उस फर्क को मिटाने की कोशिश करनी चाहिए।”
आज लोगों के बीच, सामाजिक और सार्वजनिक जीवन को लेकर काफी पतन देखने को मिल रहा है। इसे लेकर वह कहते थे, “भारत को इस स्थिति से मध्य वर्ग ही उबार सकता है। यदि वे हिम्मत दिखाते हुए, सच को सच और झूठ को झूठ कहे, तो लोगों के जीवन में आये इस पतन से मुक्ति मिल सकती है।”
प्रेमचंद को मानते थे आज भी प्रासंगिक
कई विचारकों का ऐसा मत रहा है कि यदि किसी समाज की स्थिति बदल जाए, तो साहित्य को भी बदल जाना चाहिए। लेकिन निर्मल वर्मा कहा करते थे कि आज न वे किसान हैं और न ही वह गरीबी। लेकिन प्रेमचंद की कहानियां आज भी प्रासंगिक हैं।
वह कहते थे कि देश के किसान आज भी प्रकृति के साथ रहकर कहानियों, यादों और मिथकों को संजोता है, जो प्रकृति और समाज, दोनों को सुंदर बनाती हैं। यहां के किसानों को फ्रांस, अमेरिका या रूस जैसे देशों की तरह नहीं दिखाया गया है, जो काम तो करता है खेतों में, लेकिन बन गया मजदूर।
अंत तक नहीं छोड़ा किताबों का साथ
निर्मल वर्मा (Nirmal Verma) ने 25 अक्टूबर 2005 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया। निर्मल वर्मा अपने अंत समय तक हर दिन करीब 12 घंटे काम किया करते थे और खूब किताबें पढ़ते थे।
हर पाठक उनके लिए इतना मायने रखता था कि वह अपने हर पाठक की चिट्ठी का जवाब जरूर देते थे, भले ही वह पोस्टकार्ड में सिर्फ दो वाक्य ही क्यों न लिखें।
अच्छा लेखन ही लेखकों का मददगार
निर्मल वर्मा का मानना था कि सिर्फ अच्छी लेखनी ही, लेखकों के लिए मददगार है। इसके सिवा उन्हें कुछ बचा नहीं सकता है, न तो पुरस्कार और न ही अच्छा जनसंपर्क।
उन्होंने कभी अपने पूर्व के लेखकों की शैली को नहीं अपनाया। लेकिन निर्मल वर्मा को कभी अपनी मौलिकता का गुमान नहीं था। यही कारण है कि वह एक ऐसे लेखक रहे, जिनकी किसी से तुलना नहीं की जा सकती।
संपादन- जी एन झा
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