इस साल कोविड-19 ने हमारे जीवन जीने के तरीकों को बिल्कुल बदल दिया है। ‘वर्क फ्रॉम होम’ और ‘ऑनलाइन टीचिंग’ अब नया नहीं लगता। पिछले चंद महीनों में हमें जैसे इस ज़िंदगी की आदत पड़ने लगी है और अब सब तरफ एक ही चर्चा है कि आने वाला कल डिजिटल है। अब समय है कि हम इंटरनेट की दुनिया का हाथ थाम लें और आगे बढ़ें क्योंकि अब यही ‘न्यू नॉर्मल’ है।
लेकिन अपने लैपटॉप और स्मार्ट फ़ोन के ज़रिए अपने दोस्तों से इस बारे में चर्चा करते हुए अक्सर हम अपने देश के उन लोगों को भूल जाते हैं, जिनके पास इस ‘न्यू नॉर्मल’ को अपनाने की सुविधाएं ही नहीं हैं। आज हर कोई बच्चों की ऑनलाइन टीचिंग पर जोर दे रहा है, तरह-तरह के ऑनलाइन प्रोग्राम शुरू किए गए हैं। लेकिन उन बच्चों का क्या जिनके माता-पिता एक स्मार्ट फोन तक नहीं खरीद सकते?
सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले ज़्यादातर बच्चों के घरों में एक साधारण-सा फ़ोन होना भी बड़ी बात है तो हम कैसे यह मान लें कि ‘डिजिटल’ हमारा भविष्य है।
अगर किसी बच्चे के पास डिजिटल साधन नहीं हैं तो क्या उन्हें पढ़ने का अधिकार नहीं है? क्या उनके बारे में बात होनी ज़रूरी नहीं है? बिल्कुल है! क्योंकि बात करने से ही समस्यायों के समाधान निकलते हैं। जहाँ एक तरफ ऑनलाइन टीचिंग को लेकर तरह-तरह के एक्सपेरिमेंट हो रहे हैं, वहीं कुछ इलाके ऐसे हैं जहां बिना इंटरनेट और डिजिटल तकनीक के शिक्षकों ने अपने छात्रों को पढ़ाने के तरीके खोज निकालें हैं।
आज हम आपको बता रहे हैं, कुछ ऐसे शिक्षकों के बारे में जिन्होंने बिना कोई ऑनलाइन एप्लीकेशन या फिर इंटरनेट इस्तेमाल किए लॉकडाउन में गाँव-बस्ती के बच्चों को पढ़ाई से जोड़े रखा। हज़ारों बच्चों को उनके इन प्रयासों की वजह से मदद मिली है और इन बच्चों का भविष्य संवर रहा है।
1. चिंतन पटेल: दीवारों पर लगाए पोस्टर
गुजरात के खेडा जिले में बांधियनपुरा-मित्रल प्राथमिक शाला में पढ़ाने वाले चिंतन पटेल बताते हैं कि जैसे ही लॉकडाउन हुआ उसके कुछ दिन बाद से ही बच्चों को ऑनलाइन पढ़ाने के दिशा-निर्देश आ गए। ऐसे में, समस्या यह थी कि जिन बच्चों के घरों में स्मार्ट फ़ोन नहीं हैं, उन्हें कैसे शिक्षा से जोड़कर रखा जाए।
“वैसे भी जो बच्चे हमारे पास आते हैं, उनका ध्यान पढ़ाई में लगाये रखना मुश्किल होता है। उनके माता-पिता भी अपनी रोज़ी-रोटी के चक्कर में पढ़ाई के प्रति ज्यादा जागरूक नहीं होते हैं। हमारे स्कूल से ऐसे 22 बच्चे थे जिनकी पढ़ाई का नुकसान हो रहा था,” उन्होंने कहा।
कोई और शिक्षक होता तो शायद इतना ज्यादा नहीं सोचता और जिन बच्चों के पास स्मार्ट फ़ोन हैं उन्हीं को पढ़ाकर अपना काम खत्म करता। लेकिन चिंतन के लिए उनके एक-एक बच्चे का भविष्य ज़रूरी है। वह कहते हैं कि कक्षा 1 और 2 में बच्चों की वो उम्र होती है, जिसमें आप उन्हें बहुत कुछ सिखा सकते हैं।
उन्हें नई-नई चीजें सीखने का शौक होता है और अगर शिक्षक उसी हिसाब से उन्हें पढ़ाएं तो बच्चों की क्रियात्मक और रचनात्मक प्रतिभा बढ़ती है। इसलिए चिंतन इन बच्चों को यूँ ही नहीं रहने देना चाहते थे। उन्होंने अपने अन्य साथी शिक्षकों से विचार-विमर्श किया कि क्या किया जाए।
“मैने स्कूल में बच्चों का ध्यान आकर्षित करने के लिए दीवारों पर चित्र सहित वर्णमाला, अक्षर ज्ञान, गिनतियाँ आदि पेंट कराई। उन्हीं को देखकर मुझे लगा कि अगर हम गांवों में उनके घरों पर ऐसे पोस्टर लगा दें तो शायद उन्हें जोड़ कर रखा जा सकता है,” उन्होंने बताया।
चिंतन ने अपने सभी 22 छात्रों के यहाँ पोस्टर लगवाये और इस दौरान उन्होंने सभी दिशा-निर्देशों का पालन किया। उन्होंने बच्चों को और उनके माता=पिता को इस बारे में समझाया और उनसे कहा कि वह हर रोज़ इससे सीखने की कोशिश करें।
चिंतन को कोई ख़ास उम्मीद नहीं थी पर उन्होंने प्रयास किए। लेकिन कुछ ही हफ्तों में उनकी मेहनत रंग लाई और बच्चे इन पोस्टर्स से थोड़ा-थोड़ा सीखने लगे। चिंतन अपने साथी शिक्षकों के साथ हर हफ्ते पोस्टर्स बदलते हैं और अलग-अलग विषयों के पोस्टर लगाकर आते हैं।
“हमारे सफल एक्सपेरिमेंट को देखने के बाद खेडा और आनंद जिले के 32 स्कूलों के 500 बच्चों के लिए इस क्रिया को अपनाया गया ताकि उनकी भी मदद हो सके। शायद लोगों को लगे कि इससे क्या बड़ा फर्क आ जाएगा। लेकिन इन बच्चों का बिल्कुल भी कुछ न सीखने से बेहतर है कुछ सीखना ताकि इनमें जानने की, समझने की ललक बनी रहे,” उन्होंने कहा।
2. घनश्याम: लाउडस्पीकर पर क्लास
गुजरात के रन ऑफ़ कच्छ में लगभग 18 गाँव हैं जिनमें 7 ग्राम पंचायत हैं। वहां पर साधनों के अभाव में बच्चों के लिए ऑनलाइन कक्षाएं करना बहुत ही मुश्किल था। ऐसे में, शिक्षक घनश्याम ने बच्चों को पढ़ाने का अनोखा तरीका निकाला। उन्होंने सोचा कि अगर ग्राम पंचायत के लाउडस्पीकर को लोगों तक सूचना पहुंचाने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है, तो बच्चों को पढ़ाने के लिए क्यों नहीं?
उन्होंने ग्राम पंचायत से बात की, अभिभावकों को समझाया गया और सबकी मदद से लाउडस्पीकर पर कक्षाएं शुरू हुईं। शुरू-शुरू में थोड़ी परेशानी हुई लेकिन फिर रूटीन सेट हो गया। लॉकडाउन के दौरान 2-3 महीने इसी तरह से बच्चों की क्लास हुईं। इन कक्षाओं से लगभग 150 बच्चों की पढ़ाई जारी रही। घनश्याम कहते हैं इसके बाद सरकार की तरफ से दूरदर्शन चैनल पर शैक्षिक कार्यक्रम शुरू हो गए।
अब डीडी गिरनार चैनल पर बच्चों को कोर्स कराया जा रहा है। पर अभी भी घनश्याम और उनके साथी शिक्षक फ़ोन से बच्चों की जानकारी लेते हैं और प्रोग्राम के बाद उनके सभी संशय लाउडस्पीकर पर एक्स्ट्रा क्लास लकर दूर किए जाते हैं।
लाउडस्पीकर क्लास के अलावा, घनश्याम ने कच्छ के ग्रामीण इलाकों में कोविड-19 के बारे में जागरूकता फैलाने में भी काफी योगदान दिया है। इसके साथ ही, उन्होंने लगभग 130 बच्चों के लिए किताबों और स्टेशनरी का इंतज़ाम भी किया। उन्होंने खुद अपनी जेब से पैसे खर्च करके इन बच्चों तक पढ़ाई के ये साधन पहुंचाए।
3. अशोक दवे: केबल क्लासरूम
गुजरात के शंखेश्वर में एक ट्रस्ट द्वारा चलने वाले स्कूल, श्री. पी. सी प्रजापति विद्यालय के प्रिंसिपल अशोक दवे ने ग्रामीण इलाकों में बिना किसी इंटरनेट के पहुंचाने का सराहनीय काम किया है। सबसे अच्छी बात यह है कि इसके लिए उन्होंने समाज के भी कुछ लोगों का भरपूर साथ मिला। दवे बताते हैं कि उनके स्कूल में आसपास के 15 गांवों से बच्चे आते हैं, जिनमें से लगभग आधे बच्चे ऐसे हैं जिनके पास ऑनलाइन पढ़ने का कोई साधन नहीं है।
इन बच्चों के भविष्य को लेकर दवे चिंता में थे और उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करें। उनके इलाके में सब जगह यही चर्चा थी कि जिन बच्चों के पास ऑनलाइन साधन नहीं है उन्हें कैसे शिक्षा से जोड़कर रखा जाए। शिक्षकों का बच्चों के घर जाना भी उचित नहीं था। ऐसे में, उन्हें अपने एक स्थानीय केबल नेटवर्क ऑपरेटर से मदद मिली।
“मयूर भाई शंखेश्वर केबल नेटवर्क चलाते हैं और उनका चैनल हर एक घर के टीवी पर आता है। यह इलाके का स्थानीय नेटवर्क है। उन्होंने हमसे कहा कि हम अगर चाहें तो इस चैनल के माध्यम से बच्चों की क्लास करा सकते हैं। शिक्षक क्लास में पढ़ाएंगे और उसे चैनल पर वीडियो टेलीकास्ट किया जाएगा,” दवे ने बताया।
पर अब समस्या थी कि वीडियो रिकॉर्डिंग कैसे हो? क्योंकि पूरा स्टूडियो सेट-अप करना मुश्किल था। ऐसे में, कृष्णा स्टूडियो नामक एक फोटो स्टूडियो ने मदद की। यह दवे के पुराने छात्र का ही स्टूडियो है, उन्होंने शिक्षकों की पढ़ाते हुए वीडियो रिकॉर्ड करने की ज़िम्मेदारी उठाई। कंप्यूटर का सभी काम हरसिद्धि कंप्यूटर्स ने किया।
“इनमें से किसी ने भी हमसे कोई फीस नहीं ली बल्कि सबने कहा कि बच्चों की शिक्षा में मदद करके वह अपनी ज़िम्मेदारी निभा रहे हैं। कुछ परेशानियां हुईं लेकिन हम और हमारे सभी शिक्षक दृढ़ थे कि साधनों के आभाव में हम बच्चों की शिक्षा नहीं रुकने देंगे,” उन्होंने आगे कहा।
महीने की शुरुआत में सभी शिक्षकों का शेड्यूल बनाया गया और बच्चों को भी मैसेज, फ़ोन कॉल के ज़रिए इस रूटीन की जानकारी दी गई ताकि उन्हें पता हो कि किस दिन और किस समय किस विषय की कक्षा होगी। एक शिक्षक को सिर्फ यह काम दिया गया कि वह बच्चों के फ़ोन का जवाब दें और उनके सवाल और परेशानियां सुनें, ताकि अगली क्लास में बच्चों के सवाल भी हल किए जा सकें। अशोक और उनकी टीम के इस काम की सभी ने सराहना की।
एक केबल नेटवर्क के ज़रिए 70 गांवों में यह प्रोग्राम चल रहा है। जिलाधिकारी ने दूसरे स्कूलों को भी इस पहल से जुड़ने के लिए प्रेरित किया और आज लगभग 20 हज़ार बच्चे इस तरह से पढ़ रहे हैं।
4. बालाजी जाधव: स्टोरीज ऑन फ़ोन
इन प्रेरक शिक्षकों में एक और नाम शामिल होता है और वह है महाराष्ट्र के सातारा जिले के शिक्षक बालाजी जाधव का। स्मार्ट फ़ोन और इंटरनेट के अभाव में बालाजी भी बहुत से बच्चों की पढ़ाई को लेकर चिंतित थे। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि आखिर कैसे उन बच्चों को पढ़ाया जाए जिनके पास ऑनलाइन माध्यम नहीं हैं।
जाधव कहते हैं कि उन्हें उस वक़्त अपने छात्रों की सबसे ज्यादा चिंता थी। इस सबमें उनका कोई दोष नहीं था फिर भी उनकी शिक्षा प्रभावित हो रही थी। पर कहते है न कि दिल में लगन हो तो रास्ते खुल ही जाते हैं। जाधव ने भी एक अनोखा रास्ता खोज निकला – ‘स्टोरी ऑन फ़ोन’ का। उन्होंने अपने साथी शिक्षकों से विचार विमर्श किया कि क्यों न साधारण फ़ोन पर कांफ्रेंस कॉल के ज़रिए बच्चों से जुड़ा जाए और उन्हें पढ़ाया जाए।
शुरुआत में यह आईडिया बच्चों और उनके माता-पिता को काफी अजीब लगा। उन्हें लगा कि इसका कोई फायदा नहीं होगा पर जाधव एक बार कोशिश करना चाहते थे और उन्होंने यह काम शुरू कर दिया । सबसे पहले सभी बच्चों और उनके माता-पिता को फ़ोन पर कॉन्फ्रेंस कॉल और रिकॉर्डिंग सिस्टम के बारे में समझाया गया। इस कार्य में थोड़ी कठिनाई हुई पर धीरे-धीरे मेहनत रंग लाने लगी।
इसके बाद बच्चों को 10-10 के समूहों में बांटा गया और कॉन्फ्रेंस कॉल के ज़रिए उन्हें पढ़ाया जाने लगा। अब सुबह 8 बजे से 10:30 बजे तक और फिर शाम में 7:30 बजे से 8:30 तक इसी तरह बच्चों की क्लास ली जाती है।
बच्चों का ध्यान बना रहे इसके लिए कई क्रियात्मक प्रयास भी किए गए। शिक्षकों को हर पाठ को एक कहानी के तौर पर तैयार कर बच्चों को पढ़ाने के लिए कहा गया। जाधव कहते हैं कि बच्चों को भाषा ज्ञान की एक बेसिक स्किल सिखाई गई, जो है – पहले सुनना, फिर बोलना। सुबह के सेशन में टीचर बच्चों को कहानी सुनाते और फिर शाम के सेशन में बच्चे उस कहानी को दोहराते। इस तरह जाधव ने 40 बच्चों की पढ़ाई जारी रखी। उनके इस प्रोग्राम को सातारा जिले के साथ-साथ पूरे महाराष्ट्र में पहचान मिली और अब कई ग्रामीण इलाकों में इस तरीके को अपनाया जा रहा है।
चाहे एक बच्चा हो या एक लाख, संख्या से फर्क नहीं पड़ता। फर्क इस बात से पड़ता है कि एक-एक बच्चे को शिक्षा मिले। इस क्रम में इन शिक्षकों की ये कोशिशें वाकई सराहनीय है।
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संपादन – मानबी कटोच