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उत्तर-प्रदेश: किसान अब पराली जलाते नहीं बल्कि इससे खाद बनाते हैं, जानिए कैसे!

श्चिमी उत्तर-प्रदेश में अपने जल-संरक्षण के प्रयासों के लिए मशहूर ‘नीर फाउंडेशन’ के संस्थापक रमन कांत ने अब तक 450 से ज्यादा तालाबों और दो नदियों के उद्गम स्थल को पुनर्जीवित किया है। उनके काम से न सिर्फ आम नागरिकों की ज़िंदगी पर अच्छा प्रभाव पड़ा है बल्कि भारत सरकार भी उनके कार्यों की सराहना कर उन्हें पूरे भारत में अपना काम फैलाने के लिए प्रेरित कर रही है। रमन कांत के काम की सबसे अच्छी बात यह है कि उन्होंने जिस भी गाँव में काम किया है वहां सिर्फ पानी तक सीमित नहीं रहे बल्कि अन्य मुद्दों पर भी लोगों की मदद की है।

रमन कांत ने जहां एक ओर गांव वालों के लिए आरओ सिस्टम लगवाए हैं वहीं प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र भी बनवाए हैं। इन सब कामों में सबसे ज्यादा प्रभावी रहा है उनका किसानों के हित के लिए काम।

रमन कांत ने द बेटर इंडिया को बताया, “पिछले दो दशकों में हमने जहां भी काम किया वहां सबसे ज्यादा परेशानी में किसानों को देखा। सिंचाई के लिए पानी की समस्या तो है ही, इसके साथ-साथ किसान अन्य परेशानियों से भी घिरा रहता है। जैसे खेत के लिए उर्वरक, पेस्टीसाइड खरीदने का खर्च, फिर खेत से निकलने वाले कचरे आदि के प्रबंधन की समस्या और उपज का हाल तो हम सबको ही पता है।”

‘कम्पोस्टिंग यूनिट’ का डिज़ाइन

Raman Kant and Lalit Tyagi

उत्तर-प्रदेश में गन्ने की खेती खूब होती है और गन्ने से गुड़ बनाने के लिए कोल्हू भी चलते हैं। गन्ने से गुड़ बनाने के बाद, बचे हुए छिलकों को किसान अक्सर जला देते हैं और यह न सिर्फ वातावरण के लिए बल्कि मिट्टी के लिए बहुत हानिकारक है।

रमन कांत बताते हैं, “ जैसे कि गाँव में पलायन की वजह से आसानी से मजदूर नहीं मिलते हैं और इस वजह से किसानों पर ही सभी काम का बोझ रहता है। साथ ही, वे गोबर आदि को खेत के सहारे इकट्ठा कराते रहते हैं कि मिट्टी में डालेंगे लेकिन यह गोबर ढंग से अपघटित नहीं होता क्योंकि इस पर कभी बारिश कभी धूल-मिट्टी कुछ न कुछ चलता रहता है। जिस वजह से इसके पोषक तत्व पानी के साथ बह जाते हैं। हमें किसानों की इन परेशानियों ने बहुत प्रभावित किया और हमने सोचा कि क्यों न इस बारे में कुछ किया जाए।”

रमन ने अपने एक दोस्त ललित के साथ मिलकर योजना बनाई। 2015 में उन्होंने एक ‘कम्पोस्टिंग यूनिट’ का डिज़ाइन तैयार किया, जो पारंपरिक तरीकों से प्रेरित था। रमन कहते हैं कि अगर आप अपने बुजुर्गों से पूछेंगे तो वे बताएंगे कि उनके जमाने में खेतों में ही गड्ढा करके गोबर, एग्रो वेस्ट आदि को उसमें डाला जाता था और फिर इसे ढक देते थे। साल-छह महीने में जब खाद तैयार होती तो उसे खेती के काम में ले लिया जाता। रमन और ललित ने भी कुछ ऐसा ही कॉन्सेप्ट तैयार किया, जिसे उन्होंने नाम दिया ‘ललित-रमन कम्पोस्टिंग यूनिट’!

Lalit-Raman Composting Unit

पिछले कुछ सालों में उन्होंने इस यूनिट में अलग-अलग किसानों के हिसाब से बदलाव भी किए हैं। लेकिन अच्छी बात है कि वह अब तक मेरठ के साथ-साथ गौतमबुद्ध नगर के भी बहुत से किसानों तक पहुंचने में सक्षम रहे हैं। उन्होंने अब तक 50 से भी ज्यादा गांवों में यह कम्पोस्टिंग यूनिट लगाई है।

क्या है एलआर कम्पोस्टिंग यूनिट:

सबसे पहले ललित-रमन के डिज़ाइन के अनुसार खेत में कम्पोस्टिंग यूनिट का निर्माण किया जाता है- जिसमें बाहरी स्ट्रक्चर 8 x 3 x 1 मीटर के माप का और इसके भीतर का स्ट्रक्चर 7.1 x 2.1 x 1 मीटर के माप का बनता है। इसमें आप काफी ज्यादा मात्रा में गन्ने के छिलके, धान की पराली या फिर अन्य कोई एग्रोवेस्ट और पानी डाल सकते हैं।

सामग्री:

सूखा व हरा वेस्ट, जो गल -सड़ सकता हो
धान की पराली
गन्ने के छिलके
पेड़ व पौधों की पत्तियां
किसी भी फसल का सूखा व हरा अवशेष
कोई भी हरी व सूखी खरपतवार

विधि:

पहली परत सूखे वेस्ट की लगानी है लगभग 6 से 12 इंच की और फिर इस पर वेस्ट डिकॉम्पोज़र का छिड़काव करना है।
फिर इसके ऊपर गोबर की एक परत लुगदी के रूप में 1 से 2 इंच की या गोबर प्रयोग कर उस पर पानी व वेस्ट डिकॉम्पोज़र का छिड़काव जिससे वह लुगदी जैसा बन जाये।

इसके बाद फिर एग्रो-वेस्ट मतलब हरी पत्तियां, फसल का हरा अवशेष, हरी खरपतवार आदि की 4 से 6 इंच की परत उसके बाद वेस्ट डिकॉम्पोज़र का छिड़काव।

इस तरह सूखे व हरे दोनों तरह के वेस्ट की परत लगाते जाना है और प्रत्येक परत पर पानी व वेस्ट डिकॉम्पोज़र का छिड़काव करते जाना है और गड्ढे को एक फुट ऊपर तक भरना है क्योंकि 15 से 20 दिन बाद यह अपने आप नीचे होता जाएगा।

इस तरीके से आपको दो महीने में एक एकड़ की फसल के लिए एक बार ठोस जैविक खाद और चार दफे लिक्विड खाद मिलेगी। इस लिक्विड खाद को आप पानी में मिलाकर खेतों की सिंचाई कर सकते हैं या फिर इसका स्प्रे फसल पर कर सकते हैं। इससे आपकी फसल से हर तरह के कीट और हानिकारक जीव दूर रहेंगे। सिंचाई करने से मिट्टी को पोषण मिलेगा और यह ज्यादा उत्पादन में मददगार है।

इसके अलावा, जो खाद आपको मिलेगी, वह किसी भी तरह से उच्च गुणवत्ता वाली वर्मीकंपोस्ट से कम नहीं है। इसके इस्तेमाल के बाद किसानों को कोई रासायनिक उर्वरक या फिर पेस्टीसाइड लाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।

किसानों के लिए फायदेमंद

ललित और रमन के मार्गदर्शन में आज लगभग 85 किसानों के खेत में यह यूनिट लगी हुई है और उन सभी को इससे फायदा हो रहा है। किसानों का उर्वरकों पर होने वाला खर्च रुक गया है और साथ ही, वे जैविक खेती की तरफ बढ़ रहे हैं। इसके अलावा, अब ये किसान अपने खेतों की पराली, छिलके या फिर अन्य कोई एग्रो वेस्ट नहीं जलाते हैं। इससे पर्यावरण को भी काफी फायदा है क्योंकि यह एग्रो वेस्ट जलाने पर भयंकर कार्बन डाइऑक्साइड उत्पादित होती है।

रमन कांत बताते हैं, “एक एकड़ की पराली अगर जलाई जाए तो लगभग 45, 000 किग्रा कार्बन डाइऑक्साइड निकलती है साल भर में। लेकिन हम बहुत से गांवों में किसानों को समझाने में कामयाब रहे हैं। कुछ दिन पहले हमने एचसीएल फाउंडेशन की मदद से हमने गौतम बुद्ध नगर में 35 किसानों के यहाँ भी यह यूनिट लगाई है और सभी को अच्छा परिणाम मिल रहा है।”

रमन और ललित ने सबसे पहले एक किसान के यहाँ मॉडल यूनिट तैयार किया था और इसके बाद उन्होंने सरकार को अपनी रिपोर्ट भेजी। आज उनकी इस यूनिट को कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार (भारत सरकार), इंडो ग्लोबल सोशल सर्विस सोसाइटी (जर्मनी), पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय, भारत सरकार और संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम सहित कई लोगों द्वारा मान्यता दी जा चुकी है।

अब तक, उन्होंने लगभग 100 किसानों के यहाँ कम्पोस्टिंग यूनिट लगाई हैं और अपने इन प्रोजेक्ट्स के लिए उन्हें एचसीएल फाउंडेशन, यूएनडीपी और इंडो ग्लोबल सोशल सर्विस सोसाइटी (जर्मनी) जैसे संगठनों से मदद मिली है। एक कम्पोस्टिंग यूनिट के निर्माण में 25 हज़ार रुपये तक की लागत आती है लेकिन यह सिर्फ एक बार का खर्च है क्योंकि इसके बाद 20-25 साल तक किसानों को उर्वरकों और खाद के लिए कहीं बाहर जाने की ज़रूरत नहीं है।

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अगर आपको इस कहानी ने प्रभावित किया और आपको इस यूनिट के बारे में विस्तार से जानना है तो आप रमन कांत को 9411676951 पर कॉल या फिर theneerfoundation@gmail.com पर ईमेल कर सकते हैं!


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