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एलोवेरा जिसे घृत कुमारी और ग्वारपाठा के नाम से भी जाना जाता है, एक ऐसा प्लांट है जो न सिर्फ दवाई के लिए उपयोग किया जाता है बल्कि आज कल रोज़ाना इस्तेमाल होने वाली चीज़ों में भी उपयोग किया जाता है। जैसे शैम्पू, कंडीशनर, जूस, साबुन, टूथपेस्ट आदि।
एलोवेरा फार्मिंग एक बढ़ता हुआ बिज़नेस है जिसमें आप अच्छा मुनाफा कमा सकते हैं। आज हम आपको एक ऐसे ही किसान की कहानी सुनाने जा रहे हैं जिसकी तकदीर एलोवेरा की खेती ने बदल दी। कभी चाय की दुकान चलाने वाला यह शख्स आज इस एलोवेरा की खेती और प्रोसेसिंग से लाखों रुपये कमा रहा है।
राजस्थान के हनुमानगढ़ जिला के परलीका गाँव में रहने वाले 31 वर्षीय अजय स्वामी पिछले 12 साल से एलोवेरा की खेती कर रहे हैं। खेती करने के साथ -साथ अजय इसकी प्रोसेसिंग भी करते हैं और खुद अपने उत्पाद तैयार करके बाज़ार में बेचते हैं। उनके उत्पाद 'नैचुरल हेल्थ केयर' के नाम से लगभग 20 अलग-अलग कंपनियों को जा रहे हैं।
अपनी खेती और प्रोसेसिंग के काम से आज लाखों में कमाने वाले अजय ने कभी अपनी शुरूआत मात्र 10 रुपये दिन की कमाई से की थी। बचपन में ही पिता का साया सिर से उठ गया और विरासत में मिला जीवन का संघर्ष और केवल दो बीघा ज़मीन।
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आठवीं कक्षा तक की पढ़ाई भी ननिहाल में रहकर बड़ी मुश्किल से पूरी हुई और इसके बाद, वह एक चाय की दुकान पर 10 रुपये दिहाड़ी पर काम करने लगे। इन सबके बावजूद अजय ने मेहनत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी और फिर साल भर बाद, अपनी चाय की स्टॉल शुरू की। चाय की स्टॉल को वह दिन-रात चलाते और साथ में यह भी सोचते रहते कि वह ऐसा क्या कर सकते हैं जिससे उनके घर की माली हालत सुधरे। उनके पास सिर्फ 2 बीघा ज़मीन थी और उसे कैसे वह आगे बढ़ने के लिए इस्तेमाल करें, इस पर वह विचार करते रहते।
"उस समय मैंने अखबार में एलोवेरा के बारे में पढ़ा। पतंजलि के एलोवेरा प्रोडक्ट्स का भी उस वक़्त काफी नाम चल रहा था। मुझे पता चला कि एलोवेरा की खेती के लिए बहुत ज्यादा पानी की ज़रूरत नहीं होती है। मैंने सोचा कि क्यों न मैं भी एलोवेरा की खेती करूँ। पर फिर सवाल था कि पौधे कहाँ से आएंगे? मैं अपने आस-पास जानने वालों से पूछने लगा इसके बारे में," उन्होंने कहा।
उन्हें अपने एक रिश्तेदार से पता चला कि चुरू के एक गाँव के कब्रिस्तान में बहुत से एलोवेरा के पौधे हैं। उस गाँव में जब भी किसी की मृत्यु होती तो, उन्हें दफनाने के बाद वहाँ पर कोई न कोई पौधा लगा दिया जाता था। कब्रिस्तान में लोगों ने एलोवेरा के भी काफी पौधे लगाए थे और एलोवेरा खुद भी काफी फैलता है।
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गाँव के लोग एलोवेरा के इन पौधों को वहाँ से उखाड़ना चाहते थे क्योंकि यह पूरे कब्रिस्तान में फैला हुआ था। अजय को जब इस बारे में पता चला था, वह अपने गाँव के एक-दो लोगों के साथ वहाँ ट्रैक्टर और ट्रॉली लेकर चले गए और एलोवेरा के पौधे को अपने खेतों में ले आए।
उन्होंने बारमंडीसिस प्रजाति के एलोवेरा के इन पौधों को अपनी ज़मीन पर लगा दिया और इनकी देख-रेख करने लगे। लगभग एक-डेढ़ साल तक वह चाय की दुकान और एलोवेरा की खेती साथ-साथ करते रहे।
"मेरी पहली फसल साल भर में तैयार हो गई थी। पर स्थानीय तौर पर मुझे कोई ग्राहक नहीं मिला जो एलोवेरा खरीदे। बाजार की मुझे बहुत ज्यादा समस्या आई और दो सालों तक मैं कहीं भी इसे नहीं बेच पाया। मैंने सोचा कि अगर मैं ऐसे इसे नहीं बेच सकता तो इन पौधों का और क्या किया जा सकता है? एलोवेरा के उत्पाद तब बाज़ारों में आने लगे थे। मैंने देखा कि वह इससे जूस, क्रीम, साबुन सभी कुछ बना रहे हैं और इसलिए मैंने एक मिक्सर खरीदा और अपने खेत पर ही एक बोतल एलोवेरा का जूस बनाया," अजय ने कहा।
उन्होंने सामान्य पानी की बोतल में एलोवेरा का जूस भरकर बेचना शुरू किया। एक से दो, दो से चार, चार से दस बोतलें तैयार हुईं और ऐसे करते-करते उनका यह प्रोसेसिंग का काम जम गया। उनके उत्पादों को एक-दो कंपनियाँ खरीदने भी लगीं। इसके बाद, उन्होंने अपनी चाय की दुकान बंद करके सिर्फ खेती और प्रोसेसिंग पर ध्यान दिया। अपनी खेती के सिलसिले में कृषि विज्ञान केंद्र भी जाने लगे। यहाँ से भी उन्हें और अलग-अलग उत्पाद जैसे साबुन, क्रीम बनाने के बारे में जानकारी मिली।
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एक-एक कदम पर अजय ने दिन-रात मेहनत की। थोड़ी-थोड़ी बचत करके अपनी ज़मीन बढ़ाई और प्रोसेसिंग यूनिट का सेट-अप किया। आज उनके पास लगभग 27 बीघा अपनी ज़मीन है और उनकी प्रोसेसिंग यूनिट से 45 से ज्यादा उत्पाद बन रहे हैं। सफल होने के बावजूद अजय ने अपने उत्पादों में नवाचार करना नहीं छोड़ा। वह बताते हैं कि उन्होंने लॉकडाउन के दौरान भी नए उत्पाद बनाने पर काम किया।
"सब जानते हैं कि एलोवेरा स्वास्थ्य के लिए अच्छा रहता है और यह कोई नयी चीज़ नहीं है। हमारे बड़े-बुजुर्ग सालों से इसका देसी इस्तेमाल कर रहे हैं। किसी जमाने में एलोवेरा के लड्डू, नमकीन वगेरा भी बनते थे। मैंने लॉकडाउन में इसके लड्डू बनाने पर काम किया और मुझे सफलता भी मिली। अब मैं एलोवेरा के दो तरह के लड्डू बनाकर बेच रहा हूँ," उन्होंने आगे कहा।
एलोवेरा के लड्डू उनका सबसे अधिक बिकने वाला प्रोडक्ट है, जिसकी कीमत 350 रुपये प्रतिकिलो है। अजय कहते हैं कि जब तक किसान अपनी खेती में नवाचार करते रहेंगे तब तक वह आगे बढ़ते रहेंगे। लेकिन अगर आप एक ही जगह रुक जाओ और कुछ नया न करो तो बेशक धीरे-धीरे आप पिछड़ने लगते हैं।
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एलोवेरा की खेती के बारे में अजय स्वामी कहते हैं, “एलोवेरा की खेती में लागत कम है लेकिन मेहनत काफी ज्यादा है। आप रेतीली मिट्टी में भी इसकी अच्छी फसल ले सकते हैं। इसे बहुत ज्यादा पानी की ज़रूरत नहीं होती है। बारिश से पहले एलोवेरा के पौधे लगाने चाहिए। एक बीघा में लगभग 800 एलोवेरा के पौधे आप बो सकते हैं। सर्दियों में जब तापमान माइनस में जाता है, तब एलोवेरा का ख़ास ध्यान रखना पड़ता है। बाकी यह अपने आप इतना फैलता है कि आपको ज़रूरत से ज्यादा उत्पादन मिल जाता है। पहली फसल तैयार होने में 12 महीने लग जाते हैं लेकिन फिर आप 6 महीने में और कई बार बार तो मात्र 3 महीने में ही आपको फसल मिलने लगती है।”
अजय कहते हैं कि पारंपरिक फसलों के साथ किसान छोटे स्तर से इस तरह की अलग औषधीय फसल लगाने की शुरूआत कर सकते हैं। फसल उगाने के साथ-साथ अगर किसान अपने खुद के उत्पाद भी बना लें तो इससे अच्छा कुछ भी नहीं।
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अंत में वह सिर्फ यही कहते हैं, "जब मैंने शुरूआत की तो मेरे पास खोने के लिए कुछ भी नहीं था और इसलिए हौसला बहुत बुलंद था कि कुछ हासिल करना है। उस जमाने में यह बहुत बड़ा रिस्क था लेकिन आज हमारे सामने ढेर सारे विकल्प हैं। सोशल मीडिया के जरिए आप मार्केटिंग कर सकते हैं। किसानों को अब आगे आने की जरूरत है।"
अगर आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है और आप एलोवेरा की खेती के बारे में विस्तार से जानना चाहते हैं तो अजय स्वामी से 9672682565 पर संपर्क कर सकते हैं।
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वीडियो साभार: विनोद स्वामी