किसान सिर्फ हमारे समाज के अन्नदाता नहीं हैं, बल्कि प्रकृति और पर्यावरण से भी उनका गहरा संबंध होता है। वे सिर्फ हमारे लिए खाना नहीं उगाते, बल्कि मिट्टी के पोषण को बनाए रखना भी उनकी ज़िम्मेदारी है। और एक नागरिक होने के नाते हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम सजग और संवेदनशील ग्राहक बनें। ताकि एक किसान की मेहनत की उचित कमाई उस तक पहुंचे।
द बेटर इंडिया हमेशा ही ऐसे किसानों की कहानियाँ आप सब तक पहुंचाता आया है, जिन्होंने रसायनिक खेती की लीक से हटकर जैविक खेती की तरफ कदम बढ़ाएं हैं। इन किसानों ने न सिर्फ जैविक खेती को अपनाया है बल्कि यह भी साबित कर दिखाया है कि यदि आप में सीखने की और कुछ नया करने की चाह है तो किसानी आज भी देश में सबसे ज़्यादा फायदेमंद क्षेत्र है कमाई का।
देश के अलग-अलग कोने में रहने वाले ये किसान, न सिर्फ किसानों के लिए बल्कि हमारी आने वाली पीढ़ी के लिए भी उदाहरण हैं। इनकी सफलता को देखकर यदि आने वाले वक़्त में छात्र पढ़ाई के बाद किसानी को अपना करियर चुनते हैं तो निःसंदेह इस देश का भविष्य उज्ज्वल होगा।
यह साल अपने अंतिम पड़ाव से बस चंद कदम दूर है और एक नया साल नयी उम्मीदों का सवेरा लिए हमारा इंतज़ार कर रहा है। पर नए साल में जाने से पहले इस साल की उन सभी यादों को हमें सहेज लेना चाहिए, जो आगे भी हमारे लिए प्रेरणा का स्त्रोत बनी रहेंगी।
वैसे तो द बेटर इंडिया पर जिन भी किसानों की कहानी लिखी गयी है, सभी अपने आप में खास हैं। पर आज हम उन कहानियों को एक बार फिर आपके सामने रख रहे हैं, जिन्हें आपके यानी की हमारे पाठकों द्वारा सबसे ज़्यादा पढ़ा और सराहा गया है।
1. योगेश जोशी- जीरे की जैविक खेती:
राजस्थान में जालोर जिले के रहने वाले योगेश जोशी जीरे की खेती करते हैं। ग्रेजुएशन के बाद ऑर्गेनिक फार्मिंग में डिप्लोमा करने वाले योगेश के घरवाले चाहते थे कि वे सरकारी नौकरी करें। पर योगेश जैविक खेती करने का मन बना चुके थे।
द बेटर इंडिया से बात करते हुए योगेश ने बताया, “मैंने 2009 में खेतीबाड़ी की शुरुआत की। घर से मैं ही पहला व्यक्ति था, जिसने इस तरह का साहसिक लेकिन जोखिम भरा क़दम उठाया। मुझे यह कहते हुए बिल्कुल अफसोस नहीं होता कि खेती के पहले चरण में मेरे हाथ सिर्फ निराशा ही लगी थी।”
उस वक़्त जैविक खेती का इतना माहौल नहीं था, इसलिए शुरुआत में योगेश ने इस बात पर फोकस किया कि इस क्षेत्र में कौनसी उपज लगाई जाए जिससे ज्यादा मुनाफ़ा हो, बाज़ार मांग भी जिसकी ज्यादा रहती हो। उन्हें पता चला कि जीरे को नगदी फसल कहा जाता है और उपज भी बम्पर होती है, उन्होंने इसे ही उगाने का फैसला किया। 2 बीघा खेत में जीरे की जैविक खेती की, वे असफल हुए पर हिम्मत नहीं हारी।
उन्होंने बड़ी मुश्किल से गाँव के अन्य 7 किसानों को जैविक खेती करने के लिए प्रेरित किया और जोधपुर स्थित काजरी के कृषि वैज्ञानिक डॉ. अरुण के. शर्मा से उनकी जैविक खेती पर ट्रेनिंग करवाई। इन सभी किसानों को पहली बार में ही जैविक खेती में सफलता मिली।
7 किसानों के साथ हुई शुरुआत ने आज विशाल आकार ले लिया है। योगेश के साथ आज 3000 से ज्यादा किसान साथी जुड़े हुए हैं। 2009 में उनका टर्न ओवर 10 लाख रुपए था। उनकी फर्म ‛रैपिड ऑर्गेनिक प्रा.लि’ (और 2 अन्य सहयोगी कंपनियों) का सालाना टर्न ओवर आज 60 करोड़ से भी अधिक है। आज यह सभी किसान जैविक कृषि के प्रति समर्पित भाव से जुड़कर केमिकल फ्री खेती के लिए प्रयासरत हैं।
योगेश के नेतृत्व में यह सभी किसान अब ‛सुपर फ़ूड’ के क्षेत्र में भी कदम रख चुके हैं। योगेश चिया और किनोवा सीड को खेती से जोड़ रहे हैं, ताकि किसानों की आय दुगुनी हो सके। अब वे ऐसी खेती पर कार्य कर रहे हैं, जिसमें कम लागत से किसानों को अधिक मुनाफा, अधिक उपज हासिल हो।
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2 . अशोक मनवानी और कुलंजन दुबे मनवानी- मोती पालन:
महाराष्ट्र से संबंध रखने वाले यह पति-पत्नी पिछले 20 सालों से भारत में मोती पालन पर शोध कार्य कर रहे हैं। अशोक और कुलंजन महाराष्ट्र के अलावा और 12 राज्यों में मोती पालन कर चुके हैं। कर्नाटक, केरल, गुजरात, उत्तर-प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, मणिपुर, मेघालय, असम आदि राज्यों में उन्होंने न सिर्फ़ खुद मोती पालन किया है पर बहुत से किसानों को सिखाया भी है।
मनवानी दंपति ने साबित किया है कि मोती सिर्फ़ समुद्र के नमकीन पानी में ही नहीं बल्कि गाँव-शहरों में मीठे पानी के स्त्रोत जैसे नदी और तालाबों में भी हो सकता है।
द बेटर इंडिया से बात करते हुए अशोक ने बताया, “मोती बनाकर बेचने से ज़्यादा रूचि मुझे इस प्राकृतिक प्रक्रिया को समझने में रही। मैंने कभी नहीं सोचा कि मैं बहुत ज़्यादा मोती पालन करके बेचूंगा, बल्कि मेरा उद्देश्य तो इस विषय पर शोध करके भारत में इसे किसानों के लिए हितकारी बनाना रहा है। और इसलिए मैंने अपने संगठन का नाम भी ‘इंडियन पर्ल कल्चर’ रखा है।”
साल 2001 में उन्होंने ‘इंडियन पर्ल कल्चर’ को शुरू किया था और आज उसके बैनर तले वे सैकड़ों लोगों को मोती पालन के लिए ट्रेन कर चुके हैं।
अशोक के मुताबिक भारत में डिज़ाइनर पर्ल यानी कि आकृतिकार मोती पालन को बहुत ही सफल व्यवसाय के रूप में विकसित किया जा सकता है। पर इसके लिए इससे जुड़े बहुत से मिथक और डर को खत्म करना होगा। अब तक मोटी पालन को देश में बहुत महंगा समझा जाता रहा क्योंकि इसमें इस्तेमाल होने वाली टूलकिट ही 18 हज़ार रुपये की होती है।
पर अपने अनुभव और समझ के आधार पर उन्होंने साइकिल के पहिए की तीलियों से एक खास किट तैयार की, जिसकी कीमत मात्र 500 से 800 रुपये के बीच में है। अपनी टूल किट के लिए उन्हें सरकार से सम्मान भी मिल चूका है।
अशोक और कुलंजन न सिर्फ मीठे पानी में मोती पालन कर रहे हैं बल्कि सीप की शैल से हेंडीक्राफ्ट प्रोडक्ट्स भी बनाते हैं। इस तरह से मोती-पालन के साथ-साथ यह हेंडीक्राफ्ट का काम किसानों के लिए अतिरिक्त आय का साधन हो सकता है।
सालाना 5 से 8 लाख रूपये कमाने वाले मनवानी दंपति भविष्य में अपने अनुभवों को एक किताब की शक्ल देने की ख्वाहिश रखते हैं। वे सिर्फ इतना ही कहते हैं कि यदि कोई उनसे मोती पालन सीखना चाहता है तो बेहिचक उनसे सम्पर्क कर सकता है।
अशोक मनवानी और कुलंजन मनवानी की पूरी कहानी पढ़ने के लिए और उनसे सम्पर्क करने के लिए यहाँ पर क्लिक करें!
3 . अनिमा मजूमदार- मशरूम फार्मिंग और प्रोसेसिंग:
पश्चिम बंगाल में उत्तर दीनाजपुर जिले के चोपरा ब्लॉक के एक छोटे से गाँव, दंधुगछ की रहने वाली अनिमा मजूमदार ने कभी भी नहीं सोचा था कि एक दिन उन्हें महिंद्रा समृद्धि अवॉर्ड-2019 में ‘बेस्ट फार्म वुमन अवॉर्ड ऑफ़ इंडिया’ के खिताब से सम्मानित किया जायेगा। उनके जानने-पहचानने वाले लोग उन्हें ‘मशरूम लेडी’ के नाम से जानते हैं।
अनिमा को यह सम्मान मशरूम की अच्छी खेती और प्रोसेसिंग करके मशरूम के उम्दा प्रोडक्ट्स बनाने के लिए मिला है। द बेटर इंडिया से बात करते हुए अनिमा ने बताया, “हमारे पास सिर्फ 1 बीघा ज़मीन है और उसी में हमारा घर है और बाकी में, मेरे पति मुर्गी पालन करते हैं। मैं भी उनकी मदद करती थी क्योंकि इसी से खर्च चलता था।”
लेकिन फिर गाँव के लोगों ने उनका मुर्गी-पालन का काम बंद करवा दिया क्योंकि इससे आस-पड़ौस में काफ़ी बदबू रहती थी। मुर्गी-पालन का काम बंद होने के बाद अनिमा और उनके पति को कोई रास्ता नहीं नज़र आ रहा था। उन्हें लगा कि शायद अब उन्हें गाँव से निकलकर दिहाड़ी-मजदूरी के लिए शहर जाना पड़े।
पर फिर अनिमा ने पास के एक कृषि विज्ञान केंद्र से मशरूम की खेती की ट्रेनिंग ली। यहाँ से ट्रेनिंग लेने के बाद उन्होंने अपने घर में ही मशरूम फार्मिंग के लिए पूरा सेट-अप तैयार किया। अनिमा बताती हैं कि शुरू में मशरूम के 200-300 बीज भी उन्हें कृषि विज्ञान केंद्र से ही मिले।
उनकी मेहनत और लगन का नतीजा था कि उनकी फसल भी काफी अच्छी हुई। उन्हें मशरूम बेचने के लिए सिलीगुड़ी जाना पड़ता था और बहुत बार उनकी मशरूम पूरी नहीं बिकती थी। इस समस्या से निपटने के लिए उन्होंने मशरूम की प्रोसेसिंग करके प्रोडक्ट्स बनाने शुरू किये।
उन्होंने मशरूम का अचार, पापड़ और दालेर बोरी (दाल की बड़ियाँ) बनाना शुरू किया। वह कहती हैं कि अब मशरूम से भी ज़्यादा उनके इन प्रोडक्ट्स की मांग बढ़ गयी है। खासकर कि पापड़ की, बहुत बार तो वह जितने भी पापड़ के पैकेट लेकर बाज़ार पहुँचती हैं, वह भी कम पड़ जाते हैं।
कभी दिन में दो वक़्त की रोटी के लिए भी परेशान रहने वाली अनिमा आज महीने के लगभग 30, 000 रुपये कमा रहीं हैं। उनकी यह तरक्की न सिर्फ़ उनके अपने लिए बल्कि उनके इलाके में बहुत से लोगों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत बन गयी है।
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4 . ज्योत्सना गौंड- अंगूर की खेती:
साल 1998 में ज्योत्सना सिर्फ 6 साल की थीं, जब एक दुर्घटना में उनके पिता के पैर की हड्डी टूट गयी और उन्हें 7 महीने तक अस्पताल में रहना पड़ा। ऐसे में ज्योत्सना की माँ, लता ने अपने पति, बच्चों और खेत की भी पूरी जिम्मेदारी अपने सर ले ली। लता खेत में अपने साथ ज्योत्सना को भी ले जाती। 12 साल की होते-होते ज्योत्सना ने खेत के ज्यादातर काम सीख लिए थे और वह अपनी माँ की मदद करने लगी थी।
“मैं स्कूल जाने से पहले और स्कूल से वापस आने के बाद, खेत में जाती थी। परीक्षा के दौरान भी, मैं खेत में ही पढ़ती थी, और खेती का काम भी पूरा करती थी। धीरे-धीरे मैंने खेत की पूरी ज़िम्मेदारी उठा ली, ताकि माँ को आराम करने के लिए कुछ समय मिले, ”ज्योत्सना ने टीबीआई से बात करते हुए कहा।
आखिरकार 2005 में ज्योत्सना के पिता पूरी तरह ठीक हो गए और उन्होंने खेती की बागडोर संभाल ली थी। हालातों को सुधरता देख ज्योत्सना ने अपना पूरा ध्यान पढ़ाई पर लगा दिया। अब वह इंजीनियर बनने का सपना देखने लगी। पर किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। 2010 में बेमौसम की बारिश में अपनी फसल को बचाते हुए उनके पिता फिसल कर गिर गए और उन्होंने अपना एक पैर हमेशा के लिए खो दिया।
अगले कुछ महीनों के लिए उसके पिता ने अस्पताल से ही ज्योत्सना को खेत में क्या-क्या करना है यह सिखाया, और ज्योत्सना वैसा ही करती गयी। खेत की ज़िम्मेदारी के साथ-साथ ज्योत्सना ने अपनी पढ़ाई भी पूरी की।
मास्टर्स करने के बाद उन्हें नौकरी भी मिल गयी, लेकिन डेढ़ साल नौकरी करने के बाद उन्होंने पूरी तरह से खेतों पर ध्यान देने का निश्चय किया। “अगर आप अंगूर के पौधों की, बड़े होने तक अच्छी तरह देखभाल करते हैं, तो बहुत अच्छे परिणाम आते हैं। मैं अवांछित शाखाओं को काट देती थी, बेलों को सीधा करती और ज़रूरत के हिसाब से, उन्हें पोषण देती थी। यहां बिजली एक बहुत बड़ी समस्या है। कभी-कभी हमें रात में सिर्फ कुछ घंटों के लिए ही बिजली मिलती है, इसलिए मैं पंप शुरू करने और पौधों को पानी देने के लिए पूरी रात जागती रहती,” ज्योत्सना कहती हैं।
पर ज्योत्सना की मेहनत रंग लायी और उनके खेतों से अंगूर की सामान्य से दुगुनी उपज हुई। इससे उनकी आय भी बढ़ गयी। 2018 में ज्योत्सना को ‘कृषिथोन बेस्ट वुमन किसान अवार्ड’ से सम्मानित किया गया और उसके पिता अब पहले से कहीं ज्यादा खुश हैं।
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4 . हिम्मताराम भांबू- पर्यावरण मित्र
राजस्थान के नागौर को पानी की उपलब्धता के हिसाब से डार्क जोन माना जाता है। ऐसी परिस्थितियों में यदि कोई किसान अपने खेत को एक हरे-भरे क्षेत्र में तब्दील कर दे तो क्या कहेंगे। जी हाँ, यहाँ के हिम्मताराम भांबू ऐसे ही एक किसान हैं।
‛द बेटर इंडिया’ से बात करते हुए हिम्मताराम बताते हैं, “खेती और पेड़-पौधे लगाने की पहली शिक्षा दादी नैनी देवी से मिली। दादी ने 1974 में मेरे हाथ से पुश्तैनी गाँव सुखवासी में पीपल का पौधा लगवाया था। उस वक़्त कहे गए दादी के बोल आज भी याद हैं – ‘हिमा! रूंख पनपावण सूं लांठौ दूजौ कीं पुन्न कोनी’। जब 1988 में अपने हाथ से लगाए उसी पौधे को विशाल पेड़ के रूप में देखा तो खुशी की कोई सीमा नहीं रही। लगा दादी माँ की प्रेरणा से ही यह संभव हो सका है।”
अपने नाम के अनुरूप ही हिम्मत रखते हुए हिम्मताराम ने जिले में 3 लाख 10 हजार से भी अधिक पौधे लगाने में कामयाबी हासिल की। इनमें से 80 से 90 प्रतिशत पौधे बड़े होकर पेड़ बन चुके हैं। इसके अलावा, हिम्मताराम ने एक सूखाग्रस्त गाँव हरिमा में 1999 में कर्ज लेकर 34 बीघा जमीन खरीदी और उसमें खेती करने के साथ-साथ 16 हजार से भी ज्यादा पेड़ लगा दिए। आज यह गाँव अपने नाम के अनुरूप ही ‛हरी-माँ’ मतलब हरी-भरी धरती माँ की तरह बन गया है।
उनके खेतों में आज हजारों पेड़-पौधे हैं तो ऐसे में लोग अक्सर सोचते हैं कि खेती से उपज कितनी होती होगी। लेकिन जब जानेंगे कि उपज में कोई कमी नहीं होती तो आश्चर्य होगा। हिम्मताराम अपने खेत में इतने पेड़ों की जमीन छोड़कर खेती करते हैं और हर साल 80 से 100 क्विंटल तक गेहूं, 50 से 60 क्विंटल तक बाजरा उपजा लेते हैं। इन्हीं पेड़ों की छाया तले उन्हें 100 क्विंटल मूंग और 25 क्विंटल तिल भी मिलते हैं।
हिम्मताराम ने अलग-अलग इनोवेटिव तरीकों से न सिर्फ अपने खेतों को हरा-भरा रखा हुआ है, बल्कि वे बेजुबान जीव-जन्तुओं का भी सहारा हैं। उनके खेत में तो अकेले 300 मोरों का ही बसेरा है, दूसरे पक्षियों की तो गिनती ही नहीं।
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इन सभी किसानों के संघर्ष से सफलता तक की ये कहानियाँ हम सबके लिए मिसाल है। आने वाले साल में भी हम इसी तरह और भी इनोवेटिव किसानों की कहानियां आप तक पहुंचाते रहेंगे। उम्मीद है कि आप सभी पाठकों का प्रेम भी इसी तरह बना रहेगा।
विवरण – निशा डागर
संपादन – मानबी कटोच