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एक चम्मच इतिहास ‘लिट्टी-चोखा’ का!

लिट्टी चोखा, एक ऐसी डिश जो शायद ही किसी को पसंद ना हो। आटे की लोई का गोला, जिसमें सत्तू भरकर जलते अलाव में, कोयले या गोबर के उपले की आँच पर सेंक लिया जाता है, उसे लिट्टी कहते हैं और इसके साथ आग पर पके हुए आलू, बैंगन और टमाटर जैसी सब्जियों का भर्ता बनाकर उनमें नमक-तेल डालकर तैयार किया जाता है चोखा।

इस तरह बनती है बिहार राज्य की सिग्नेचर डिश, स्वादिष्ठ लिट्टी चोखा! यह दुनिया के सबसे आसानी से तैयार होने वाले व्यंजनों में से एक है। इसे बनाने के लिए न तो ढेर सारे बर्तन चाहिए, न ही बहुत सारे मसाले और तेल, यहां तक कि पानी भी बहुत कम लगता है।

इसकी एक खासियत यह भी है कि यह कई दिनों तक खराब नहीं होता, लेकिन लोग इसे ताज़ा और गर्मा-गर्म खाना ही पसंद करते हैं। आमतौर पर सर्दी के दिनों में लोग अलाव सेंकते हुए घर के बाहर ही रात के खाने का इंतज़ाम भी कर लेते हैं। 

सफ़र का साथी!

लिट्टी, बिहारी महिलाओं की रसोई का हिस्सा कम, और पुरुषों व यात्रियों का साथी ज़्यादा रही है। लिट्टी-चोखा ऐसी चीज़ है, जिसे आप सुविधा और उपलब्ध सामग्री के हिसाब से जैसे चाहें वैसे बना सकते हैं। अगर घी है तो अच्छी बात है, अगर अचार और चटनी है तो और भी अच्छा है, अगर नहीं भी है, तो भी कोई बात नहीं। 

यह आम आदमी का भोजन है। पिछले कुछ सालों में बिहारी कामगारों के देश भर में फैलने के बाद धीरे-धीरे इसके ठेले बिहार से बाहर भी दिखाई देने लगे हैं। 1980 के दशक तक दिल्ली में लिट्टी-चोखा सड़क किनारे मिलना मुश्किल था, लेकिन अब यह देश की राजधानी में भी दिखने लगा है और लोग इसे काफ़ी पसंद भी करते हैं। 

लिट्टी चोखा: फ़ूड फॉर सर्वाइवल

लिट्टी चोखा

माना जाता है कि लिट्टी चोखा का गढ़, मगध (गया, पटना और जहानाबाद वाला इलाका) है। चंद्रगुप्त मौर्य, मगध के राजा थे जिनकी राजधानी पाटलिपुत्र थी, लेकिन उनका साम्राज्य अफ़ग़ानिस्तान तक फैला था, कुछ जानकारों का कहना है कि चंद्रगुप्त मौर्य के सैनिक युद्ध के दौरान लंबे रास्तों में आसानी से लिट्टी जैसी चीज़ खाकर आगे बढ़ते जाते थे। 18वीं सदी की कई किताबों में लंबी तीर्थ यात्रा पर निकले लोगों का मुख्य भोजन लिट्टीचोखा और खिचड़ी बताया गया है। 

ऐसे उल्लेख भी मिलते हैं कि तात्या टोपे और झाँसी की रानी के सैनिक बाटी या लिट्टी को पसंद करते थे, क्योंकि उसे पकाना बहुत आसान था और इसे बनाने के लिए बहुत ज़्यादा सामान की ज़रूरत भी नहीं पड़ती थी। 1857 के विद्रोहियों के लिट्टी खाकर लड़ने के किस्से भी मिलते हैं। सदियों से बिहार के किसान खेत की पहरेदारी करते हुए वहीं लिट्टी बनाकर खा लिया करते थे, इसलिए इसे ‘फ़ूड फॉर सर्वाइवल’ भी कहा गया है।  

संपादन- अर्चना दुबे

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