ऐसे कई तरीके हैं, जिन्हें अपनाकर हम एक सस्टेनेबल जीवन जी सकते हैं। ऑर्गेनिक भोजन से लेकर, घर में इस्तेमाल होने वाली चीजों तक, आधुनिक दुनिया में आउट-ऑफ-द-बॉक्स सस्टेनेबल विकल्प ढूंढना, एक नई बात लगती है।
जबकि, सच्चाई तो यह है कि यह कोई नया विकास नहीं है। खासतौर पर सस्टेनेबल आर्किटेक्चर और डिजाइन की बात करें, तो हमारी प्राचीन निर्माण तकनीक ज्यादा कमाल की है, जिससे काफी कुछ सीखा जा सकता है।
ऐसा ही एक उदाहरण है कोब (Cob), जो प्राकृतिक चीज़ों से बना एक तरह का मिट्टी का घर होता है। इसे कच्ची मिट्टी, पानी और भूसे जैसे रेशेदार पदार्थों के एक मिश्रण से बनाया जाता है। सालों से ऐसी इमारतें बनती चली आ रही हैं। मिस्र में नील नदी के किनारे हो, पेरू में एंडीज पर्वत या तिब्बत की चोटी पर, कई जगह सार्वजनिक और निजी घर बनाने के लिए कच्ची मिट्टी का उपयोग हजारों सालों से किया जा रहा है, जो आज तक जारी है। दुनियाभर में तक़रीबन 1.7 बिलियन से अधिक लोग मिट्टी के घरों में रहते हैं।
कच्ची मिट्टी का उपयोग, सबसे पुरानी और सबसे लोकप्रिय निर्माण सामग्री में से एक है। मानवविज्ञानी क्लाउड लेवी-स्ट्रॉस (Claude Lévi-Strauss) ने भी 1964 में इसका उल्लेख किया था, जिसमें उन्होंने हमारे भोजन, दवा और वास्तुकला से लेकर किसी भी क्षेत्र में विकास के लिए, मिट्टी पर निर्भरता को जरूरी बताया था। उन्होंने सूरज के नीचे सूखने और कठोर होने वाली कच्ची मिट्टी को किसी भी कंस्ट्रक्शन के लिए एक सस्टेनेबल और सालों-साल चलने वाला विकल्प बताया था।
कोब हाउस के कई फायदे हैं, जिसमें से सबसे अच्छी बात यह है कि कोब से बनी दीवारों के अंदर का तापमान सामान्य रहता है और जब इसकी छत बनाने के लिए फूस या टेराकोटा की टाइल्स का इस्तेमाल किया जाता है, तो ठंडे से ठंडे वातावरण में भी अंदर का तापमान नियंत्रित रहता है।
कोब घर का एक उदाहरण, आज भी हिमाचल प्रदेश की सिप्टी घाटी में मौजूद है। यहां की मशहूर ‘ताबो मड मोनेस्ट्री’ को 996 CE में तिब्बती बौद्ध ट्रांसलेटर, रिनचेन ज़ंगपो (Rinchen Zangpo) ने Yeshe-Ö राजा के कहने पर बनाया था। यह मोनेस्ट्री भारत में सबसे पुरानी कोब संरचना है, जिसे बनाने में मुख्य रूप से कच्ची मिट्टी का उपयोग किया गया है। इतना ही नहीं, यहां के पारंपरिक घरों की फ्लैट छतों में भी मिट्टी ही इस्तेमाल की गई है।
ताबो गांव में मौजूद यह मोनेस्ट्री, हिमालय में सबसे पुरानी बौद्ध संरचना है, जो आज भी इस्तेमाल की जा रही है। इसे आमतौर पर ‘हिमालय के अजंता’ के रूप में जाना जाता है। इसकी दीवारों पर अलग-अलग चित्रों को भी बनाया गया है।
कई पौराणिक कथाओं और आध्यात्मिकता में डूबी, इस मोनेस्ट्री की रंगीन दीवारें काफी ज्यादा मजबूत हैं। हिमालय का कठोर मौसम, विशेष रूप से सर्दियों की हवाएं हों या भूकंप, इसने डटकर सबका सामना किया है।
केवल साल 1975 में आए एक भूकंप ने इस मठ की संरचना को काफी नुकसान पहुंचाया था, लेकिन इसकी इमारत की बेहतर गुणवत्ता ने इसे गिरने नहीं दिया। बाद में साल 1983 में, 14वें दलाई लामा ने इसे फिर बनाने का काम शुरू करवाया था।
फिलहाल, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ((ASI), इसे देश के एक राष्ट्रीय ऐतिहासिक खजाने की तरह संभाल रहा है। मठ को सुरक्षित बनाए रखना, एक बड़ा और जिम्मेदारी वाला काम है।
खासतौर पर इसके अंदर के हिस्से में दीवारों पर पेंटिंग्स बनी हैं, जिसका ऐतिहासिक महत्व भी है। सदियों से कोब की मजबूत दीवारों ने अपने भीतर की इस सुंदरता को संभालकर रखा है। हालांकि, आज इस मठ को जिन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, वे पहले की तुलना में अधिक गंभीर हैं और इसका सबसे बड़ा कारण है जलवायु परिवर्तन। सिप्टी घाटी में होने वाली तेज बारिश से मठ की दीवारों पर बनी कलाकृतियां धुंधली होती जा रही हैं।
यूएन वर्ल्ड कमीशन ने पर्यावरण और विकास को लेकर चिंता जताई है। उन्होंने भविष्य में ज्यादा से ज्यादा प्राकृतिक वस्तुओं का उपयोग करके सस्टेनेबल कंस्ट्रक्शन पर जोर देने की वकालत की है। उनके अनुसार, पुरानी शैली से प्रेरणा लेकर हमें बिना प्रकृति को नुकसान पहुचाएं, मजबूत और अच्छी इमारतें बनाने पर ध्यान देना होगा।
मूल लेख- Ananya Barua
संपादन- अर्चना दुबे
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