‘जल, जंगल और ज़मीन,’ यही भारत के आदिवासियों की पूंजी है। उनका मानना है कि उन्होंने जंगलों को नहीं लगाया बल्कि जंगलों ने उन्हें बनाया है। प्रकृति को ही अपना सबकुछ मानने वाले आदिवासी ब्रिटिश काल से ही जंगलों की लड़ाई लड़ते हुए आ रहे हैं। अपने जंगलों के लिए न जाने कितने ही आदिवासियों ने खुद को अंग्रेजों के हाथों कुर्बान किया था और आज भी ऐसे आदिवासी रक्षकों की कमी नहीं, जो अपना पूरा जीवन प्रकृति के लिए अर्पित कर चुके हैं।
आज हम आपको रू-ब-रू कराएंगे एक ऐसी ही शख्सियत से, जिन्होंने जंगलों के संरक्षण को ही अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया। पिछले 5 दशकों से वह बस्तर में अपने जंगलों को सहेज रहे हैं। उनके कार्यों का विस्तार कुछ ऐसा है कि छत्तीसगढ़ सरकार ने नौंवी कक्षा के सामाजिक विज्ञान विषय में उनकी जीवनी को पाठ्यक्रम में शामिल किया है।
हम बात कर रहे हैं बस्तर जिले में संध करमरी गाँव के रहने वाले दामोदर कश्यप की। भतरा आदिवासी समुदाय से आने वाले 71 वर्षीय दामोदर ने 35 साल तक ग्राम सरपंच का पद संभाला। तकनीक के इस जमाने में जहां आज सब कुछ डिजिटल होता नज़र आ रहा है, वहां दामोदर फ़ोन तक नहीं रखते। जब उनके नंबर की खोजबीन हुई तो उनके गाँव के एक 21 साल के युवक, रूप सिंह का फोन नंबर मिला।
रूप सिंह के माध्यम से दामोदर कश्यप से बातचीत हुई। रूप को जब फ़ोन किया तो उन्होंने बताया कि दामोदर अक्सर अपने जंगल में ही मिलते हैं।
लगभग 300 एकड़ में फैले उनके गाँव के जंगल में कोई भी गुम हो सकता है। लेकिन दामोदर वहां के एक-एक पेड़-पौधे को जानते हैं क्योंकि उनकी रखवाली के लिए उन्होंने अपनी बहुत-सी रातों की नींद को गंवाया है। न सिर्फ दामोदर बल्कि पूरा गाँव बारी-बारी से जंगलों की रक्षा की ज़िम्मेदारी उठाता है। दामोदर कश्यप से जब बात हुई तो पता चला कि वह एक किसान परिवार से ताल्लुक रखते हैं और उनकी प्रारम्भिक शिक्षा गाँव में ही हुई।
पढ़ने के शौक के साथ-साथ उन्हें अपने जंगल से भी बहुत प्यार था। उनका बहुत वक़्त पेड़-पौधों के साथ बीतता था। आठवीं तक की पढ़ाई के बाद वह गाँव से कुछ किलोमीटर दूर जगदालपुर में पढ़ने के लिए गए। वहां हॉस्टल में रहकर ही उन्होंने अपनी ग्रैजुएशन पूरी की। हालांकि, उनके पूर्वजों के कुछ संस्कार ऐसे थे कि बाहर नौकरी करने की बजाय उन्होंने अपने गाँव की सेवा का ही मन बनाया। अपनी खेती-बाड़ी को संभालने के लिए वह ग्रैजुएशन के बाद अपने गाँव की पहुँच गए। काफी सालों तक गाँव से वह दूर रहे।
“जब मैं गाँव वापस लौटा और वहीं पर रहने लगा तो पाया कि हमारे जंगल तो बचे ही नहीं हैं। मेरे बचपन में कोसों दूर तक सिर्फ पेड़ ही पेड़ दिखा करते थे लेकिन अब सिवाय ठूंठ के कुछ नहीं था। यह सब कुछ वन-विभाग तो कुछ हमारे अपने लोगों की कारस्तानी थी। कुछ तो जंगल माफिया जंगलों को लूटते रहे और सभी कीमती लकड़ियों के पेड़ सफा-चट हो गए। बाकी घर में ईंधन के लिए गाँव के लोगों ने भी पेड़ काटने में कोई कसर नहीं छोड़ी,” उन्होंने बताया।
दामोदर जंगल के जिस हिस्से में गए वहीं उन्हें सिर्फ ठूंठ ही ठूंठ नज़र आए। ज़मीन बंजर होने लगी थी। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करें। पर उन्होंने मन बना लिया था कि वह जंगल की ज़मीन को फिर हरा-भरा करके ही दम लेंगे। उन्होंने सबसे पहले जागरूकता अभियान शुरू किया। जंगल से लकड़ियाँ काटकर ले जाने वाली महिलाओं को रोका और उन्हें समझाया कि अगर आगे हमें लकड़ियाँ चाहिए तो उसके लिए हम सबको वन लगाना होगा। कुछ इस तरह उनकी शुरुआत हुई।
साल 1976 में उन्होंने गाँव के सरपंच का चुनाव लड़ा और वह जीत गए। इसके बाद उनके काम को और अधिक बल मिला। उन्होंने घर-घर जाकर लोगों को इकट्ठा किया। उन्हें समझाया कि अगर आज हम जंगल बचायेंगे तभी आने वाली पीढ़ी के लिए कुछ कर सकते हैं। जंगल की रक्षा के लिए उन्होंने ‘ठेंगापाली पद्धिति’ का अनुकरण किया।
दामोदर बताते हैं, “ठेंगा का मतलब होता है खास बांस से बना ‘डंडा’ और पाली का मतलब होता है ‘बारी।’ इस डंडे पर बहुत सारे कपड़े बांधे जाते हैं, ये सभी कपड़े हमारी देवी का प्रतीक होते हैं। इस डंडे को लेकर हर दिन गाँव से कोई न कोई जंगल की पहरेदारी करता है ताकि कोई भी गलत तरीके से जंगल में न घुसे। अपनी बारी पूरी होने के बाद वह व्यक्ति इस डंडे को अपने पड़ोसी के घर के आगे रख देता है। दूसरे दिन उस पड़ोसी की बारी होती है और फिर वह तीसरे पड़ोसी के यहाँ डंडे को रखता है। इस तरह बारी-बारी से गाँव के सभी लोग जंगल की रखवाली करते हैं।”
ठेंगापाली के साथ-साथ गाँव वालों ने और भी कई नियम बनाए, जैसे:
1. कोई भी जंगल में पशुओं को चराने के लिए नहीं भेजेगा।
2. कोई भी मनमानी से जंगल नहीं काटेगा।
3. घर बनाने के लिए, घरेलू काम के लिए या सामाजिक काम के लिए सूखी लकड़ी काट सकते हैं। गीली लकड़ी काटने पर पाबंदी रहेगी।
4. यदि किसी ने भी नियमों का उल्लंघन किया तो उन पर 500 रुपये का जुर्माना लगेगा।
5. जंगलों से सिर्फ संसाधन लिए नहीं जाएंगे बल्कि हर कोई लगातार पौधारोपण करके उनकी देखभाल भी करेगा।
सबसे पहले दामोदर ने ग्रामीणों के साथ मिलकर गाँव के आसपास की 300 एकड़ ज़मीन के जंगल का संरक्षण किया। वहां पौधरोपण किया गया और साथ ही बचे-कुचे पेड़ों को सहेजा गया। इस जंगल को बाड़लाकोट के नाम से जाना जाता है। मावलीकोट का जंगल भी 100 एकड़ में फैला हुआ है।
इस जंगल में आदिवासियों के ग्राम देवी व देवता हैं। यह जंगल ग्राम पंचायत संधकरमरी के बीचोंबीच स्थित है। यह एक सदाबहार वन है, जिसमें विभिन्न प्रकार के वन्य प्राणी निवास करते हैं, जैसे बंदर, खरगोश, चमगादड़ इत्यादि। यहां कई प्रकार के औषधीय पौधे व बहुमूल्य जड़ी-बूटियां भी बड़ी मात्रा में उपलब्ध हैं। इसके अलावा करीब 200 एकड़ का जंगल है, जो धौड़ाडोंगरी, करापकना और डाउलसोरा क्षेत्र में फैला है।
इस तरह से दामोदर ने 600 एकड़ ज़मीन पर हरा-भरा जंगल खड़ा कर दिया। इन जंगलों से आदिवासी बहुल क्षेत्रों को खाद्यान्न के साथ-साथ अन्य बहुमूल्य प्राकृतिक चीजें भी मिलती हैं। इसके अलावा, सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि संध करीमरी और इसके आसपास के गांवों की आने वाली पीढ़ी इस प्राकृतिक संपदा से वंचित नहीं रहेगी।
दामोदर के अनुसार, मोतीगांव, सिवनागुड़ा, गोईगुड़ा, कून्ना, सिरसियागुड़ा, केरागांव के लोगों ने भी ठेंगापाली पद्धति से जंगल बचाया है। इससे इलाके का भूजल स्तर बढ़ा। जैव विविधता और पर्यावरण का संरक्षण व संवर्धन हुआ है।
दामोदर को उनके इस काम के लिए 2014 में स्विट्जरलैंड के पीकेएफ ( पाल के. फेयरवेंड फाउंडेशन) नामक संस्था द्वारा और वर्ष 2015 में ही सीसीएस संस्था ( कंजरवेशन कोर सोसायटी) द्वारा सम्मानित किया गया। लेकिन किसी भी सम्मान से ज्यादा ख़ुशी उन्हें तब हुई, जब उनके काम को स्कूल के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया। राज्य की भावी पीढ़ी अपने पुरखों की मेहनत को जाने और फिर खुद भी उसी राह पर चले, इससे बेहतर और क्या हो सकता है!
कवर फोटो साभार: अविनाश प्रसाद
यह भी पढ़ें: जानिए कैसे भागीरथ प्रयासों से सूखाग्रस्त गाँव बन गया देश का पहला ‘जलग्राम’