“… And it takes a village to raise a child.”
यह अंग्रेजी में बहुत पुरानी कहावत है। अगर हिंदी में कहा जाये तो मतलब होगा कि एक बच्चे के पालन-पोषण में पूरा गाँव भूमिका निभाता है। बच्चा कोई भी हो, किसी का भी हो, उसकी परवरिश की ज़िम्मेदारी पूरे समाज के कंधों पर होती है।
तो अगली बार किसी भी झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले बच्चे या फिर फूटपाथ पर भीख मांगते, चोरी करते हुए बच्चे को देखकर, यह कहने की बजाय कि इन बच्चों का कोई भविष्य नहीं, इनके माँ-बाप ऐसे थे तो ये भी ऐसे ही होंगें; खुद से सवाल कीजियेगा कि क्या आप उस बच्चे के जीवन में कोई बदलाव ला सकते हैं? और यदि हाँ, तो बेहिचक वह कदम आगे बढ़ाइये, क्योंकि एक बेहतर कल के लिए हमें आज बेहतर कदम उठाने होंगें।
ऐसा ही एक बेहतर और नेक कदम छत्तीसगढ़ में बिलासपुर के सेंट्रल जेल में एक प्रशासनिक अधिकारी ने उठाया। और उनके उस एक कदम ने एक छह साल की बच्ची की पूरी दुनिया बदल दी।
महज छह साल की ख़ुशी (बदला हुआ नाम) जेल की सलाखों के पीछे रहने के लिए इसलिए मजबूर है क्यूँकि उसके पिता यहाँ पर सजा काट रहे हैं। ख़ुशी की माँ का देहांत उसके जन्म के कुछ समय बाद ही हो गया था। घर में कोई और नहीं था, जो ख़ुशी की देखभाल कर सके। इसलिए नन्हीं ख़ुशी को पिता के पास जेल में ही रहना पड़ा। ख़ुशी चंद महीनों की ही थी जब यहाँ आई थी। उसकी देखभाल का ज़िम्मा प्रशासन ने महिला कैदियों को दे दिया। धीरे-धीरे वक़्त गुजरा और ख़ुशी जेल में ही चलने वाले प्ले स्कूल में पढ़ने लगी।
बीते दिनों, जब बिलासपुर के कलेक्टर डॉ. संजय अलंग ने जेल का दौरा किया, तो उनकी मुलाक़ात इस बच्ची से हुई। ख़ुशी ने उन्हें बताया कि वह जेल की चारदीवारी से बाहर निकलकर पढ़ना चाहती है। बाकी बच्चों की तरह बाहर के स्कूल में जाना चाहती है।
शिक्षा के प्रति इस बच्ची का लगाव देखकर, आईएएस अफ़सर डॉ. संजय अलंग ने इस बारे में कुछ करने की ठानी। उन्होंने जेल के अधिकारियों से बात करके शहर के किसी अच्छे स्कूल में ख़ुशी का दाखिला करवाने का फ़ैसला किया। उनकी इस पहल में उन्हें लायंस क्लब का भी सहयोग मिला और सबकी मदद से जैन इंटरनेशनल स्कूल में ख़ुशी का एडमिशन करवाया गया। साथ ही स्कूल के हॉस्टल में उसके रहने की व्यवस्था भी की गयी है।
स्कूल संचालकों का कहना है कि वे खुद ख़ुशी की पढ़ाई और रहन-सहन का खर्च उठाएंगें। गर्मी की छुट्टियों के बाद, जब स्कूल खुले, तो खुद कलेक्टर संजय अलंग ख़ुशी को अपनी गाड़ी में बिठाकर स्कूल छोड़कर आये। ख़ुशी के लिए अपने पिता से दूर जाना आसान नहीं था और अपनी बेटी को भेजते समय उसके पिता रो भी पड़े, लेकिन वह जानते हैं कि उनकी बेटी की भलाई के लिए यह सब है।
स्कूल पहुँचने पर सबने बहुत प्यार से ख़ुशी का वेलकम किया। स्कूल संचालकों ने आईपीएस संजय को भरोसा दिलाया है कि ख़ुशी पर स्कूल व हॉस्टल, दोनों ही तरफ से पूरा ध्यान दिया जायेगा। बड़े स्कूल में पढ़ने के अपने सपने को पूरा होता देख, ख़ुशी की ख़ुशी का कोई ठिकाना ही नहीं था।
द बेटर इंडिया से बात करते हुए डॉ. संजय ने बताया कि उस जेल के लगभग 27 बच्चों को उनकी उम्र के अनुसार अलग-अलग शिक्षा अभियानों के तहत दाखिला दिलवाया गया है। 11 बच्चे अभियान शाला में, तो 12 बच्चों को मातृ छाया और 4 बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में दाखिला दिलाया गया है। ताकि इन बच्चों के आने वाले कल पर इनके अतीत का अँधेरा न हो।
यह पहली बार नहीं है जब डॉ. अलंग इस तरह के नेक काम के लिए आगे आये हैं। समाज के हित में उन्होंने कई पहल किये हैं, जिनके लिए उन्हें समय-समय पर सम्मानित भी किया जाता रहा है। एक बेहतर प्रशासनिक अधिकारी होने के साथ-साथ वे एक उम्दा लेखक व कवि भी हैं। उनकी लिखी हुई कई किताबें और कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं- जिनमें ‘छत्तीसगढ़: इतिहास और संस्कृति’, ‘छत्तीसगढ़ के हस्तशिल्प’, ‘शव’ और ‘पगडंडी छिप गयी थी’ आदि शामिल हैं।
उन्हें अपनी किताबों और कविताओं के लिए, ‘राष्ट्रकवि दिनकर सम्मान,’ ‘भारत गौरव सम्मान,’ ‘सेवा शिखर सम्मान,’ आदि से नवाज़ा गया है।
द बेटर इंडिया के माध्यम से डॉ. अलंग लोगों को संदेश देते हुए कहते हैं, “इस तरह के सकारात्मक बदलाव आम नागरिकों के साथ से ही संभव हो सकते हैं। यदि और भी लोग इन बच्चों के बैकग्राउंड को न देखते हुए, इनकी ज़िंदगी संवारने के लिए आगे आए, तो यक़ीनन हम इन बच्चों को एक बेहतर कल दे सकते हैं।”
वे लोगों से ख़ुशी जैसे और भी बच्चों के लिए आगे आने का आग्रह करते हैं।
आईएएस अफ़सर डॉ. संजय अलंग द्वारा बिलासपुर के विकास के लिए किये जा रहे कार्यों की लगातार अपडेट के लिए यहाँ पर क्लिक करें!
और यदि कोई इस तरह की नेक पहल में उनका साथ देना चाहता है तो फेसबुक या फिर ट्विटर के ज़रिए उनसे जुड़ सकता है।