Site icon The Better India – Hindi

45 सालों से जंगल में आदिवासियों के बीच रहकर उनकी ज़िन्दगी सँवार रहे हैं यह पूर्व वायु सेना कर्मी

living tribal life

क्या आपने ऐसे किसी शख्स के बारे में पढ़ा है, जिसने एयरफोर्स में नौकरी की हो, राइफल शूटिंग में महारत हासिल की हो लेकिन अब सबकुछ छोड़कर जंगल में आदिवासियों के बीच रहकर जीवन व्यतीत कर रहा हो? आज हम आपको एक ऐसे ही शख्स से मिला रहे हैं, जिनका नाम है विलास मनोहर।

विलास मनोहर का संबंध पुणे से है। 1944 में इनका जन्म हुआ। ग्यारहवीं तक पढ़ाई की, जो उस समय काफी मानी जाती थी। इसके बाद वायरलेस ऑपरेटर के रूप में वायुसेना से जुड़े और भारत-चीन युद्ध (1962) में सेवाएँ भी दीं। वायुसेना से दिल ऊब गया तो अपने घर पुणे लौट आए और एयर कंडीशनर बनाने वाली एक कम्पनी में काम करने लगे। कुछ साल बाद इन्होंने खुद का रेफ्रीजरेशन का व्यवसाय शुरु किया। इस दौरान दोस्तों के साथ शिकार पर जाना और ग्लाइडिंग करना इनके शौक थे। बाद में वह रायफल शूटिंग क्लब से जुड़े और 1973 में नेशनल शूटिंग कम्पटीशन में महाराष्ट्र का प्रतिनिधित्व भी किया था।

विलास मनोहर

बात तब की है विलास मनोहर लगभग 25 साल के थे। सब कुछ ठीक चल रहा था। एक दिन अकस्मात कुछ ऐसा घटा कि उनका जीवन हमेशा के लिए बदल गया। पुणे के नज़दीक एक प्रसिद्ध तीर्थस्थान है आलंदी। वहाँ वह अपने दोस्तों के साथ जाया करते थे। लेकिन यह उपक्रम  सिर्फ भगवत दर्शन के लिए नहीं था। वह अपने दोस्तों के साथ घर से 13 किमी दूर आलंदी तक पैदल जाते, वहाँ कुछ वक्त बिताते, दर्शन करते और फिर बस से वापस आते।

एक दिन की बात है। मन्दिर के पास कुछ कुष्ठरोगी भीख माँग रहे थे। जब विलास अपने दोस्तों के साथ एक दुकान से प्रसाद खरीद रहे थे तो साथ गए एक दोस्त ने कहा, “दुकानदार से छुट्टे पैसे (सिक्के) मत लो, उसके बदले हम सबके हिस्से का भी प्रसाद ले लो।”

विलास बताते हैं, “यह सुनकर मुझे कुछ समझ नहीं आया, पर उस वक्त दोस्त की बात मानकर सिक्के नहीं लिए। बाद में दोस्त ने इसका कारण बताते हुए मुझसे कहा कि कुष्ठरोगियों को जो पैसे लोग भीख में देते हैं, उन छुट्टे पैसों को वो दुकानदारों को देकर नोट ले लेते हैं। और फिर वही पैसे दुकानदार रेज़गारी के रूप में हमें देते हैं। उन सिक्कों को छूने से हमें भी कुष्ठरोग हो सकता है।”

यह जानकर विलास को धक्का लगा और उन्होंने इस पर सोचना शुरु किया। कुष्ठरोगियों के प्रति इस तरह की धारणाएँ लोगों में आम थीं, परंतु विलास मनोहर का मन इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं था।

उन्होंने कहा, “वह मेरे जीवन का निर्णायक समय था। मैंने कुष्ठरोगियों के बारे में, इस बीमारी के बारे में और उसके विषय में फैली धारणाओं के बारे में और ज़्यादा जानने का फैसला किया।”

काफी जद्दोजहद के बाद उन्हें बाबा आमटे के बारे में जानकारी मिली, जो वह महाराष्ट्र के चन्द्रपुर ज़िले में कुष्ठरोगियों के साथ काम कर रहे हैं। इसके बाद वह बाबा आमटे की संस्था आनन्दवन पहुँच गए। पर बाबा वहाँ नहीं थे। वह आनन्दवन के दूसरी परियोजना स्थल, सोमनाथ गए हुए थे। विलास वहाँ पहुँच गए और बाबा आमटे से मिले। वहाँ से बाबा हेमलकसा जाने वाले थे, जहाँ उनके छोटे बेटे डॉ. प्रकाश और उनकी बहु, डॉ. मन्दाकिनी आमटे ने बेहद पिछड़े हुए इलाके (भामरागढ़ तालुका, ज़िला गढ़चिरोली) में माडिया-गोंड आदिवासियों के बीच जाकर काम करना शुरु किया था।

आदिवासियों को खेती के गुर सिखाते विलास मनोहर

प्रकाश ने अपनी मेडिकल की पढ़ाई पूरी की ही थी कि बाबा आमटे उन्हें एक दिन घुमाने के लिए भामरागढ़ के जंगलों में ले गए। यह स्थान पूर्वी महाराष्ट्र के गढचिरोली ज़िले के दक्षिणी छोर पर मुख्यधारा से कटा हुआ एक पिछड़ा इलाका था। वहाँ बाबा ने माडिया-गोंड आदिवासियों के लिए कुछ करने की इच्छा जाहिर की। बाबा के इस सपने को साकार करने का संकल्प डॉ. प्रकाश आमटे ने किया। पत्नी डॉ. मन्दाकिनी के साथ डॉ. प्रकाश ने 1973 में भामरागढ के नज़दीक लोक बिरादरी प्रकल्प की स्थापना की। इसकी शुरुआत अस्पताल के जरिए हुई, बाद में यहाँ आदिवासी बच्चों के लिए आवास का कार्य भी शुरु हुआ।

विलास मनोहर कहते हैं, “बाबा के साथ ट्रक में हेमलकसा पहुँचा। रास्ते की हालत बेहद खराब थी। वहाँ तब कुछ नहीं था। मिट्टी और पत्तों की बनी दो-तीन झोंपड़ियाँ थी।”

दो दिन हेमलकसा में रहकर विलास घर लौट गए। लेकिन बाबा आमटे के व्यक्तित्व और काम ने उन्हें ऐसा सम्मोहित किया कि फिर घर लौटकर भी मन नहीं लगा। कुछ ही महीनों बाद (1975) में वह लोक बिरादरी प्रकल्प में डॉ. प्रकाश आमटे के साथ काम करने के लिए हेमलकसा आ गए। वहाँ चुनौतियाँ कम नहीं थी। वहाँ के माडिया-गोंड आदिवासी अंधविश्वास और अज्ञानता के दुष्चक्र में फँसे हुए थे। बीमार होने पर अस्पताल आने के बदले झाड़-फूँक कराते थे।

वह बताते हैं, “प्रकाश और मंदा माडिया भाषा सीख रहे थे, मैंने भी उनके साथ माडिया सीखनी शुरु की। धीरे-धीरे अस्पताल में लोग आने लगे। अस्पताल में मरीजों की सेवा करने के साथ-साथ प्रशासकीय काम भी किया। अस्पताल में मैंने 8-10 साल काम किया।”

डॉ. प्रकाश आमटे को जानवरों से बहुत प्यार था। भालू के एक अनाथ मादा बच्चे को उन्होंने शिकार होने से बचाया और अपने पास ले आए, उसका नाम रानी रखा था। इस तरह लोक बिरादरी प्रकल्प में वन्य प्राणी अनाथालय (आमटेज़ एनिमल आर्क) शुरु हुआ।

अनाथ पशु के पास विलास जी

विलास मनोहर ने बताया कि जब वह हेमलकसा पहुँचे तो यहाँ काफी जानवर थे। डॉ. प्रकाश के साथ विलास भी वन्य प्राणी अनाथालय में तेन्दुआ, शेर, भालू, हिरन, साँप जैसे जानवरों की देखभाल करने लगे। वन्य प्राणियों को साथ रिश्तों को लेकर विलास मनोहर ने “नेगल” शीर्षक से किताब लिखी जो मराठी से हिन्दी, मणिपुरी, अँग्रेज़ी और फ्रेंच में अनुदित हो चुकी है। नेगल यहाँ रहे एक तेन्दुए का नाम था, जो बचपन से लोक बिरादरी प्रकल्प में सबके साथ घुलमिलकर रहा, लेकिन साँप काटने से उसकी मौत हो गई। नेगल का प्रथम संस्करण 1990 में छपा था। अब तक इसके कई संस्करण छप चुके हैं। नेगल का दूसरा भाग भी प्रकाशित हुआ है।

विलास मनोहर ने अगली किताब आदिवासी जीवन और नक्सलवाद को लेकर लिखी है, जिसका शीर्षक है – “एका नक्षलवाद्याचा जन्म” (एक नक्सलवादी का जन्म)। इस उपन्यास के बारे में वह कहते हैं, “आदिवासी समाज और नक्सलियों के बारे में हम सब वही जानते हैं जो टेलीविज़न में दिखाया जाता है और अखबार में छापा जाता है। जबकि सच कुछ और होता है। आदिवासी जीवन की कठिनाइयों और चुनौतियों को शहरी लोग नहीं जान पाते। इसलिए मैंने यह किताब लिखी ताकि लोग हकीकत जान सकें।”

1983 में पहली बार छपी इस किताब के अब तक नौ संस्करण छप चुके हैं। इन दिनों वह इस किताब का दूसरा भाग लिख रहे हैं। विलास मनोहर बाबा आमटे के भारत जोड़ो साइकिल यात्रा में भी शामिल थे। जो देश के उत्तर से दक्षिण तक और फिर पूरब से पश्चिम तक हुई थी। इसके अलावा वह नर्मदा बचाओ आन्दोलन के दौर में भी बाबा के साथ रहे। बाबा आमटे की जीवन पर विलास ने एक किताब “मला (न) कळलेले बाबा” (मुझे (न) समझ आए बाबा) भी लिखी है।

पुणे की आरामदायक ज़िन्दगी छोड़कर विलास मनोहर ने जंगल में आदिवासियों और वन्य प्राणियों के बीच अपनी सारी ज़िन्दगी बिताई। इस बीच उनका विवाह बाबा आमटे की बेटी रेणुका से हुआ। दोनों की उम्र में 11 साल का फासला है। रेणुका शुरु से ही लोक बिरादरी प्रकल्प में रही हैं। आजकल वह वहाँ के आवासीय स्कूल में आदिवासी बच्चों को पढ़ाती हैं। डॉ. प्रकाश के साथ विलास का रिश्ता दोस्ती से बढ़कर है। आज 76 साल की उम्र में विलास मनोहर की ज़िन्दादिली और तन्दुरुस्ती कायम हैं। लोक बिरादरी प्रकल्प, हेमलकसा में सब लोग प्यार से रेणुका को “आत्या”, यानी बुआ और विलास को  “आतोबा”, यानी फूफा कहते हैं।

रेणुका आत्याः सामूहिक किचन में सहयोग करते हुए

लोक बिरादरी प्रकल्प को काम करते हुए लगभग 45 साल हो चुके हैं। माडिया-गोंड आदिवासी पहले अन्धविश्वासों से घिरे हुए थे, आज वे बीमारी का ठीक से इलाज कराने के लिए अस्पताल आते हैं और अपने बच्चों को पढ़ने के लिए स्कूल भेजते हैं। पहले उनका जीवन सिर्फ जंगल और शिकार पर आश्रित था, आज वे खेती कर रहे हैं और पढ़-लिखकर शहरों में काम कर रहे हैं। इस संस्था के कार्यकर्ताओं के मेहनत से ही यह सामाजिक-आर्थिक विकास संभव हुआ है। इसमें अन्य लोगों के साथ विलास मनोहर का भी महत्वपूर्ण योगदान है।

यदि आप लोक बिरादरी प्रकल्प के बारे में विस्तार से जानना चाहते हैं तो उसकी वेबसाइट www.lokbiradariprakalp.org पर जा सकते हैं।

यह भी पढ़ें- Green Khan: 300 पेड़ लगाकर, बनाया प्राकृतिक शामियाना, जिसके नीचे बैठ सकते हैं 12,000 लोग

यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है, या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ साझा करना चाहते हो, तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखें, या Facebook और Twitter पर संपर्क करें। आप हमें किसी भी प्रेरणात्मक ख़बर का वीडियो 7337854222 पर व्हाट्सएप कर सकते हैं।

Exit mobile version