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विलुप्त होती गौरैया को बचाने की मुहिम में जुटा है यह हीरो, गाँव में 7 से 100 हुई संख्या!

साल 2009 की बात है। रवीन्द्र साहू अपने दोस्त लिंगराज पांडा के साथ बातें कर रहे थे। लिंगराज पांडा पेशे से फोटोग्राफर हैं। बातचीत के दौरान पांडा ने शिकायत की कि वह ओडिशा के गंजम जिले के पुरूना गाँव में एक भी गौरैया की फोटो नहीं खींच पा रहे हैं। यह बात सुन कर रवीन्द्र साहू को ज़्यादा आश्चर्य नहीं हुआ। दोनों दोस्तों के बीच पूरे भारत में गौरैया की आबादी में लगातार होने वाली गिरावट को लेकर काफी देर तक चर्चा हुई।

साहू एक शोधकर्ता हैं और ओलिव रिडले के संरक्षण पर पहले से ही काम कर रहे थे। इसी बात पर ज़ोर देते हुए पांडा ने उनसे कहा कि ओलिव रिडले की तरह ही विलुप्त होती गौरैया पर भी उन्हें मुहिम शुरू करनी चाहिए।

साहू को फैसला लेने में देर नहीं लगी। अब वह गौरैया को वापस लाने के उपायों के बारे में सोचने लगे और इस संबंध में कार्य-योजना बनाकार काम शुरू कर दिया। 2009 में उनके गाँव में मात्र 11 गौरैया थी जबकि 2020 में यह संख्या बढ़ कर 300 हो गई है।

गौरैयों को वापस लाना – कैसे हुआ यह शुरू

Rabindra Sahu (extreme right) displaying his low-cost artificial nests

गौरैया को दाना डालना साहू के बचपन का एक अभिन्न हिस्सा था। 2000 के मध्य तक गौरैया की आबादी में तेजी से होती गिरावट को देख कर वह भी काफी दुखी थे। साहू के गाँव में एक समय था जब सरकार ने फूस से बनी झुग्गी-झोपड़ियों को हटा कर कंक्रीट मकानों का निर्माण करना शुरू किया था।

द बेटर इंडिया को साहू ने बताया, “झुग्गी की छत पर अपना घोंसला बनाने वाले गौरैयों के लिए थाली में थोड़े से चावल के दाने रखना एक रस्म की तरह था। लेकिन नए घर इस तरह से बनाए गए थे कि गौरैया के लिए कोई जगह नहीं बची थी।”

इसके अलावा, खेतों में कीटनाशकों के अंधाधुंध इस्तेमाल और पेड़ों की कटाई जैसी अन्य समस्याओं ने भी गौरैया को गाँव से दूर जगह खोजने पर मजबूर किया। साहू बताते हैं, “कीटनाशक उन सभी कीड़ों को मारते हैं जो नवजात गौरैया पहले कुछ हफ़्तों तक खाती है। घरों के निर्माण के कारण ग्रीन कवर भी कम हुआ, जिसके कारण गौरैया को अपने घोंसले बनाने के लिए जगह की कमी हुई। एक तरह से, हमारे घरों ने उनके घरों को नष्ट कर दिया।”

गौरैया के फीडिंग पैटर्न और घोंसले के स्थान का दस्तावेजीकरण

दस्तावेजीकरण एक धीमी प्रक्रिया थी। लेकिन साहू में धैर्य की कमी नहीं था। स्पॉट की पहचान करने के बाद, साहू ने अपने दोस्तों के साथ, दिन में तीन बार चावल, धान और अंकुरित अनाज बाहर रखना शुरू किया। एक हफ्ते बाद, गौरैया की संख्या में वृद्धि हुई और साल के अंत तक, पड़ोसी गांवों से 50 से अधिक गौरैया ने पुरुनबांधा को अपना घर बना लिया।

अगला और सबसे चुनौतीपूर्ण कदम गौरैया के लिए घर बनाना था।

इसके लिए उन्होंने गाँववालों से बात की और गौरैया के लिए जगह उपलब्ध कराने का अनुरोध किया। साहू बताते हैं, “मेरा विचार आर्टिफिशिअल घोंसले बनाने और उन्हें मुफ्त में वितरित करने का था। इसके लिए किसी भी परिवार को केवल एक घड़ा या कलश जैसा बर्तन अपने घर की छत से बांधने और हर दिन घोंसले में अनाज के कुछ दाने छोड़ने की ज़रूरत थी। इस काम के लिए कुछ परिवारों की सहमति प्राप्त करने में मैं सफल रहा।”

जैसा कि साहू के पास बाजार से लकड़ी के घोंसले खरीदने के लिए पर्याप्त पैसे नहीं थे, इसलिए वे एक रचनात्मक और कम लागत वाले विचार के साथ आए। उन्होंने 10-10 रुपये में 10 छोटे मिट्टी के घड़े खरीदे और उनके एक तरफ छेद बनाया ताकि गौरैया वहां से अनाज ले सके। फिर उन्हें लोगों के घरों की छत पर बांध दिया।

अगले पूरे महीने के लिए, वह दस घरों के आसपास सुबह और शाम को टहलने जाया करते थे, ताकि यह पता चल सके कि प्रयोग काम कर रहा है या नहीं। दिलचस्प बात यह रही कि महीने के अंत तक, उन्होंने गौरैया को न केवल घास-फूस लाते और वहां बसते हुए देखा बल्कि दो गौरैया को अंडे सेते हुए देखा।

Sahu setting up nests in houses

साहू कहते हैं, “मैं अपनी आंखों पर विश्वास नहीं कर पा रहा था। तब तक, मैं पक्षी संरक्षण का विशेषज्ञ नहीं था, लेकिन मैं देख सकता था कि मेंरा मिशन एक ठोस रूप ले रहा है। इस छोटी सी सफलता ने मुझे मिशन को जारी रखने और ज़्यादा लोगों को शामिल करने के लिए प्रोत्साहित किया।”

समय के साथ, उनकी मदद के लिए कुछ और परिवार आगे आए। इसके साथ ही उन्होंने अपनी व्यक्तिगत बचत और अपने एनजीओ, रशिकुल्या सी टर्टल प्रोटेक्शन कमेटी (आरएसटीपीसी) से कुछ धनराशि के ज़रिए और घड़े खरीदे और इसे अपने और आस-पास के गांवों में 200 परिवारों को मुफ्त में बांटा।

घोंसला बनाने के लिए, साहू ने अन्य सामग्रियों का भी इस्तेमाल किया जैसे प्लाईवुड, बांस और नारियल। ग्यारह साल के अथक प्रयासों के बाद, साहू की इको-पहल अब मनुष्यों और गौरैया के लिए सह-अस्तित्व का रास्ता दिखा रही है।

स्वाभाविक रूप से, उनके प्रयासों ने मीडिया का ध्यान आकर्षित किया और इसने इस अभियान को ओडिशा के ग्यारह जिलों तक पहुंचाने में मदद की। अब तक, साहू ने गौरेया संरक्षण के प्रति दिलचस्पी दिखाने वाले लोगों को 2,000 से ज़्यादा आर्टिफिशिअल घोंसले निशुल्क वितरित किए हैं।

हालांकि, अपने शोध और अपने एनजीओ के माध्यम से साहू प्रति माह 30,000 रुपये कमाते हैं, लेकिन फिर भी लुप्तप्राय प्रजातियों को वापस लाने के लिए वह प्रति घोंसला 80-300 रुपये तक खर्च करने में हिचकिचाते नहीं हैं। एक समय था, जब साहू को घोंसला लगाने के लिए लोगों से विनती करनी पड़ती थी लेकिन अब लोग खुद फोन करते हैं और घोंसला लगाने की इच्छा जताते हैं।

ओलिव रिडले कछुओं के लिए संरक्षण प्रयास

पक्षियों और जानवरों के लिए साहू का प्रेम 1993 से शुरू हुआ जब उन्होंने दसवीं कक्षा पूरी की थी। उस वर्ष, ओडिशा वन विभाग और भारतीय वन्यजीव संस्थान (WIF) के जीव विज्ञानियों ने खोज की कि रशिकुल्या बीच ओलिव रिडले कछुओं के लिए वह जगह है जहां बड़े पैमाने पर अंडे देने की क्रिया होती है। हालांकि, इस खोज को लेकर खुश होने के बजाय, जीवविज्ञानी चिंतित थे

उन्होंने पता लगाया कि कैसे स्थानीय लोग कछुओं के अंडे खा रहे थे। और उन्हें लोगों से बचाने के अलावा, कछुओं को जंगली जानवरों से सुरक्षा की भी ज़रूरत थी।

उनके विलुप्त होने की समस्या के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए WIF ने संरक्षण कार्यक्रम में कुछ स्कूली छात्रों को ट्रेनिंग दी। उन छात्रों में से एक साहू भी थे।

साहू बताते हैं, “कछुए के बारे में ग्रामीणों को शिक्षित करने से लेकर संरक्षण प्रदान करने और कछुओं को टैग करने तक, मैंने लगभग एक साल तक WIF टीम के साथ काम किया। मैं जिस तरह का काम कर रहा था उससे मुझे बहुत संतुष्टि मिली और मुझे पता चला कि मैं यह सब करना चाहता हूं।

अंडे देने के हर मौसम में, साहू औऱ RSTPC के सदस्य गीदड़ और चील को डरा कर भगाते हैं। वे अंडे भी इकट्ठा करते हैं और उन्हें समुद्री बीच पर बनाई गई कछुए पालने के बाड़े में दफनाते हैं। इसके अलावा, अंडे सेने की अवधि के 45 दिनों के बाद, वे कछुओं को पानी में छोड़ देते हैं।

एनजीओ नियमित रूप से समुद्र तट सफाई अभियान भी चलाती है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि कछुए हर तरह के कचरे से दूर रहें।

जब साहू पहली बार इस काम में शामिल हुए थे, तब वहां करीब 30,000 कछुए थे और कुछ वर्षों में यह आंकड़ा लाखों में चला गया है। दरअसल, इस साल मार्च की शुरुआत में, साहू का दावा है कि समुद्र तट पर 3.5 लाख कछुओं को देखा गया था। जिला वन विभाग और डब्ल्यूआईएफ के साथ, साहू ने विभिन्न उपायों के माध्यम से कछुओं की रक्षा करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
और इन सारी उपलब्धियां और प्रशंसा का श्रेय साहू अपनी पहली परियोजना को देते हैं।

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अंत में साहू बताते हैं, “अगर यह इस संरक्षण परियोजना के लिए नहीं होता, तो मैं अपना जीवन जानवरों और पक्षियों के लिए समर्पित नहीं करता। इसने मुझे सभी जीवित प्राणियों का महत्व सिखाया है। इसने मुझे दूसरों को शिक्षित करने और सभी के लिए सौहार्दपूर्ण वातावरण बनाने के लिए प्रोत्साहित किया। मुझे उम्मीद है कि अपनी अंतिम सांस तक अपना प्रयास जारी रखूंगा। ”

मूल लेख: गोपी करेलिया


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